मैं पिछले दिनों दिल्ली में था. वहां मेरी एक थिंक टैंक से बात हो रही थी. उस थिंक टैंक के सभी लोग दक्षिणपंथी थे. मैंने उनसे कहा कि एक बार किसी शख्स की कोई चीज खो गई और वह उसे खोज रहा था. तब तक वहां एक व्यक्ति और आ गया और वह उसकी मदद करने लगा. उसने कहा कि तुम्हारी चीज कहां खो गई है, तो उसने कहा कि अंदर कमरे में खो गई. इसके बाद दूसरे व्यक्ति ने कहा, कमाल हो गई तुम्हारी चीज कमरे में खोई है और तुम कमरे के बाहर सड़क पर खोज रहे हो. उसने कहा, क्या करूं? कमरे के अंदर अंधेरा है, तो दूसरे व्यक्ति ने कहा कि इस रोशनी में तुम सारा जीवन खोजते रह जाओगे और खोई हुई चीज कभी नहीं मिलेगी. जहां पर चीज खोई है, वहां खोजनी चाहिए. मेरा मानना है कि कश्मीर का मसला कश्मीर में नहीं, दिल्ली की गर्दिश में खो गया है. आप कश्मीर में जितनी मर्जी हो समाधान खोज लो. इस मसले का हल दिल्ली में है, अगर वो हल करना चाहे.
कश्मीर कोई छोटी कांस्टिटुएंसी नहीं है जो इसकी तरफ आप ध्यान नहीं देते हैं. जब यहां जंग शुरू होती है, पत्थर मारे जाते हैं, बंदूक चलती है, तो दिल्ली में बैठा हर शख्स सोचता है कि ये लोग अप्रासंगिक हो गए हैं, अब इनसे क्या बात करनी है. आप जिन्हें प्रासंगिक (रिलेवेंट) कहते हैं, वो बात कर नहीं सकते, क्योंकि वो इस स्थिति में हैं नहीं. उनमें से कोई शेख मोहम्मद अब्दुल्ला नहीं है, जो अपनी मर्जी से अच्छी या बुरी बात कर सके या अच्छा या बुरा फैसला ले सके. गिलानी अपने स्टैंड से बाहर चले जाएं, ही विल बी नो मोर, यासीन एक सूत इधर से उधर हो जाएं, तो ही विल बी नो मोर. जब आप अपने आदमी के साथ इंसाफ नहीं कर रहे हैं, तो दुश्मन से कैसे करेंगे.
यह ठीक है कि गिलानी पाकिस्तान मांगते हैं, यासीन आजादी मांगते हैं, उमर साहब स्वायत्तता मांगते हैंै. यानी, सब कुछ न कुछ मांगता है. दिल्ली से कुछ भी दिया नहीं जा रहा है. गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मैंने कहा कि आपने 6 घंटे संसद में कश्मीर पर चर्चा की, लेकिन वहां से पीओके निकला या बलूचिस्तान निकला. चर्चा कश्मीर पर हो रही थी कि वहां अशांति और मारधाड़ क्यों? उन्होंने कहा कि अब क्या करें? मैंने कहा, फिलहाल इतना ही कीजिए, प्रधानमंत्री से कहिए कि वे एक स्टेटमेंट दें कि हम धारा 370 का आदर करते हैं और अगले पचास साल तक हम इसके साथ कोई छेड़खानी नहीं करेंगे, तो अंदर की सांस अंदर और बाहर की सांस बाहर हो गई. दूसरा स्टेटमेंट इसी के साथ जोड़ दीजिए कि जम्मू-कश्मीर के पास जो स्वायत्तता है, उससे हम कोई छेड़खानी नहीं करेंगे. होता ये है कि सीबीएम (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स) के नाम पर पैसा देते हैं, सड़क देते हैं, बिजली देते हैं. कश्मीरी कहता है कि उसके लिए हमने वोट डाले हैं. हर कश्मीरी को चुनाव के समय जब पूछा जाता है तो वह साफ कहता है कि वह रोटी, कपड़ा, मकान के लिए इसमें हिस्सा ले रहा है. वो जब ये कहता है हमें जो मार पड़ रही है, एक लाख जो मर गए, उसके बदले में मैं कुछ और मांग रहा हूं. रोटी, कपड़ा, मकान से अलग.
मेरी अपनी सोच है, जरूरी नहीं है कि आप सहमत हों या हुर्रियत वाले मेरे साथ सहमत हों. मैंने कहा कि मैं ज़फर इक़बाल मनहास पाकिस्तानी नहीं हूं, अगर कोई मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दे तो भी मैं पाकिस्तान के साथ नहीं जा सकता. मैं आजादी भी नहीं मांगता हूं. आजादी इसलिए नहीं मांग रहा हूं कि मैं ग्राउंड रिएलिटी को देखता हूं. मैं जम्मू और लद्दाख को साथ जोड़ता हूं. जमीनी हकीकत ये है कि आज के दिन कश्मीर की समस्या भारत सरकार के हाथ से निकल चुकी है और यह मसला भारत के 125 करोड़ हिंदुस्तानियों के डोेमेन में चला गया है.
1970 में सिर्फ शेख अब्दुल्ला को नीचा दिखाने के लिए जमात-ए-इस्लामी के साथ कांग्रेस ने हाथ मिलाया. उनको 6 सीटें और 30 हजार रुपये चुनाव लड़ने के लिए दिए. मुझे पता है कि इधर से मुफ्ती मोहम्मद सईद, अब्दुल गनी लोन और मौलवी अंसारी थे और उधर से गुलाम नबी नौशहरी, सैफुद्दीन और हकीक गुमाल नबी थे. मेरा कहने का मतलब है कि उनको कोई पाला, तो उन्होंने पाला. इस विंग का कोई मुकाबला यहां कर सकता था, तो सेक्यूलर जमात कर सकती थी, वो नेशनल कांफ्रेंस कर सकती थी, शेख अब्दुल्ला कर सकते थे.
फारूक अब्दुल्ला आ गए थे. उसने क्या गुनाह किया था? फारूक अब्दुल्ला ने इतना गुनाह किया कि कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया. 1984 में इंदिरा गांधी और राजीव गंाधी ने आकर चिल्लाया कि फारूक अब्दुल्ला अगर जीत गया, तो जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान बन जाएगा. उसने इतना किया था कि सभी विपक्ष को एकजुट किया. इससे हिंदुस्तान मजबूत हो रहा था. 1984 में एक साल भी उस सरकार को इन्होंने चलने नहीं दिया, उसको रातोंरात बर्खास्त कर दिया. जब इन्होंने इस सरकार को हटाया, तो उस समय फारूक अब्दुल्ला जब सड़क पर निकलता था सब्जी खरीदने के लिए तो लगभग दो हजार लोग जमा हो जाते थे. उसके बाद फारूक अब्दुल्ला ने सती साहनी से कहा कि लिखो मेरी किताब, उस किताब का नाम रखो माई डिसमिसल. उसमें उन्होंने कहा कि तौबा मेरी तौबा. मै भी बेवकूफ था, मेरा बाप भी बेवकूफ था. वह कहता है कि, मुझे लगता था कि यहां लोग अपना नेता चुनते हैं, लेकिन मैं बेवकूफ था. यहां जो चुना जाता है वह दिल्ली से और अब मैं दिल्ली से पंगा कभी नहीं लूंगा. उसके बाद फारूक अब्दुल्ला हार मानकर एक तरफ चल गया, लेकिन इसके बाद कश्मीरी एक बार फिर टूट गया. लोगों के अंदर बौखलाहट आ गई. दिल्ली ने यह सुनिश्चित कर लिया कि फारूक अब्दुल्ला कांग्रेस के साथ गठबंधन कर ले. फिर बंदूकें भी आ गईं. खैर बंदूक के पीछे पाकिस्तान भी था. मेरे कहने का मतलब है कि आप लोगों (दिल्ली) ने कितना विश्वासघात किया.
कहने का मतलब है सारी समस्या इसीलिए है कि भारतीय कांस्टीट्यूशन का असर यहां कम हो गया है या सिकुड़ गया है या इनएक्टिव हो गया है. मैं हमेशा अपने विधायक साथियों से कहा करता था कि मुझे एक खतरा है, तो वो हंसते थे. मैंने कहा, मैं उस दिन से डर रहा हूं, जब 2010 और 1990 से भी बुरे हालात होंगे. लोग बाहर निकल आएंगे, आर्मी इनकी पिटाई करेगी. ये अपनी हार का बदला लेने के लिए अपने से कमजोर टारगेट को ढूंढेगा, उस रोज हम कहां जाएंगे. तब हर आदमी हम पर हंसता था. एक दिन दिल्ली में था. एक सीनियर अफसर मुझसे मिले. उन्होंने पूछा कि क्या स्थिति है? मैंने कहा, स्थिति बहुत खराब है, वह इतनी जोर से हंसे कि चाय उनकी कमीज पर गिर गई. कहा, तुम कश्मीरी हमें डराते हो. अब न कभी 2010 होगा, न 1990 होगा. मैंने कहा कि अभी डायरी निकालो, लिखो इसी 2016 में न हुआ तो मैं राजनीति छोड़ दूंगा और कश्मीर भी.
अगर आप देखें तो पाएंगे कि इस देश में मुस्लिम अल्पसंख्यक, गलत हो या सही, बहुत डरा हुआ है. और वो डर कश्मीर में पिछले एक साल से जमा हो रहा था. मुफ्ती साहब की बेइज्जती हुई. प्रधानमंत्री ने कहा, मुझे किसी की सलाह नहीं चाहिए. बिजली प्रोजक्ट देने थे वो नहीं दिए. बीफ का मसला बीजेपी ने खड़ा किया. कोर्ट में बीजेपी के लोग गए. फ्लैग का पंगा कांग्रेसियों ने नहीं किया 1987 तक. मैं किसी के खिलाफ नहीं बोल रहा हूं. मैं केवल इतिहास बता रहा हूं. यह सब जमा होता गया. फिर बुरहान वानी भी एक बहाना हो गया. मैं बोल रहा था कि पहली बार कोई आतंकवादी(मिलिटेंट) मरता है, तो 60 से 70 हजार लोग जमा हो जाते हैं. कहीं पर कोई कार्रवाई मिलिटेंट के खिलाफ होती है, तो औरतें बच्चे आ जाते हैं तो इसे समझने की जरूरत है कि ये क्या है?
मुझसे एक बार एस दुल्लत ने पूछा था कि क्या हो रहा है चुनाव का. मैंने कहा कि फारूक साहब की पार्टी जीतेगी या मुफ्ती साहब की पार्टी जीतेगी, आप तो हार गए. उन्होंने कहा क्या बचकानी बात कर रहे हो, वो जीते तब भी हम जीते और वो जीते तब भी हम जीतेंगे. इस पर हमने कहा कि यही तो रोना है. उन्होंने कहा, कैसे? दोनों ने दिल्ली के खिलाफ कश्मीरी से वोट मांगा है, किसी ने पाकिस्तान के खिलाफ वोट नहीं मांगा है. किसी ने पाकिस्तानी को गाली नहीं दी, दोनों ने दिल्ली को गाली दी. बस फर्क इतना है कि किसी ने कहा, ये बड़ा एजेंट है और दूसरे ने कहा, यह दिल्ली का बड़ा एजेंट है. जब तक हम एजेंट के रूप से बाहर आकर हिंदुस्तानी नहीं बनेंगे और उसके लिए वो माहौल खड़ा नहीं करेंगे, तब तक बात नहीं बनेगी.
सच यह है कि दिल्ली के साथ यहां एक ही फीसद लोग हैं. आज कश्मीर में दिल्ली के पास इसके सिवाय कुछ भी नहीं है. एमजे अकबर आजकल बड़े चाचा बने हैं भाजपा के. उन्होंने अपनी किताब कश्मीर-बिहाइंड वेल्स में लिखा है कि जब तक शेख अब्दुल्ला की कब्र पर पहरा है, तब तक मसला कश्मीर हल नहीं होगा. मेरा कहने का मतलब है कि अगर आप कश्मीरियत में अमन चाहते हैं, अगर आप चाहते हैं कि यहां पाकिस्तान कमजोर हो तो उसके लिए आपको यहां पर कश्मीरियत को मजबूत करना होगा. लेकिन कश्मीरियत वो जिसे हम कश्मीरियत कहते हैं. वो नहीं जिसे कश्मीरी पंडित कश्मीरियत कहता है या दिल्ली में बैठकर लोग कश्मीरियत की नई परिभाषा बना रहे हैं. कश्मीरियत को यहां बचाना होगा. हमें कश्मीरियों को यहे विश्वास दिलाना होगा कि यहां उसकी पहचान को कोई खतरा नहीं है. चाहे यह सही हो या गलत, लेकिन हर कश्मीरी को लगता है कि उसकी पहचान को खतरा पैदा हो गया है. इतिहास के कार्यों से उसे यही लगता है कि दिल्ली किसी न किसी सूरत में उसके बहुसंख्यक चरित्र कोे बदलने में लगी है. यहां की डेमोग्राफी को बदलना चाहती है. इस चीज को उनके दिमाग से निकालना है. अब यह चीज तेजी से बढ़ी है, जो खतरनाक है.
पहले यह था कि दिल्ली में बैठकर यह सोचा जाता था कि कश्मीरी अलग-थलग पड़ गया है, कैसे उसे दूर किया जाए. मुझे एक समस्या यह नजर आती है कि हिंदुस्तान का नागरिक कश्मीरी से अलग-थलग हो गया है. अगर ऐसा हो जाए और ये सिलसिला आगे बढ़ता है तो फिर क्या होगा. कश्मीरी कहां जाएगा. जिधर जाएगा, मार खाएगा, वापस आएगा. जब वापस आएगा, कहां जाएगा. मार खाएगा, खुदकुशी करेगा, बुरहान वानी बनेगा या बंदूक उठाएगा, जहर खाएगा या मरेगा या मारेगा. अगर इसके लिए हैदराबाद, महाराष्ट्र, कर्नाटक की जमीन तंग हुई तो फिर क्या होगा? इसलिए हमने यह सब बातें आपके सामने रखीं. आप जानें और समझें कि आखिर मसला क्या है और कश्मीरी के दर्द को समझें. अब वक्त आ गया है कि कश्मीरियों को बाहर लाया जाए और खुली फिजा में बोलने दिया जाए. हिंदुस्तान की जनता को कम से कम बताएं कि कश्मीरी हिंदुस्तान की जनता के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन दिल्ली से कश्मीर की जनता को बहुत शिकायत है.
(लेखक पीडीपी एमएलसी हैं और दिल्ली से गए तीन सदस्यीय पत्रकारों के दल से उन्होंने कश्मीर मसले पर अपनी निजी राय साझा की. उनकी राय, उन्हीं के शब्दों में यहां प्रकाशित की जा रही है)