भारतीय राजनीति में ‘किंग’ तो बहुत हुए, लेकिन ‘किंगमेकर’ के रूप में सिर्फ एक व्यक्ति को जाना जाता है और वे थे कुमारास्वामी कामराज. एक सुविधाविहीन बालक भी अपने जुनून के बल पर कैसे सियासत का सरताज बन सकता है, कामराज इसकी मिसाल थे. के कामराज का जन्म 15 जुलाई 1903 को तमिलनाडु के एक छोटे से पिछड़े गांव विरुद पट्टी में हुआ था. उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने ग्रह-नक्षत्र देखकर कहा था कि बालक कामराज की कीर्ति सूर्य के समान चमकेगी.
हालांकि उस समय की पारिवारिक परिस्थितियों को देखते ज्योतिषी की बात पर किसी ने यकीन नहीं किया. वे हिन्दू समाज की सबसे ज्यादा दबी हुई जातियों में से एक नादर जाति से थे. के कामराज के पिता नतत्न मायकार कुदुमबम्ब नारियल का धंधा करते थे और मां शिवकामी गृहिणी थीं. बालक कामराज 6 साल के थे जब उनके पिता की मृत्यु हो गई.
उस समय कामराज ने स्कूली पढ़ाई शुरू ही की थी. कामराज की पढ़ाई चलती रहे इसलिए उनकी मां ने अपने गहने बेचकर जुटाए गए पैसे महाजन के पास रख दिए, ताकि सूद से पैसे मिलते रहें. लेकिन वे भी अपर्याप्त साबित हुए और 1914 में कामराज को बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. घर का खर्च चलाने की चिंता भी इन पर आ पड़ी, इसलिए उन खेलकूद के दिनों में ही वे अपने मामा की दूकान पर बैठकर काम करने लगे. कामराज एक सफल व्यापारी बनना चाहते थे, लेकिन नियति ने तो उन्हें किसी और क्षेत्र के लिए चुना था.
कामराज की उम्र 15 साल थी, जब जलियांवाला बाग कांड हुआ. इस नरसंहार ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. इसी दौरान उन्होंने श्रीमती एनी बेसेंट के होमरूल आंदोलन के बारे में सुना. कामराज के मन में अंग्रेजों के खिलाफ बैठे गुस्से को गांधी जी के विचारों ने भी एक दिशा दी और वे आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए. जाने-माने वक्ता एवं प्रखर सांसद एसएस सत्यमूर्ति उनके राजनीतिक गुरु थे. दक्षिण भारत में छुआछुत एक भयंकर बीमारी के रूप में फैली थी. गांधीजी ने अछुतोद्वार के लिए जब आंदोलन चलाया, तो कामराज गांधीजी के प्रथम सत्याग्रही बने. उसके बाद तो गांधीजी का कोई भी आंदोलन हो, चाहे वो नागपुर का झंडा सत्याग्रह आंदोलन या फिर नमक सत्याग्रह आंदोलन, कामराज सभी में भाग लेते रहे.
अप्रैल 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. उसके बाद तो जेल जाना उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया. कुल मिलाकर वे छह बार जेल भेजे गए. के कामराज को जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य चुना गया, उस समय उनकी आयु 28 वर्ष थी. कामराज ने तमिलनाडु की राजनीतिक गतिविधियों में आगे बढ़कर भाग लिया. 1934 में जब कांग्रेस ने प्रांतीय विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ा, तो कामराज ने उसमें खूब योगदान दिया. 1937 में वे विरुद नगर चुनाव क्षेत्र से भारी बहुमत से चुने गए.
ये स्थान सदा से अंग्रेजों के पिट्ठुओ का गढ़ रहा था. फरवरी 1940 में वे तमिलनाडु कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गए और इस पद पर 1954 तक रहे. अगस्त 1942 में जब बम्बई में भारत छोड़ो आंदोलन सम्बंधी प्रस्ताव पारित किया गया, तो उस समय कामराज तमिलनाडु प्रादेशिक कांग्रेस के अध्यक्ष थे. इस प्रस्ताव को वहां लागू कराने का दायित्व उन्हीं पर था. बम्बई में सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे.
लेकिन कामराज बम्बई से मद्रास आते हुए स्टेशन से पहले ही उतर गए और अपने साथियो को आदेश देकर अगले दिन स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया. कामराज एआईसीसी की कार्यकारी समिति में 1947 से 1969 में कांग्रेस में दरार पड़ने तक एक सदस्य की तरह या विशेष आमंत्रित अतिथि की तरह थे. मद्रास विधान मंडल के लिए वे 1946 में दुबारा निर्वाचित हुए. 1946 में ही उन्हें भारत की संविधान सभा के लिए चुना गया. फिर 1952 में कामराज संसद के लिए निर्वाचित हुए.
कामराज 1954 में मद्रास के मुख्यमंत्री बने. वे सी राजगोपालाचारी को हरा कर मुख्यमंत्री बने थे. कामराज को तमिलनाडु के गांवों में शिक्षा का जनक माना जाता है. अंग्रेजों के जमाने में वहां शिक्षा सात प्रतिशत थी. कामराज के कार्यकाल में 37 प्रतिशत तक पहुंच गई.
राजगोपालाचारी के कार्यकाल में वहां 12 हजार स्कूल थे, जो कामराज के समय में बढ़कर 27 हजार हो गए. उन्होंने स्कूलों में पढ़ाई के दिन बढ़ाए, अनावश्यक छुट्टियों में कटौती की गई और पाठ्यक्रम बदले गए, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर हो और छात्रों के संपूर्ण व्यक्तित्व में वृद्धि हो सके. कामराज ने ही स्कूलों में मिड डे मील योजना की शुरुआत की. अशिक्षा खत्म करने के लिए उन्होंने कक्षा 11 तक मुफ्त अनिवार्य पाठ्यक्रम शुरू किया.
उन्हीं के प्रयासों से 1959 में आइआइटी मद्रास की स्थापना हुई. कृषि के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए. उन्होंने पांच बड़े नहरों का निर्माण कराया, जिससे 150 लाख एकड़ खेतों में सिंचाई होने लगी. उन्हीं के कार्यकाल में भेल (त्रिची में), नेवेली लिइट कॉरपोरेशन और मनाली रिफाइनरी लिमिटेड की स्थापना हुई. कामराज 9 साल तक मुख्यमंत्री रहे.
संगठन के स्तर पर कमजोर होती जा रही कांग्रेस को देखते हुए उन्होंने 1963 में पंडित नेहरू को सलाह दी कि मुख्य कांग्रेसी नेताओं को मंत्री पद छोड़कर संगठनात्मक कार्य करना चाहिए. इस सलाह को ‘कामराज योजना’ कहा जाता है. कांग्रेस कार्यकारी समिति ने इस योजना का समर्थन किया और दो महीने के भीतर ही इसे लागू कर दिया गया.
इस योजना के अन्तर्गत छह मुख्यमंत्रियों और छह केंद्रीय मंत्रियों ने त्याग पत्र दे दिए. अक्टूबर 1963 में कामराज को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया. वे अध्यक्ष पद पर थे तभी तत्कालिन प्रधानमंत्री नेहरू जी की मृत्यु हो गई. नेहरू जी के बाद नया प्रधानमंत्री चुनने की बड़ी जिम्मेदारी कामराज की थी. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कामराज को दो बार प्रधानमंत्री चुनने का अवसर मिला और दोनों बार उन्होंने तमाम सियासी चालों को मात देते हुए देश को एक मजबूत नेतृत्व दिया.
शासन और सरकार के मामले में कामराज की प्रतिबद्धता कितनी स्पष्ट थी, इसे इस प्रसंग से समझा जा सकता है- प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्रीजी के चयन की आहट पाकर इंदिरा गांधी ने कामराज को इस आशय का पत्र भेजा कि देश अभी शोक मना रहा है, 13 दिनों का राजकीय शोक है, इसलिए यह सही नहीं होगा कि अभी नेहरू का उत्तराधिकारी चुना जाए. कामराज को जब ये पत्र मिला उस समय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक चल रही थी. पत्र मिलते ही कामराज ने बैठक स्थगित कर दी.
वे भांप गए कि कुछ गड़बड़ है. वे वहां से सीधे तीन मूर्ति भवन चले गए, जहां शोक में सबलोग बैठे थे. कामराज भी वहां जाकर बैठे. इंदिराजी का पत्र उनके पॉकेट में था. फिर कुछ देर बाद जब वे वहां से निकलने लगे, तो दो-तीन सीढ़ी ही उतरे होंगे कि इंदिराजी लगभग दौड़ती हुई उनके पास आईं और पूछा, आपको मेरा पत्र मिला है? उन्होंने अपना पॉकेट दिखाया और कहा कि हां मिला है. तब इंदिराजी ने पूछा, अब आप क्या करने जा रहे हैं? इसपर कामराज का उत्तर था, वे आपके पिता थे, इसलिए आपके दुख का एहसास है.
लेकिन हम सब आज अनाथ हैं, क्योंकि वे हमारे भी पिता थे. हम आपकी भावना और दुख की घड़ी में साथ हैं. लेकिन एक पार्टी के रूप में हमारा दायित्व है कि पंडितजी के उत्तराधिकारी का तत्काल बगैर विवाद के चयन हो, अन्यथा पूरे देश-विदेश में एक संशय और गलत संदेश जाएगा कि भारत में हो क्या रहा है? हम इसकी इजाजत नहीं दे सकते. हम यह नहीं होने दे सकते हैं. इसलिए हमलोग अपने निर्णय पर आगे बढ़ रहे हैं. इसके बाद शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने.
19 महीने बाद जब ताशकंद में शास्त्री जी का निधन हो गया, तो कामराज के सामने एक बार फिर से प्रधानमंत्री चुनने की नई चुनौती आ खड़ी हुई. फिर से पुराना गुट हरकत में आया. मोरारजी देसाई और इंदिराजी के बीच चयन होना था. ये भी चर्चा थी कि कामराज खुद प्रधानमंत्री बनना चाहेंगे. लेकिन कामराज के नेतृत्व में सिंडिकेट के नेताओं ने महसूस किया कि प्रधानमंत्री वो बने, जिसकी अखिल भारतीय पहचान हो और फिर इंदिरा गांधी को नए प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया.
कामराज न तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही संभ्रांत वर्ग से थे और न ही रूप-रंग से आकर्षक थे, लेकिन 1964 और 1966 में दो-दो बार प्रधानमंत्री के चयन में उन्होंने जिस विलक्षण बुद्घि, धैर्य, संयम और श्रेष्ठ आचरण का परिचय दिया वो बेमिसाल है. कामराज को कई लोग दक्षिण का गांधी भी कहते हैं. ये इत्तेफाक ही है कि 1975 में गांधी जी की जयंती 2 अक्टूबर को ही इस महान नेता की मृत्यु हो गई. मरणोपरांत 1976 में इन्हें भारत रत्न से विभूषित किया गया.