एक परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) में अपनी बात रखूंगा. जब एक परिप्रेक्ष्य में बात होती है तो उसमें आपको राजनीति के साथ-साथ इतिहास का भी ध्यान रखना पड़ता है. राजनीति और इतिहास के साथ-साथ मनोविज्ञान का भी ख्याल रखना पड़ता है. कश्मीर का जो विवाद है, इसके तीनों पहलू हैं. इसमें इतिहास, राजनीति और सबसे बड़ी बात ये कि मनोविज्ञान का भी एक पहलू है. कश्मीर की एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक पहचान है. राजनीति और इतिहास दोनों के संदर्भ में कश्मीर के इस सामूहिक मनोवैज्ञानिकपहचान को समझना होगा.
मैं आपको एक बात बताऊं . वह इसलिए नहीं कि मैं कोई भाषण देना चाहूंगा, बल्कि इसलिए कि बात को समझा जाए. आगे बढ़ना है और जब आगे बढ़ना होता है, तो बात को समझना पड़ता है. जब आप आगे बढ़ना ही नहीं चाहते हैं, तो बात को आप समझें या न समझें, कुछ भी नहीं होगा. लेकिन जब आप आगे बढ़ना चाहेंगे, बात को समझना चाहेंगे तो आप बहुत आगे बढ़ सकते हैं और अपनी मंजिल पा सकते हैं. मैं उसी इरादे से, उसी नीयत से, उसी सोच से आगे बढ़ने के लिए आपसे बात कर रहा हूं. जब आप (यानी भारत) आए, कश्मीर आए, आप घनगरज के साथ आए. जब आप कश्मीर आए तो बंदूकों के धमाकों और लोकतंत्र के शोरगुल के साथ आए. इसका असर यहां की सामूहिक चेतना (कलेक्टिव कॉन्शसनेस) पर पड़ा. सबने इसे देखा. सबने इसे पाया. सबने इसेे सहा. अभी मैं एक कड़वी सी बात कर रहा हूं, लेकिन ये कड़वी बात आपको सुननी पड़ेगी. क्योंकि मेरा ख्याल है कि आप भारत की सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. आप हिंदुस्तान की सोच को कुछ बतलाना चाहते हैं, तो आपको ये बात समझनी पड़ेगी. आपको पता है कि हिंदुस्तान बंदूक की घनगरज के साथ कश्मीर में दाखिल हुआ. जम्हूरियत की शोर के साथ आपने नारे लगाए, आपने वादे किए, लोकतांत्रिक वादे किए कि हम इस घनगरज के खात्मे के बाद आपसे पूछेंगे, आप क्या चाहते हैं? कहां जाना चाहते हैं? हमारे साथ रहना चाहते हैं कि पाकिस्तान जाना चाहते हैं? ये न सिर्फ उस वक्त हुआ, जब कश्मीर को आपके नाम वक्फ किया गया, यानी जब महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र (इन्सट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर हस्ताक्षर किया. उस वक्त भारत के गवर्नर ने महाराजा हरि सिंह को एक पत्र लिखा कि जैसे ही हालात सामान्य हो जाएंगे, हम इस मसले को लेकर जनता के पास जाएंगे. हम जनता की राजनीतिक इच्छाओं को बहाल करेंगे, चाहे वो हमारे साथ रहना चाहते हों या नहीं. हम ऐसा करेंगे. इसी को मैं लोकतंत्र का शोर कहता हूं. अब देखें कि कितना ज़बरदस्त विरोधाभास है. जब आप इन विरोधाभासों के साथ ऐसी हालत में पहुंचते हैं, आप कहते हैं, जो होना था हो गया, तो इसका नतीजा क्या है? नतीजा ये है कि कश्मीर की जो सामूहिक आत्मा है, वो आत्मा जख्मी हो गई है. मेरे विचार से उसे बड़ा गहरा जख्म लगा है. उस सामूहिक आत्मा को आपको समझना पड़ेगा. हमारे पूर्वज हिन्दू थे. उन्होंने एक संवाद के दौरान इस्लाम को चुना इसलिए मैं एक धर्मांध नहीं हो सकता. ये धर्म परिवर्तन एक बौद्धिक स्तर के संवाद के दौरान हुआ. और इसके मायने ये हुए कि बिल्कुल खुशी-खुशी सब कुछ हो रहा था. कोई झगड़ा नहीं, कुछ नहीं. उसमें हमारी माएं, बहनें और बेटियां शामिल नहीं थीं. मगर जो बात मैं आपको बताना चाहता हूं वो ये कि कश्मीर का जो इतिहास है, वो भाईचारे का इतिहास है. उसके जो गुण हैं, उसमें एकता है, विरोधाभासों के साथ एकता, अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के साथ एकता. इसे हम धार्मिक मानवतावाद कहते हैं. हम धार्मिक मानवतावाद के पथ प्रदर्शक थे, लेकिन हमारी बदनसीबी यह कि हमारी आत्मा को एक और गहरा जख्म लग गया. भारत और पाकिस्तान दोनों कश्मीर मामले में उलझ गए. अब जाहिर है कि मैं (यानी कश्मीर) छोटा, हिंदुस्तान बड़ा. पाकिस्तान के मुकाबले मैं (यानी कश्मीर) छोटा, पाकिस्तान बड़ा. अब तो स्थिति ही पूरी तरह से बदल गई है. भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति बन गए हैं. अब तो जम्मू और कश्मीर राज्य में दो परमाणु शक्ति संपन्न देश उलझ गए. अब तो मेरा (कश्मीर का) हुलिया ही बिगड़ सकता है. अब तो मेरी (कश्मीर की) नस्ल ही खत्म हो सकती है. अब तो शायद कश्मीर की वजह से पूरा दक्षिण एशिया क्षेत्र ही भस्म हो सकता है. अब तो मैंने (कश्मीर समस्या) एक बड़ा आयाम ले लिया है. भारत और पाकिस्तान जब अपने उपमहाद्वीपीय विडंबनाओं को लेकर कश्मीर में उलझ गए तो यहां की सामूहिक आत्मा को एक और जख्म लगा. एक तीसरा ज़ख्म भी लगा. वो ज़ख्म ये था कि जवाहरलाल नेहरू, जो एक महान लोकतांत्रिक व्यक्ति थे, इतने उदारवादी थे कि हिंदू धार्मिक नेता उन्हें हिंदू ही नहीं समझते थे. उन्होंने कहा था कि अगर जम्मू-कश्मीर के लोग पाकिस्तान के साथ जुड़ना चाहते हैं, तो इसे लेकर मुझे दुख जरूर होगा, लेकिन मैं इस फैसले को स्वीकार करूंगा. यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय और जम्मू-कश्मीर की जनता से मेरा वादा है. ये 1950 के दशक की बातें हैं. फिर 1954 में जवाहरलाल नेहरू सरकार में गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने एक बयान दिया. उस बयान का ये मतलब था कि हिंदुस्तान अब इस मसले को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद में जाने के वादे से मुकर रहा है. सुरक्षा परिषद ने इस झगड़े को कायम रखने के लिए प्रस्ताव (रिजॉल्यूशन्स) पेश किये हैं. उन्होंने इसको खत्म करने के लिए प्रस्ताव नहीं बनाए. इसलिए बनाए कि इनमें झगड़ा बना रहे और ये लोग आपस में लड़ते रहें क्योंकि ये तो हमारे गुलाम थे, हम इनके बादशाह थे. अब हमको निकलना पड़ा. इनको आराम से नहीं बैठने देना, तो कुछ ऐसा हुआ कि ऐसे प्रस्ताव आ गए कि उनपर अमल भी नहीं हुआ और यहां की स्थिति बदलती रही. अमेरिका और पाकिस्तान में रक्षा समझौता हो गया. इसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि अब जनमत संग्रह नहीं होगा.
लिहाज़ा, अंदर ही अंदर यहां की रूह एक और ज़ख्म खा गई. यह जख्मी रूह है, जो आपसे बात कर रही है. आपने जब इलाज ढूंढा, वो मेरे पेट का इलाज ढूंढा. आपने जब इलाज ढूंढा वो मेरी जेब का इलाज ढूंढा. मेरी जेब में आपने रुपया-पैसा डाला, मेरे पेट में आपने चावल डाला, गेहूं डाला, लेकिन मेरी जो जख्मी आत्मा थी, उसकी तरफ आपने कभी ध्यान नहीं दिया. नतीजा ये हुआ कि कश्मीरी, जो धार्मिक मानवतावाद का प्रचारक था, उसने बंदूक उठा लिया.
अगर कश्मीर की समस्या को समझना है तो ऐसे समझना चाहिए कि आप मेरे भौतिक आयाम का हल निकाल रहे हैं, मेरा जो आध्यात्मिक आयाम है उसे आप देखना ही नहीं चाहते हैं. इससे कुछ नहीं होगा. मेरी जिंदगी भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तत्वों का मिश्रण है.
तो अब स्थिति को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं. राजनीतिक और ऐतिहासिक तौर पर कश्मीर मसला विभाजन के भंवर जाल से पैदा हुआ. उस इतिहास को दोहराने से कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन बात को समझना पड़ेगा. इनमें दो-तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहला, भारत और पाकिस्तान के बीच शक्ति संतुलन बहाल हो गया है. भारत जितना शक्तिशाली है, पाकिस्तान भी उतना ही शक्तिशाली है. यह संख्या या आकार की वजह से नहीं, बल्कि परमाणु शक्ति की वजह से हैै. मेरी जो समझ है, उसके मुताबिक़ मैं कह सकता हूं कि भारत और पाकिस्तान कभी जंग नहीं लड़ सकते. लेकिन जो बात मुझे परेशान करती है, वह यह है कि भारत और पाकिस्तान दोनों लगातार युद्ध की हालत में हैं. यानी जब आप युद्ध की हालत में हों, तब आप युद्ध नहीं करते हैं, लेकिन आप युद्ध की स्थिति में उलझे रहते हैं. तब आपके दिमाग में, आपके दिल में, आपकी आत्मा में, गलियों में, सरकारी कार्यालयों में, सीमा रेखा पर और सब जगह युद्ध जैसी स्थिति चल रही होती है. और मेरे ख्याल में युद्ध की स्थिति परमाणु युद्ध से ज्यादा खतरनाक होती है. इस चीज से बाहर निकलना पड़ेगा. दूसरा, कश्मीर उबाल पर है और इस उबाल में शायद मैं आपको दिखाई ना दूं. मेरा बेटा दिखाई देगा, मेरे बेटे का बेटा दिखाई देगा, शायद उसका बेटा भी दिखाई देगा. मैंने एक बच्चे को देखा है. शायद आपने भी देखा हो, वो छह साल का है. वह गुलेल हाथ में लिए हुए है. वहां कोई फौज नहीं है, कोई सीआरपीएफ नहीं है, कोई कश्मीर पुलिस नहीं है. कुछ नहीं है. लेकिन वो एक बंद दुकान के बाहर बैठा है. मैं उसके अंदाज को देख रहा था, उसके स्टाइल पर गौर कर रहा था और उसकी छोटी सी, मासूम सोच को भी परख रहा था. तभी मैंने ये सोचा कि ये झगड़ा अब उम्र के लिहाज से 80 साल और बढ़ गया है. यह बच्चा तो अभी छह साल का है. अगर उसकी नब्बे साल उम्र रखी जाए, तो कब तक चलेगा ये झगड़ा? अब आप इसे यूं समझें कि छोटे लड़के व नौजवान पंद्रह साल, सोलह साल, अठारह साल, बीस साल के मैदान में हैं. इससे इस झगड़े की उम्र 80 साल और बढ़ गई है. जब ये नौजवान आते हैं न मैदान में तो ये तर्क की बुनियाद पर नहीं आते हैं, बल्कि ये भावनाओं की बुनियाद पर आते हैं. भावनाएं आपको कभी-कभी पागलपन की सीमा तक पहुंचा देती हैंै. इसमें कभी-कभी कुछ खराबियां भी हो जाती हैं और उन खराबियों के नतीजे में जो भागीदारी होती है, वो बहुत गहरी होती है. एक और दाग, एक और घाव, एक और जख्म. पैलेट गन से आपने मेरे बेटे की आंख की रोशनी छीन ली. दूसरा कहता है कि उसने ये रोशनी खोई, आपका भविष्य बेहतर बनाने के लिए. मैंने ये सर कटते देखा, जो आपका सर बुलंद देखने के लिए कटा. ये सबक़ पढाया जा रहा है कश्मीर में. तो कश्मीर में जो उबाल है, इसके आयाम को भी लेना पड़ेगा. मेरा ये ख्याल है कि बहुत गहराई के साथ देखना होगा, इसमें गुस्से की कोई बात नहीं. आप गुस्सा न करें, मैं भी गुस्सा नहीं करूंगा. गुस्सा किया तो कहां जाएंगे? कोई रास्ता नहीं है. कोई मंजिल नहीं है. एक बात जरूर है कि अगर हम इसको समझ पाएं तो रास्ता दिखाई देगा. सीधा, समतल और मंजिल तक पहुंचने वाला रास्ता दिखाई देगा. अभी जो कश्मीर में हो रहा है, वह गुस्सा है. इधर से भी गुस्सा है, उधर से भी गुस्सा है. ये गुस्सा कहां ले जाएगा, इसका अंदाजा तो आप कर सकते हैं, ये बताने की कोई जरूरत नहीं है. तो एक तो जंग की हालत से निकलना होगा. दूसरे, इस उबाल से निकलना होगा.
अब तीसरी बात आती है. व्यावहारिक स्तर पर जो गठजोड़ बन रहे हैं, उनको भी देखना पड़ेगा. आप चीन को जानते हैं, आप अमेरिका को जानते हैं, आप भारत को जानते हैं, आप पाकिस्तान को जानते हैं, आप ईरान को जानते हैं, आप अफगानिस्तान को जानते हैं, आप मध्य पूर्व को जानते हैं, आप मध्य एशियाई देशों को जानते हैं, आप अफ्रीका को जानते हैं. लेकिन जो गठजोड़ बन रहे हैं, एक तो ये कि वो परस्पर विरोधी हैं. तभी तो मुझे दिख रहा है कि दुनिया के दो सबसे अधिक शक्तिशाली देश चीन और अमेरिका दक्षिण एशिया के मामलों में लिप्त हैं. यह बहुत महत्वपूर्ण और खतरनाक क्षेत्र है. यहां झगड़े भी हैं. उसमें एक झगड़ा कश्मीर का भी है. अगर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष होता है, तो हमारा काम तमाम हो जाएगा. क्योंकि चीन के अपने लक्ष्य हैं, अमेरिका के अपने लक्ष्य हैं. हमारा कोई लक्ष्य दिखाई ही नहीं देता है, बावजूद इसके कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे को गाली दें. इस हालत से भी निकलना पड़ेगा. भारत को भी और पाकिस्तान को भी. किसी सूरत में भी निकलना पड़ेगा. नहीं तो मेरा ख्याल है कि भारत और पाकिस्तान दोनों एक संकट में घिर जाएंगे. फिर न राधा नाचेगी और न बांसुरी बजेगी. एक-दो लम्हे में हमारा काम तमाम हो चुका होगा. हमें तीन बड़ी मुसीबतों से निकलना होगा. कैसे निकलेंगे? अगर मैं ये कहूं कि लड़ाई लड़ेंगे, तो ये तो एक और मुसीबत है. हमें लड़ाई नहीं लड़नी है, हमें गुस्सा छोड़ना होगा. इस से निकलने के लिए हमें सूझ-बूझ और समझदारी से काम लेना होगा. तीन चीजें मुझे दिख रही हैं. एक, यथार्थवाद, दूसरा कल्पनाशीलता, तीसरा समायोजन. इन्हीं तीन चीजों को लेकर हम इस मुसीबत से निकल सकते हैं. कैसे निकलें, शुरू कैसे करें? शुरू करने के लिए जो चीज़ बहुत जरूरी है, शायद अपरिहार्य है, वह है हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच सार्थक और व्यापक बातचीत. उस बातचीत का भारत और पाकिस्तान में जो सबसे बड़ा सकारात्मक परिणाम दिखेगा, उससे कश्मीर में एक खुशगवार तब्दीली आ जाएगी. कश्मीर के हालात में सुधार दिल्ली और इस्लामाबाद के हाथों में हैै, जम्मू-कश्मीर में नहीं है. दिल्ली और इस्लामाबाद को दक्षिण एशिया के वृहत हित के लिए एक दूसरे के संपर्क में रहना चाहिए. मुझे ऐसा लग रहा है कि कश्मीर अब दक्षिण एशिया के भविष्य के साथ जुड़ चुका है. इस क्षेत्र के दो शक्तिशाली देश भारत और पाकिस्तान से जुड़ चुका है. अब इनके बीच संघर्ष कितना खतरनाक हो सकता है, इसलिए जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान बातचीत शुरू करें. उसका जो खुशगवार नतीजा आएगा, वो ये कि कश्मीर में लोग समझेंगे कि अब कुछ हो रहा है. कुछ मूवमेंट हो रही है. तो ये सब ठीक हो जाएगा यहां.
दूसरा, जब भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत शुरू होगी, तो हम दिल्ली जाएंगे, दिल्ली वालों से बात करेंगे, हम पाकिस्तान जाएंगे, पाकिस्तान वालों के साथ बातचीत करेंगे. हम दोनों की भलाई की बात करेंगे. हम भारत और पाकिस्तान दोनों जगहों के लोगों को प्यार करते हैं. इसका कोई गलता अंदाज़ा न लगाया जाए और उसकी सबसे बड़ी वजह ये है, जैसा मैंने कहा था कि हम धार्मिक मानवतावाद का,
मेल-मिलाप का प्रतिनिधित्व करते हैं. मैं दिल्ली के लोगों से प्यार, मोहब्बत और गंभीरता से बात करता हूं. तो इन चीजों को देखना होगा. अगर मैं पाकिस्तान जाऊंगा, तो वहां भी वही करूंगा. मैं उनसे दृढ़ता व मेल-मिलाप से बात करूंगा, ताकि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के करीब आएं और दक्षिण एशिया के हालात को स्थिरता दे सकें. इसमें हमारा योगदान भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए बहुत सकारात्मक होगा. कश्मीर से संबंधित कुछ बातें आप से अभी नहीं करूंगा, जिसका मुझे अफसोस है. मुझे करना चाहिए था, लेकिन पहले इस पर मुझे थोड़ा सोचना है. हम धार्मिक मानवतावाद के पथ प्रदर्शक की अपनी भूमिका को फिर निभाएंगे. यह भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ तमाम दक्षिण एशिया पर हमारा कर्ज़ है और शायद यह हमारे भविष्य की पीढ़ी का भी कर्ज है. हम नहीं चाहते कि हमारी अगली पीढ़ी को एक ऐसा क्षेत्र मिले जो तनावपूर्ण हो. हम आने वाली पीढ़ियों को एक समृद्ध और शांतिपूर्ण भविष्य देना चाहते हैं. हम एक ऐसी रणनीति पर काम करेंगे जिससे एक शांतिपूर्ण, समृद्ध दक्षिण एशिया का निर्माण होगा.
नेहरू द्वारा रायशुमारी के वादे से मुकरने के बारे में पूछे जाने पर प्रोफेसर बट ने कहा, मेरा ख्याल है कि इस सवाल में निहित खतरों के मद्देनजर इसमें उलझना ही नहीं चाहिए. क्योंकि आपका एक बहुत बड़ा मिशन है. अगर आप अपने आपको इतिहास का कैदी बनाएंगे, तो आप उससे निकल नहीं पाइएगा. हमें अंधकार से उजाले की ओर जाना है. मैं टनेल के उस पार अपनी आंखों से रोशनी देख रहा हूं. आप इन तारीखी गुत्थियों में मत उलझिए.
कश्मीर में हालिया उबाल का हल कश्मीर में है, दिल्ली या इस्लामाबाद में नही. लेकिन जैसा कि मैंने आपसे कहा, गाड़ी को स्टार्ट करने वाले दिल्ली और इस्लामाबाद वाले हैं. रास्ता कहां जाना है, ये मैं (कश्मीर) बताता हूं. लेकिन आप गाड़ी तो स्टार्ट करें न. आप गाड़ी को स्टार्ट ही नहीं करना चाहते हैं. मुझसे कहते हैं, कहां जाना है. मेरी राय में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत आवश्यक है, और शायद बातचीत में ही मसले के हल की चाबी है. अगर भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत हो जाती है, तो जैसा कि मेरा मानना है कि सभी दरवाज़े खुल जाएंगे. संचार के रास्ते, सहमति के रास्ते, अच्छाई के रास्ते हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ लेंगे. हमारी एक ही समस्या नहीं है. हमारे भारत और पाकिस्तान की सरकारों के साथ कई समस्याएं हैं, जिनका हल निकालना होगा. बुद्धि से निकालना है. आप बुद्धि को अगर छुट्टी दे देंगे, तो फिर कुछ नहीं होगा.
इन दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू नहीं होने का ज़िम्मेदार कौन है, तो मेरा जवाब होगा कि मैं कभी-कभी सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी को पढ़ता हूं. वे कहते हैं कि एक सूफी एक ही लम्हे में महानता की गद्दी पर विराजमान हो सकता है. मुझ जैसा आदमी भूत में खो जाता है और आगे की नहीं सोचता हैै. वह अपना जीवन लगा देता है, लेकिन कहीं नहीं पहुंच पाता है. मेरी सलाह है कि इन सवालों को अपने दिमाग से निकाल दें, जो हुआ सो हुआ, अब आगे की सोची जाए. ये मेरा मशवरा है.
प्रोफेसर अब्दुल ग़नी बट (लेखक हुर्रियत के वरिष्ठ नेता हैं)