कश्मीर में हरेक घटना राजनैतिक रंग धारण कर लेती है, भले ही उसका राजनीति से सम्बन्ध हो या न हो. ऐसा क्यों है, यह जानना मुश्किल नहीं है. वर्षों से यह क्षेत्र राजनीतिक संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है. कोई साधारण घटना कैसे राजनीतिक रंग अख्तियार करती है, इसकी ताज़ा मिसाल महिलाओं की चोटी काटने की घटना के बाद देखने को मिली. चोटी काटने की वारदातों ने कम उम्र महिलाओं के दिमाग पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला है. लड़कियां भयभीत हैं और कांस्पिरेसी थ्योरी ने कश्मीर में अटकलों का बाज़ार गर्म कर रखा है.
चोटी काटने की वारदातों की शुरुआत 6 सितंबर को दक्षिण कश्मीर के कुलगाम जिले से हुई और देखते-देखते जंगल के आग की तरह घाटी के दूसरे हिस्सों तक फैल गई. पुलिस हरकत में आई और घटना को अंजाम देने वालों को पकड़ने के लिए ईनाम की घोषणा की. पुलिस कश्मीर में यह प्रक्रिया 1990 से करती आ रही है. यहां खुद अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए अलग से ईनाम की व्यवस्था है. 90 के दशक में मिलिटेंट्स को मारने के लिए पहले 3 लाख रुपये और बाद में 6 लाख रुपये प्रोत्साहन राशि तय की गई. ज़ाहिर है इस तरह के प्रोत्साहन ने इसे कारोबार का रूप दे दिया और पुलिस रोजाना अपने आंकड़ों में इजाफा करने लगी.
लिहाज़ा यहां डर वास्तविक है. इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव समाज में देखा जा रहा है. चोटी काटने के आरोप में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी वास्तविक अपराधी को पकड़ा नहीं जा सका था. लेकिन जिस तरह मामले से निपटा गया, उसने महिलाओं की गरिमा को चोट ज़रूर पहुंचाया.
हालांकि अभी तक न तो पुलिस को और न ही दो दिन के हड़ताल आह्वान करने वालों को यह पता है कि इन घटनाओं के पीछे कौन है? मेरे जैसे पत्रकार, जिसने पिछले 27 वर्षों से कश्मीर को कवर किया है, के लिए भी यह समझाना मुश्किल नहीं है कि हम कैसे इस हालत में पहुंच गए और कैसे महिलाएं मोहरा बन गईं. इन वारदातों को लेकर तरह तरह की थ्योरियां गढ़ी जा रही हैं. कुछ लोग कहते हैं कि यह मतिभ्रम है, कोई हिस्टीरिया को कारण बताता है और कई ऐसे हैं जो भारतीय एजेंसियों के सिर इसका ठीकरा फोड़ रहे हैं. मनोचिकित्सकों के साथ अपने साक्षात्कार में पीड़ित महिलाओं ने जिस तरह की कहानियां सुनाईं, उनसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. एक महिला ने कहा कि उसने देखा कि उसकी चोटी काटने के बाद अपराधी दीवार कूद कर फरार हो गया. एक अन्य मामले में एक अभिभावक ने कहा कि वे दूसरे कमरे में थे, जब चोटीकटवा आया और अपना काम कर चला गया. इन वारदातों के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इसका मजाक भी उड़ा रहे हैं. ऐसे लोग बॉलीवुड फिल्म मिस्टर इंडिया का हवाला देते हुए चोटीकटवा को मिस्टर इंडिया करार दे रहे हैं. ख्याल रहे कि उस फिल्म में अनिल कपूर ने एक अदृश्य नायक की भूमिका निभाई थी.
बहरहाल इन वारदातों का कोई न कोई कारण तो ज़रूर होगा. पुलिस बैक फुट पर है. उसका कहना है कि कुल 100 मामलों में से केवल 10 वास्तविक थे और बाकी अफवाहें थीं. हालांकि चोटी काटने की वारदातों में कमी आई है, बाद के घटनाक्रमों ने इसे और जटिल बना दिया है. कश्मीर जोन के इंस्पेक्टर जनरल ऑ़फ पुलिस मुनीर खान ने एक साक्षात्कार में कहा, हर पीड़ित के अपने-अपने संस्मरण हैं. कोई कहता है कि हमलावर के जूतों में स्प्रिंग लगे हुए थे, कोई कहता है कि उसने काले जैकेट पहन रखे थे. उन्होंने यह भी कहा कि एक संभावना यह भी हो सकती है कि कुछ महिलाओं ने खुद ही अपने बाल काट लिए हों.
इससे पहले, जब सरकार ने इन वारदातों को हिस्टीरिया कह कर ख़ारिज करने की कोशिश की, तो लोगों की तरफ से सख्त प्रतिक्रिया हुई. नार्को एनालिसिस के सुझाव की भी सख्त आलोचना हुई. सैयद अली गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक का संयुक्त हुर्रियत नेतृत्व भी चोटी काटने की घटना के खिलाफ खड़ा दिखा और दो मौकों पर हड़ताल का आह्वान भी किया. जिस समस्या को स्थानीय स्तर पर सुलझाया जा सकता था, हड़ताल के आह्वान ने उसके दायरे को और विस्तृत कर दिया. अब इन वारदातों ने राजनैतिक रूप ले लिया, जिसकी वजह से आम लोगों में खौफ फैल गया. इसकी वजह से राज्य बनाम शेष के ध्रुवीकरण का वातावरण भी बना. जाहिर है कश्मीर में राज्य और उसके संस्थानों की विश्वसनीयता कम है. यहां ज्यादातर लोगों ने चोटी काटने की वारदातों को सरकारी एजेंसियों की साजिश करार दिया.
उन्हें लगा यह काम लोगों में भय फैलाने के लिए किया जा रहा है. चोटी काटने की वारदातों ने एनआईए की जांच के कारण दबाव में चल रहे हुर्रियत नेताओं को दिल्ली पर हमला बोलने का मौका दे दिया. लेकिन हुर्रियत को तीखी प्रतिक्रिया देने से पहले अपनी रणनीति के बारे में गंभीर आत्मनिरीक्षण करने की ज़रूरत है.
राजस्थान, पंजाब और हरियाणा होते हुए चोटीकटवा की कहानी जम्मू पहुंची, जहां चोटी काटने के 200 से अधिक मामलों की सूचना मिली थी. इसकी शुरुआत राजस्थान के नागौर जिले से इस वर्ष जून महीने में हुई थी. लेकिन कश्मीर में ऐसे मामलों ने लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ कर दिया. दक्षिण कश्मीर में एक वृद्ध व्यक्ति को उसके भतीजे ने चोटीकटवा होने के शक में मार डाला. एक मानसिक रोगी को भीड़ ने लगभग जला ही दिया था, एक दूसरे संदिग्ध को डल झील में डूबाने की तैयारी थी. भारत के दूूसरे हिस्सों से कश्मीर में काम के लिए आने वाले मज़दूरों में से भी कुछ को निशाना बनाया गया. नतीजा यह हुआ कि उनमें से सैकड़ों वापस अपने घर चले गए. निर्दोष लोगों का इस तरह निशाना बनाया जाना कश्मीरी समाज को हैरान कर रहा था.
राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक अब तक जम्मू और कश्मीर में 602 मामले दर्ज किए गए हैं. उनमें से 430 मामले चोटी काटने के हैं, 76 चोटी काटने के प्रयास के हैं और 76 चोटी काटने से जुड़ी अफवाहों के हैं. कश्मीर में चोटी काटने के 230 कथित मामले दर्ज किये गए थे. प्रतिक्रियास्वरूप 66 लोगों को चोटीकटवा समझ कर पीटा गया था. शक की बुनियाद पर 6 सुरक्षा कर्मियों को भी निशाना बनाया गया था. इन वारदातों के विश्लेेषण से पता चलता है कि पीड़ितों में से 40 प्रतिशत की आयु 18 साल से कम थी, 70 प्रतिशत अविवाहित थे और 30 प्रतिशत अशिक्षित थे. 31 पृष्ठों के विश्लेेषण में कहा गया है 18 पीड़ित महिलाएं अवसादग्रस्त थीं और 17 के मामलों में चोटी काटने की घटना दोबारा घटित हुई थी. रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि उत्तर भारत में चोटी काटने की 600 से अधिक मामलों की रिपोर्टिंग हुई, लेकिन उनमें से किसी की जांच भी ठोस सबूत के अभाव में अंजाम तक नहीं पहुंच सकी है.
कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि इन घटनाओं से किसी को क्या फायदा पहुंचा. हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि कश्मीर में राज्य और जनता के बीच अविश्वास की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि वे कोई भी अकल्पनीय बात मानने के लिए तैयार हैं. दूसरे राज्यों में ऐसा क्यों नहीं है? वहां चोटी काटने की घटना आम लोगों और पुलिस के बीच सड़कों पर टकराव का कारण क्यों नहीं बनीं? उन राज्यों या यहां तक कि जम्मू में भी कर्फ्यू क्यों नहीं लगाना पड़ा? जम्मू तो जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा है.
राज्य और उसके संस्थानों के प्रति अविश्वास की भावना ने मामले को तूल दिया. इसका मतलब यह है कि जब तक बुनियादी राजनीतिक समस्या को नहीं समझा जाएगा, तब तक हिंसा या अपराध की हरेक घटना को राज्य के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा. जिस तरह 1990 के बाद अज्ञात बंदूकधारियों ने हजारों लोगों को अलग-अलग वारदातों में मारा. उसी तरह यह रहस्य भी विस्मृत हो जाएगा. इसकी कीमत कश्मीर की महिलाएं चुकाएंगी. मनोचिकित्सक, समाजशास्त्री, नागरिक समाज के सदस्यों और प्रशासन द्वारा जांच से इस संकट से निपटने में मदद मिल सकती थी. लेकिन अफसोस! सरकार मसले को पहेली मान कर अपना पल्ला झाड़ रही है और समाज अपनी जिम्मेदारियों से दूर भाग रहा है.