इस बार की हिंसा इतने दिनों तक इसलिए चली, क्योंकि लगातार लोगों की मौत हो रही थी. मौत की वजह से लोग सड़क पर उतरते और सरकार कर्फ्यू लगा देती. विरोध उग्र प्रदर्शन में तब्दील होता रहा और सरकार उसे दबाने के लिए ज़्यादा शक्ति का इस्तेमाल करती रही. जनता और सरकार के बीच नफ़रत और अविश्वसनीयता की गहरी खाई पैदा हो गई. उमर अब्दुल्ला के बयान पर भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह विधानसभा में हंगामा किया, उससे तो यही लगता है कि वह कश्मीर में शांति बहाल होने के खिला़फ है. यह बात समझने की है कि कश्मीर के लोगों और अन्य राज्यों में रहने वाले लोगों में एक बहुत बड़ा फर्क़ है. दूसरे राज्यों में रहने वालों के पास कोई पसंद नहीं थी. कश्मीर भारत में स्वेच्छा से शामिल हुआ. का़फी दिनों तक कश्मीर में प्रधानमंत्री हुआ करते थे. भारत में उसका विलय शर्तों के साथ हुआ था. आज कश्मीरियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति खराब है तो उन्हें लगता है कि भारत से मिलकर कुछ फायदा नहीं हुआ. यह फर्क़ हिंदुस्तान के लोगों को समझना चाहिए. उन्हें यह भी लगता है कि आखिर क्या वजह है कि उनसे सटा हुआ पंजाब हिंदुस्तान का सबसे विकसित राज्य है, लेकिन उसके बाहर आते ही जम्मू-कश्मीर में ग़रीबी नज़र आती है. कश्मीर के लोगों का दर्द क्या है, यह हिंदुस्तान के लोगों को पता ही नहीं चल पाता है.
कश्मीर आज भी भारत के दूसरे इलाक़ों से कटा हुआ है. आप किसी भी रेलवे स्टेशन जाएं, आपको हर प्रदेश का नागरिक मिल जाएगा. केरल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं महाराष्ट्र यानी सब जगह के लोग मिल जाएंगे, लेकिन कश्मीरी नहीं मिलते. अब हमने इस पहेली को किसी तरह समझने की कोशिश की है. ऐसा नहीं है कि कश्मीर में ग़रीबी नहीं है, बेरोज़गारी नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि लोग रोजी-रोटी के लिए बाहर निकलना नहीं चाहते.
कश्मीर आज भी भारत के दूसरे इलाक़ों से कटा हुआ है. आप किसी भी रेलवे स्टेशन जाएं, आपको हर प्रदेश का नागरिक मिल जाएगा. केरल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं महाराष्ट्र यानी सब जगह के लोग मिल जाएंगे, लेकिन कश्मीरी नहीं मिलते. अब हमने इस पहेली को किसी तरह समझने की कोशिश की है. ऐसा नहीं है कि कश्मीर में ग़रीबी नहीं है, बेरोज़गारी नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि लोग रोज़ी-रोटी के लिए बाहर निकलना नहीं चाहते. दरअसल हम लोगों ने कश्मीरियों के साथ ऐसा व्यवहार किया है कि वे अपनी रोज़ी-रोटी के लिए वहां से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते.
हम आपको 1991 में माले में हुए सार्क सम्मेलन की एक घटना बताते हैं. मंच पर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरी़फ बैठे थे. भारत के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उन्हें देखते ही कहा कि आजकल आप भारत के खिला़फ बहुत बयान दे रहे हैं, हर जगह कश्मीर मामले को उठा देते हैं. नवाज शरीफ ने जवाब दिया कि हमें कश्मीर दे दीजिए तो हम भारत के खिला़फ बोलना बंद कर देंगे. चंद्रशेखर जी उन्हें अपने कमरे में लेकर आए और दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई. चंद्रशेखर जी ने कहा कि मैं पाकिस्तान को कश्मीर देने के लिए तैयार हूं, लेकिन शर्त यही है कि आपको फिर देश के सारे मुसलमानों को लेकर पाकिस्तान जाना होगा. नवाज शरीफ भी दंग रह गए. चंद्रशेखर जी ने कहा कि जिस तर्क पर आप कश्मीर लेने की बात करते हैं, वही तर्क भारत के हर शहर और गांव में लगा दिया जाए तो हमारे देश में किसी भी जगह मुसलमान नहीं रह पाएंगे. उन्हें वहां से भगा दिया जाएगा. नवाज़ शरी़फ चुप हो गए. इस घटना के बाद नवाज़ शरी़फ कश्मीर के मामले में बयानबाजी से परहेज़ करने लगे.
कश्मीर हिंदुस्तान के लिए किसी ज़मीन का एक टुकड़ा भर नहीं है. यह भारत के संविधान, भारतीय संस्कृति, भारतीय सहिष्णुता की परीक्षा ले रहा है. जहां तक हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता की बात है, अगर हम कश्मीर में धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सकते तो बिहार के किसी शहर में धर्मनिरपेक्ष कैसे रह सकते हैं. कश्मीर का सवाल हिंदुस्तान के पंद्रह करोड़ मुसलमानों का सवाल है. कश्मीर का सवाल भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे का सवाल है, सामाजिक संरचना की बुनियाद का सवाल है. ठीक उसी तरह, जैसे पंजाब और हरियाणा का विकास हो और बिहार एवं उड़ीसा का न हो. अगर ऐसा होगा तो नक्सलवाद जैसा आंदोलन होना तय है.
कश्मीर की स्थिति अब ऐसी हो गई है कि हिंसा, बंद और हड़ताल से लोग परेशान हैं और वे हुर्रियत की अपील को नज़रअंदाज़ करने लगे हैं. सब यही चाहते हैं कि जैसी स्थिति है, बस वही बनी रहे और हिंसा का दौर खत्म हो. हुर्रियत के तेवर भी अब नरम हो गए हैं, सड़कों पर वाहन आने-जाने लगे हैं, सख्ती का माहौल खत्म हो गया है और रिहायशी इलाक़ों से पुलिस चौकियां हटाई जा रही हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि उमर अब्दुल्ला के प्रति आम कश्मीरी का विश्वास बढ़ा है. ऐसे में भारत सरकार और जम्मू कश्मीर सरकार के सामने एक सुनहरा मौक़ा है, जबकि कश्मीरी अवाम का दिल जीता जा सकता है. लोगों को तुरंत किसी समाधान की अपेक्षा तो नहीं है, लेकिन सब यही चाहते हैं कि सरकार समाधान निकालने के लिए कोई पहल ज़रूर करे. इससे दो फायदे होंगे, एक तो लोगों की नाराज़गी खत्म हो जाएगी और दूसरा यह कि सरकार को व़क्त भी मिल जाएगा. सरकार को कुछ बिंदुओं पर तुरंत अमल करना चाहिए. सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि किसी भी क़ीमत पर हिंसा न हो. करीब साठ युवकों को पिछले दिनों पत्थर चलाने के ज़ुर्म में जेल भेजा गया, उन्हें रिहा किया जाना चाहिए, ताकि आम जनता का रोष खत्म हो. और जिन लोगों की मौत हुई है, उनके परिवारीजनों को घोषित किया गया पांच-पांच लाख रुपये का मुआवज़ा तुरंत देने की व्यवस्था हो. इसके अलावा सरकार ने जो पब्लिक सेफ्टी एक्ट में बदलाव करने का वादा किया है, उस पर ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है. ये विषय ऐसे हैं, जिन पर कश्मीर के लोगों की निगाह टिकी है. इन सारी चीजों पर सरकार कब अमल करती है, लोग इसका इंतज़ार कर रहे हैं. सरकार जितनी जल्दी इन मामलों को निपटाएगी, लोगों का गुस्सा उतनी ही जल्दी खत्म हो जाएगा. सरकार की तऱफ से अक्टूबर महीने में परीक्षाएं देने की छूट दी गई है. ऐसा ही कुछ नवंबर और दिसंबर में भी करना होगा, ताकि जनता को लगे कि सरकार ज़रूरी कामकाज के साथ-साथ समस्या का हल निकालने के प्रति भी सजग है. सरकार का यह पहला काम होना चाहिए कि वह अपने आचरण से कश्मीर की जनता में नेतृत्व और अपनी साख मज़बूत करे. इसके बाद हुर्रियत की मांगों पर ध्यान देने की ज़रूरत पड़ेगी. हुर्रियत ने अपना जो पांच सूत्रीय कार्यक्रम दिया था, उसमें आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट, आटोनॉमी, मानवाधिकार, नौजवानों की रिहाई और सार्वजनिक सुरक्षा आदि शामिल हैं. सरकार अगर कश्मीर में अमन-चैन स्थापित करने की कोशिश करना चाहती है तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह पहले कश्मीर के लोगों का दिल जीते.