पूरा एक वर्ष बीत गया और हमारे प्यारे प्रधानमंत्री कश्मीर के सवाल पर बिल्कुल खामोश रहे. उन्होंने न कोई मीटिंग बुलाई, न कोई वक्तव्य दिया और न ही अपने दिमाग का इशारा दिया. पिछले अक्टूबर के बाद कश्मीर की सरकार भी बिल्कुल निश्ंिचत हो गई और उसने भी कोई कदम नहीं उठाया. जब हम कश्मीर की सरकार कहते हैं, तो उसमें भारतीय जनता पार्टी और पीडीपी दोनों के मंत्रियों की बात कहते हैं, लेकिन महबूबा मुफ्ती खुद खामोश रहीं. उन्होंने कोई कोशिश नहीं की. उन्होंने ज्यादातर समय जम्मू में बैठकर अपनी सरकार चलाई और भविष्य की योजनाएं बनाई.
जम्मू-कश्मीर के राजनेता कुछ चुनाव की तैयारियों में व्यस्त रहे. केंद्र सरकार से सामूहिक तौर पर बात करने के लिए उन्होंने कोई मीटिंग नहीं की और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं के हाथ में तो कुछ था भी नहीं. उनकी बात न मुख्यमंत्री सुन रही थीं और न प्रधानमंत्री. खुद गिलानी साहब की तबीयत खराब रही और वो मोर्चा बिल्कुल खामोश रहा.
जम्मू-कश्मीर में बाहर से जो भी लोग गए, जिनमें कमल मोरारका की टीम, यशवंत सिन्हा की टीम, सीमा मुस्तफा के साथी तथा वो सारे पत्रकार जो जम्मू-कश्मीर से अपने को जुड़ा मानते हैं, उन सबने ये कोशिश की कि नवंबर 2016 से मार्च 2017 के बीच का समय, कश्मीर के लोगों से बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने में लगाई जाए. बातचीत की प्रक्रिया किसी तरह शुरु हो. लेकिन उनकी आवाज न सरकार ने सुनी और न देश के मीडिया ने. देश के मीडिया से हमारा मतलब देश के टेलीविजन चैनलों से है, जो इस समय भारत सरकार के प्रधानमंत्री कार्यालय और रक्षा मंत्रालय का रोल निभाने की कोशिश कर रहे हैं. वो देश के मसलों पर बिना उसका परिणाम जाने फैसला कर लेते हैं और उसके बाद अचानक युद्ध छेड़ देते हैं. नवंबर से लेकर मार्च तक वो भी बिल्कुल खामोश रहे. अब फिर उनके गरजने और बरसने का मौसम आ गया है.
इस बीते समय को अनदेखा करना शायद भारतीय राज्य के लिए बहुत मुश्किलें पैदा करने वाला है. कश्मीर के लोगों को फिर यह संदेश गया कि हम न उनकी समस्याएं जानना चाहते हैं, न उनसे बात करना चाहते हैं और न उन्हें किसी तरह की न्यूनतम आजादी देना चाहते हैं, जो मुंबई, कोलकाता, पटना, चेन्नई या दिल्ली में उपलब्ध है. हमने उन्हें यही संदेश दिया कि हम प्रशासनिक तौर पर कश्मीर का सख्ती से सामना करेंगे.
सरकार किसी भी लोकतांत्रिक तरीके को नहीं अपनाना चाहती. इस बीच उत्तर प्रदेश के चुनाव हो गए और चुनाव से पहले भारत को नया सेनाध्यक्ष मिल गया. सेनाध्यक्ष बनते ही जनरल रावत ने कश्मीर को लेकर बयान दिया कि पत्थर का जवाब गोली से दिया जाएगा. भारत में एक नई प्रवृत्ति पैदा हुई है कि संस्थाओं के प्रमुख, चाहे वो सेना हो या दूसरी संस्थाएं, राजनीतिक बयान देते हैं और ये बिना सोचे-समझे देते हैं कि उन बयानों का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पड़ने वाला है.
जब नोटबंदी हुई थी, तब बहुत जोर-शोर से यह दावा किया गया था कि इसकी वजह से अब जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजी की घटनाएं रुक जाएंगी, आतंकवाद रुक जाएगा, क्योंकि उनके पास पुराने नोट हैं. नए नोटों का वितरण इस तरह से होगा कि ये पैसे आतंकवादियों और पत्थर फेंकने वालों के हाथों में नहीं पहुंच पाएंगे. सरकार का ये निश्चित मानना था और उसने देश को यही बताया कि दस-पंद्रह हजार रुपए महीने की तनख्वाह पर पत्थर फेंकने वाले हाथ पत्थर उठाते हैं.
देश के एक तेज टेलीविजन चैनल ने एक स्टिंग ऑपरेशन भी किया, जिसमें एक लड़का कह रहा था कि हां, मैं पंद्रह हजार रुपए लेकर पत्थर मारता हूं. ये अलग बात है कि वो लड़का चारों तरफ कश्मीर में खुला घूम रहा है और कह रहा है कि मैंने उसमें ये बात नहीं कही. लेकिन जैसा होता है, अब पत्रकारिता भोंपू का काम करती है. जनता की आवाज या छुपी हुई घटनाओं को सामने लाने का काम कम करती है.
अब अचानक कश्मीर में फिर से पत्थरबाजी शुरू हो गई है और जिन हाथों ने पत्थर उठाए हैं, वो हाथ स्कूली छात्रों के हैं. जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनमें कंधे पर स्कूल बैग लादे हुए बच्चे पत्थर चला रहे हैं. जो सबसे हैरतअंगेज लाइव फुटेज सामने आई है, उनमें लड़कियां पत्थर चला रही हैं. बच्चों के हाथों में फिर से पत्थरों का पहुंच जाना, क्या इतने बच्चों को पंद्रह हजार रुपए महीने की नौकरी का मिल जाना है.
बच्चों के हाथों में पत्थरों का पहुंच जाना, क्या पाकिस्तान का कश्मीर में प्रभाव का बढ़ना है. बच्चों के हाथों में फिर पत्थरों का पहुंच जाना, क्या भारतीय गणराज्य से खुली बगावत का पहला चरण है या ये एक नया संदेश है कि प्रधानमंत्री जी अब अपना कुछ वक्त गुजरात के चुनावों में जाने से पहले देश की समस्याओं के लिए निकालें और कश्मीर में बातचीत का सिलसिला शुरू कराएं. मैं शुरू से ही लिखता रहा हूं कि कश्मीर में अगर कोई शुरुआत कर सकता है तो वो सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर सकते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे जब वो पहली बार कश्मीर गए थे तो उन्होंने जम्हूरियत, कश्मीरियत, इंसानियत की बात कही थी और ये वो भाषा थी, जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने कश्मीर को सुनाई थी, जिससे कश्मीर ने उनके ऊपर भरोसा किया.
इतने महीनों के अंतराल के बाद जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती दिल्ली आईं, प्रधानमंत्री से मिलीं. उन्होंने फिर वही भाषा दोहराई कि हमें वहीं से प्रारम्भ करना होगा, जहां से अटल बिहारी वाजपेयी ने छोड़ा था, लेकिन क्या महबूबा मुफ्ती को ये नहीं सोचना चाहिए कि मुफ्ती साहब ने जहां से छोड़ा था, वहां से उन्हें भी शुरुआत करनी चाहिए. मुफ्ती साहब जैसी कुशलता का इस्तेमाल न करना भी कश्मीर में लोगों के दुख-दर्द को बढ़ाने का एक प्रमुख कारण रहा है. दिल्ली में बहुत सारे ऐसे लोग है, जिनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर में ज्यादती हो रही है और वो ज्यादती कश्मीर के लोगों को भारत से निराश कर रही है, उन्हें फिर से आजाद मुल्क की मानसिकता की तरफ मोड़ रही है.
इस सोच का कोई मुकाबला भारत की सरकार नहीं करना चाहती. कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारत सरकार सारी चीजों को इतना बिगड़ने देना चाहती हो कि वो सचमुच सुरक्षाबलों की बनाई हुई नीति को अपनाना अवश्यंभावी मान रही हो, जिसमें लोगों का मुकाबला, लोगों के असंतोष का मुकाबला और बच्चे, चाहे वो लड़के हों या लड़कियां, उनके हाथों से निकले पत्थर का मुकाबला गोली से करना चाहती हो. मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा, पर घटनाएं बताती हैं कि स्थिति उसी तरफ जा रही है.
भारत के राजनीतिक दल कश्मीर के सवाल पर असहाय खड़े हैं.
उन्हें लगता है कि अगर वो कश्मीर के सवाल पर कुछ भी बोलेंगे, तो उन्हें देशद्रोही मान लिया जाएगा. इन दिनों देश में एक नया माहौल बनाया गया है कि अगर आप गाय, भारत माता और कश्मीर को लेकर कुछ भी कहते हैं, तो या तो आप देशद्रोही हैं या देशप्रेमी हैं. अगर आप कश्मीर में लोगों के साथ सख्ती बरतने, लाठीचार्ज करने, आंसू गैस छोड़ने या गोली चलाने को सही ठहराते हैं तो आप देशप्रेमी हैं, अन्यथा आप देशद्रोही हैं. शायद इस माहौल में भारत के राजनीतिक दल या भारत के नेता कुछ भी कहने से बच रहे हैं. ऐसे माहौल में ये पता चलता है कि देश में जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर राममनोहर लोहिया, अटलबिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर के न होने का क्या मतलब है. इसके मायने लोकतंत्र की बुनियाद तक पहुंचते हैं.
मैं जानता हूं कि आदरणीय प्रधानमंत्री के कानों तक मेरी आवाज नहीं पहुंचेगी. पर मैं फिर भी प्रधानमंत्री जी से साग्रह निवेदन कर रहा हूं कि वो तत्काल कश्मीर के लोगों की आवाज सुनने के लिए कोई प्रक्रिया शुरू करें. जिस तरह से वो चुनाव अभियान अपने हाथ में लेते हैं और विजय पर विजय प्राप्त कर रहे हैं, उसी तरह वो कश्मीर के सवाल को भी अपने हाथ में लें और कश्मीर के लोगों के दिलों को जीतने का एक अभियान शुरू करें. आशा है कि प्रधानमंत्री एक साधारण पत्रकार की इस विनती पर गौर करेंगे.