श्रीनगर की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के बाहर एक कश्मीरी पुलिस अधिकारी की पीट-पीट कर हत्या करने की वीभत्स घटना ने यहां के बुद्धिजीवियों को हिलाकर रख दिया है. लोगों ने इस घटना को कश्मीरियत और इंसानियत की हत्या क़रार दिया है. ये तीन दशक से जारी हिंसक दौर में अपने तरह की पहली घटना है.
नरसंहार, अगवा, टॉर्चर और इंसानों को लापता करने जैसी घटनाएं यहां अक्सर होती रहती हैं, लेकिन यहां हिंसक भीड़ ने अब तक किसी बर्बर घटना को अंजाम नहीं दिया है. इस घटना की जांच से संबंधित पुलिस अधिकारियों और मीडिया प्रोपेगेंडा को अगर अलग रखें तो चश्मदीद गवाहों और अन्य सूत्रों से अब तक जो जानकारियां मिली हैं, वे कुछ इस तरह हैं.
22 और 23 जून की मध्य रात को, जब शबे कद्र थी, जामा मस्जिद में लाखों लोग इबादत कर रहे थे. ये रात मुसलमानों की नजर में सबसे पवित्र होती है, जिसमें रात भर जागकर लोग इबादत करते हैं. इस दौरान न सिर्फ श्रीनगर, बल्कि घाटी के सुदूर क्षेत्रों से भी लोग इबादत करने जामा मस्जिद पहुंचे थे. जामा मस्जिद के बाहर नौजवानों और बच्चों की भीड़ जमा थी. रात का समय होने के बावजूद कुछ दुकानें खुली थीं. हर तरफ तेज बल्बों की रौशनी बिखरी थी.
रात के सवा बारह बज रहे थे. लोग बड़ी मस्जिद के अंदर आ-जा रहे थे. मस्जिद के बाहर भी एक सुखद वातावरण था. एक जगह पर कुछ लड़के, जिनमें से कुछ ने अपने चेहरे ढक रखे थे, भारत के खिलाफ और आजादी के हक में नारे लगा रहे थे. वो ज़ाकिर मूसा के हक में भी नारे लगा रहे थे, जो वैचारिक मतभेद की बुनियाद पर हाल में हिज्बुल मुजाहिदीन से अलग हो गया था.
तभी सादा कपड़े में एक सांवला सा अजनबी आदमी अपने आईफोन से नारे लगाने वाले युवाओं की फोटो खींचने लगा. कुछ लड़कों ने उसे रोककर फोटो खींचने का कारण पूछा और उसकी पहचान लेनी चाही. जब युवाओं को पता चला कि वो सादा कपड़ों में एक पुलिस अधिकारी है, तब उन्होंने उसके साथ मारपीट शुरू कर दी. हमलावर और तमाशा देखने वाले उस पर तरह-तरह के आरोप लगा रहे थे. कुछ लोग कह रहे थे कि मुखबिर पकड़ा गया.
वहीं कुछ कह रहे थे कि आईबी अधिकारी है. कुछ कह रहे थे कि ये पुलिस का मुखबिर है यानी जितनी मुंह, उतनी बातें. खुद को खतरे में देखकर उसने अपनी जेब से पिस्तौल निकालकर हमलावरों पर फायरिंग शुरू कर दी. इस अप्रत्याशित हमले में तीन लड़के जख्मी हो गए. यह देखकर भीड़ पुलिस अधिकारी पर टूट पड़ी. उसे नंगा किया गया और उसके बाद उसके साथ इस कदर मारपीट की गई कि उसने मौके पर ही दम तोड़ दिया.
उसके बचाव के लिए कोई सामने नहीं आया. इसके बाद शव को घसीट कर सड़क के एक कोने में फेंक दिया गया. कुछ देर बाद पुलिस घटनास्थल पर पहुंची. पुलिस मरने वाले की फौरी तौर पर पहचान नहीं कर सकी. दूसरे दिन सुबह जम्मू-कश्मीर पुलिस के प्रमुख एसपी वैद्य ने श्रीनगर में एक आपात कॉन्फ्रेंस में बताया कि वो डीएसपी रैंक का अधिकारी था और जामा मस्जिद के बाहर ड्यूटी पर तैनात था. उसका नाम मुहम्मद अय्यूब पंडित था. वो जामा मस्जिद से दो किलोमीटर की दूरी पर नावपुरा में रहता था.
यहां पर कई सवाल उठ रहे हैं. लाखों की भीड़ में एक अकेला पुलिस ऑफिसर क्या कर रहा था यानी इतने संवेदनशील क्षेत्र में वह अकेला सिक्योरिटी ड्यूटी पर क्यों था? सिक्योरिटी प्रोटोकॉल के लिहाज से भी इस रैंक के पुलिस अधिकारी के साथ छह-सात जवानों का होना जरूरी था. हमले के दौरान उसके अन्य साथी कहां थे? वो अपने फोन से नारे लगाने वालों के फोटो क्यों खींच रहा था? क्या ऐसा करना उसकी ड्यूटी का हिस्सा था?
जब उस पर हमला हो रहा था तब महज कुछ सौ गज की दूरी पर स्थित पुलिस थाने से सिपाही घटनास्थल पर क्यों नहीं पहुंचे? शव की शिनाख्त होने में इतना वक्त क्यों लगा? पुलिस को क्यों नहीं पता चला कि ये ड्यूटी पर मौजूद डीएसपी थे? सबसे अहम सवाल यह है कि क्या वाकई सरकार और पुलिस महकमा ने शबे कद्र को लाखों लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी महज एक डीएसपी पर डाल दी थी, जो अपनी सिक्योरिटी के बगैर सादा कपड़ों में ड्यूटी पर आया था.
इन सारे सवालों का अब तक कोई संतोषजनक जवाब पुलिस की तरफ से नहीं आया है. लेकिन जिस अंदाज में उग्र भीड़ ने उस पुलिस अफसर की हत्या की, उसने कश्मीरी समाज को हिलाकर रख दिया है. सोशल मीडिया पर वे लोग, जो आम तौर पर सेना की ज्यादती के खिलाफ लिखते रहते हैं, उन्होंने भी इस हत्या को इंसानियत की हत्या करार दिया. विभिन्न सियासी, सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने इस हत्या की निंदा की और इसे अस्वीकार्य बताया.
पुलिस ने फौरन बेरहमी से की गई इस हत्या की जांच शुरू कर दी और आनन-फानन में सैकड़ों हमलावरों में से बारह की पहचान कर ली. इनमें से अबतक पांच को गिरफ्तार किया जा चुका है. गिरफ्तार लोगों में एक घायल बीस वर्षीय युवा दानिश मीर भी शामिल है, जो डीएसपी अय्यूब पंडित की फायरिंग से घायल हुआ था. दानिश के घरवालों के अनुसार, पुलिस उसे अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर से बाहर गिरफ्तार करके ले गई. घरवालों को उसकी कोई जानकारी नहीं दी जा रही है, जबकि उसकी जांघ में गोली लगी है.
इस घटना ने कश्मीर पुलिस को और भी असुरक्षित बना दिया है. शायद इसीलिए पुलिस प्रमुख ने इससे एक दिन पहले जारी किए गए सर्कुलर में पुलिस जवानों को ईद की नमाज आम मस्जिदों की बजाय पुलिस लाइन में अदा करने और सावधानी से काम लेने की हिदायत दी थी. कश्मीर पुलिस वैसे भी मिलिटेंट्स का लक्ष्य है. डीएसपी की हत्या से दो हफ्ते पहले दक्षिणी कश्मीर के इच्छाबल क्षेत्र में मिलिटेंट्स ने एक हमले में छह पुलिस जवानों को गोलियों से भून डाला था. इसमें उनका अधिकारी भी शामिल था. मिलिटेंट्स नेे पुलिस जवानों को मारने के बाद गोलियों से चेहरों को विकृत कर दिया था.
जब पुलिस और सिक्योरिटी फोर्सेज लाश उठाने घटनास्थल पर पहुंचे, तब आम नौजवानों ने उन पर पथराव शुरू कर दिए. अप्रैल माह में दक्षिणी जिला शोपियां में छुट्टी पर घर आए फौजी अफसर लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की मिलिटेंट्स ने अगवा कर हत्या कर दी. उसके कुछ दिनों बाद यानी 28 मई को मिलिटेंट्स ने दक्षिणी कश्मीर के कोलगाम में 4 पुलिस जवानों और बैंक के दो सिक्योरिटी गार्डों की गोली मारकर हत्या कर दी. पुलिस पर लगातार हो रहे हमलों ने उन्हें असुरक्षित बना दिया है. पुलिस अधिकारी पहले ही जवानों को ये हिदायत दे चुके हैं कि छुट्टी पर घर जाते समय सावधानी बरतें.
कुछ टिप्पणीकार यह आशंका जता रहे हैं कि पुलिस जवानों पर लगातार हो रहे हमलों के कारण कहीं समाज दो हिस्सों में न बंट जाए. आम पुलिस का जवान भी कश्मीरी समाज का ही हिस्सा है. डीएसपी मुहम्मद अय्यूब पंडित की नमाजे जनाजा में लोगों ने बड़ी तादाद में शिरकत की. उनकी हत्या पर कश्मीर समाज के एक बड़े तबके ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वो एक बड़ा संदेश है. लेकिन यहां ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने डीएसपी की पीट-पीटकर हत्या किए जाने को सही कदम बताया है.
फेसबुक और सोशल मीडिया पर जहां इस हत्या की निंदा करने वालों की कोई कमी नहीं दिखाई दी, वहीं कुछ नौजवानों ने इस हत्या के समर्थन में भी लिखे. सच तो यह है कि डीएसपी की जिस तरीके से हत्या की गई, उससे दो बातें स्पष्ट हो गई हैं कि कश्मीर में हिंसा की लहर भयानक रूप अख्तियार कर रही है. नौजवानों में एक तरफ मौत का डर खत्म हो रहा है और दूसरी तरफ वो हिंसा की हर हद को लांघते नजर आ रहे हैं. ये वो स्थिति है जो पिछली तीन दशक के दौरान कभी भी देखने को नहीं मिली.