समलैंगिक संबंधों की स्वतंत्रता को लेकर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को इस निर्णय से दु:खी नहीं होना चाहिए और न ही क्रोधित. मैंने समलैंगिक अधिकारों को लेकर पचास वर्ष पूर्व इंग्लैंड में चले अभियानों को नजदीक से देखा है. मैं कह सकता हूं कि यह कभी आसान नहीं रहा है, लेकिन यह आवश्यक है कि समाज के बहुसंख्यक तबके में इस अधिकार के प्रति साम्य भाव हो. इंग्लैंड में साठ के दशक के आख़िरी में वोल्फेनडेन की रिपोर्ट के बाद समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था, लेकिन उसके बाद भी सकारात्मक दृष्टिकोण से कोई मजबूत क़दम उठाने में सरकार को चालीस साल लग गए. 
तक़रीबन बीस साल पहले ब्रिटेन में काम कर रहा एक भारतीय अर्थशास्त्री मुझसे मिलने के लिए आया. उसने मुझसे पूछा कि क्या उसे स्वदेश वापस लौट जाना चाहिए और वहीं सेटल हो जाना चाहिए? मैंने कहा, हां, बिल्कुल. तभी उसने अपनी मुख्य परेशानी कह ही दी और बोला कि क्या उसे भारत में समलैंगिक होने की वजह से दिक्कतें आएंगी? मैंने कहा कि हिंदू धर्म में अब्राह्मिक धर्मों की तरह समलैंगिकता को अस्वीकार नहीं किया गया है. विक्टोरियन काल के आधुनिकीकरण के समय में ही भारतीय समाज ने कुछ नैतिकतावादी पुराने विचारों पर कुठाराघात किया था, जो शारीरिक संबंधों, विशेष रूप से समलैंगिक संबंधों को गलत मानते थे. उस समय मेरा ऐसा मानना था कि अगर वह नौजवान अपने संबंधों के बारे में बहुत बढ़-चढ़कर बात नहीं करेगा, तो उसे भारत में रहने में कोई परेशानी नहीं होगी. उसके बाद वह युवक भारत लौट गया और इस समय अपने घर पर ही रहता है.
मुझे यह विचार सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया निर्णय के बाद आया, जिसमें समलैंगिक संबंधों पर सभी याचिकाएं खारिज कर दी गईं और दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय को किनारे कर दिया गया, जिसकी वजह से धारा 377 आईपीसी से बाहर होने की कगार पर आ गई थी. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद ऐसा लगा था कि शायद सरकार इस पर दृढ़ता से आपत्ति दर्ज कराएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब एकमात्र उपाय संसद में कानून बनाकर इस धारा को आईपीसी से निकालना ही बचा है, लेकिन इसकी भी कितनी उम्मीद की जा सकती है? संसदीय गतिविधियां अपने पूरे उद्देश्य के साथ चल नहीं पाती हैं. चुनावों के बाद आपसी झगड़ों में शायद कुछ कमी आए, कम से कम शुरुआती दो-तीन सालों तक तो ऐसा ही लगता है. लेकिन क्या हम इस बात की आशा कर सकते हैं कि संसद धारा 377 को हटाने के लिए कोई मजबूत क़दम उठा सकेगी? यह 2014 के लोकसभा चुनाव के विजेताओं पर निर्भर करेगा और अगर भाजपा जीतेगी तो, जैसा लग रहा है, इस मुद्दे पर कुछ होने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि वह धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के साथ हैं. इस कारण इसकी उम्मीद कम ही है कि वह इस पर कुछ करें या कोई क़ानून लाएं.
समलैंगिक संबंधों की स्वतंत्रता को लेकर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को इस निर्णय से दु:खी नहीं होना चाहिए और न ही क्रोधित. मैंने समलैंगिक अधिकारों को लेकर पचास वर्ष पूर्व इंग्लैंड में चले अभियानों को नजदीक से देखा है. मैं कह सकता हूं कि यह कभी आसान नहीं रहा है, लेकिन यह आवश्यक है कि समाज के बहुसंख्यक तबके में इस अधिकार के प्रति साम्य भाव हो. इंग्लैंड में साठ के दशक के आख़िरी में वोल्फेनडेन की रिपोर्ट के बाद समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था, लेकिन उसके बाद भी सकारात्मक दृष्टिकोण से कोई मजबूत क़दम उठाने में सरकार को चालीस साल लग गए. जब कंजरवेटिव पार्टी ने इस पर निर्णय लिया और यह निर्णय इतनी देर से उस स्थिति में हुआ, जबकि मशहूर पब्लिक स्कूलों में कई कंजरवेटिव नेता रहे हैं, जहां पर इसका पूरा प्रसार है. यहां तक कि सांसदों के बीच भी कई ऐसे समलैंगिक रहे हैं, जिन्होंने कभी अपनी यौन प्राथमिकताओं को उजागर नहीं किया. इसलिंगटन साउथ के सांसद क्रिस स्मिथ पहले ऐसे नेता थे, जो इस मामले में खुलकर सामने आए कि मैं पार्टी में एक्टिव रहा हूं और इस अभियान के लिए भी. स्मिथ द्वारा खुली घोषणा करना समलैंगिकता के मुद्दे पर एक मजबूत क़दम था.
लेबर पार्टी समलैंगिक अधिकारों को लेकर एक्टिव थी, लेकिन पार्टी के भीतर भी कई नेता ऐसे थे, जो इसे लेकर कंजरवेटिव व्यवहार करते थे. टे्रड यूनियन वाले ब्रेड और बटर को लेकर तो काफी उत्साह दिखाते थे, लेकिन समलैंगिक संबंधों को लेकर वे मृतप्राय: थे. मारग्रेट थैचर वाली कंजरवेटिव सरकार इस बात के पक्ष में भी नहीं थी कि समलैंगिक अध्यापक स्कूलों में पढ़ाएं, क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसा होने से ये अध्यापक विद्यार्थियों में भी इस बीमारी का संचार कर सकते हैं. समय और एक बार फिर हमने भी एजुकेशन एक्ट से उस धारा को हटवाया, जो समलैंगिक विरोधी थी. इंग्लैंड के गिरिजाघरों में भी खुले रूप से गे बिशप रहे हैं. कैथोलिक चर्च को 21वीं सदी में हाल में पोप फ्रांसिस लेकर आए हैं, लेकिन इसके बावजूद कैथोलिक गिरिजाघरों में खुले तौर पर समलैंगिक पादरी रहे हैं.
इस तरह से भारतीय समलैंगिकों के लिए यह एक लंबा अभियान है कि वे अपने माता-पिता, शिक्षकों एवं दोस्तों को इस बात के लिए जागरूक करें कि वे एक स्वस्थ वातावरण तैयार करें. यह अभियान कोर्ट के इस निर्णय मात्र से समाप्त नहीं हो जाता है. ज़रूरत इस बात की है कि समलैंगिकों की जीवन प्रणाली को किसी भी अन्य जीवन प्रणाली की तरह ही समाज में बड़े स्तर पर मान्यता मिलनी चाहिए, लेकिन यह काम आसान नहीं होगा. इस कार्य में राजनेताओं का बड़ा योगदान हो सकता है, जैसा कि बिल क्लिंटन और बराक ओबामा ने दिखाया है. आख़िर भारत में कौन है, जो समलैंगिकों की राजनीतिक आवाज बनेगा? नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल अथवा कोई दूसरा, जो हाल ही में उभरा हो.

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