कश्मीर की सरकार कश्मीर के लिए कश्मीरियों द्वारा चुनी गई हो
वैसे अभी शांति का लाभ लेने का समय है. यह वक्त है जब सरकार को चाहिए कि लोगों को धीरे-धीरे सभा, राजनीतिक बैठकें आदि करने की इजाज़त देना शुरू करे. मैं मुंबई में राजनीतिक बैठक का आयोजन कर सकता हूं और कह सकता हूं कि महाराष्ट्र केवल महाराष्ट्रीयन के लिए हैं, अन्य को यहां से चले जाना चाहिए. यह एंटी नेशनल तो नहीं है. यह मेरा चरम विचार हो सकता है.
आप इससे सहमत न हो. लेकिन यह बिल्कुल ऐसा नहीं है कि हमारे संविधान में इसकी अनुमति नहीं है. कश्मीर हमेशा एक विशेष राज्य रहा है और आर्टिकल 370 उसकी रक्षा करता है. पाकिस्तान, कश्मीर पर अपने अधिकार का दावा कर रहा है. कश्मीर में थोड़ी-बहुत राजनीतिक गतिविधि की अनुमति देने में कोई बुराई नहीं है.
जब तक एक ऐसा समय आता है जब आप पूरी तरह से एकीकृत हो जाएं, तब तक आर्टिकल 370 को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है. जैसा कि भाजपा 370 को खत्म करने की धमकी देती है और जैसा कि मोदी के शपथ लेते ही उनके पीएमओ के मंत्री ने कहा था कि 370 को ़खत्म करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, ऐसा करने से हालत और बिगड़ेंगे.
यह सबसे मूर्खतापूर्ण, अनुचित, ग़लत बयान था, जो प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठे एक व्यक्ति की तऱफ से आया था. बेशक उसके बाद ऐसा नहीं किया गया. कश्मीर में जब आप पीडीपी के साथ सरकार बना रहे हैं, तो इसका मतलब है कि आपने आर्टिकल 370 को स्वीकार कर लिया है. इसी तरह काम होना चाहिए. सरकारें आती-जाती हैं, लेकिन देश के संविधान में प्रतिस्थापित स्थिति को बदला नहीं जा सकता है.
क्या आज एक सरकार आ कर यह कह सकती है कि कुछ समय के लिए भारत कश्मीर को भूल जाए? नहीं. ऐसा नहीं हो सकता. हरेक नागरिक को अनुच्छेद 14, 19 से अधिकार मिला हुआ है और अदालतों के पास उचित प्रतिबंध लगाने का भी अधिकार है. राजद्रोह, अगर कोई भारत के खिला़फ टिप्पणी करता है, और वह टिप्पणी इतनी संवेदनशील है, तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है.
क्यों? हां, अगर आपके भाषण से हिंसा भड़कती है, तो निश्चित तौर पर आपको गिरफ्तार किया जा सकता है, लेकिन स़िर्फ भाषण देने भर से नहीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब है कि किसी को वो बात भी कहने का अधिकार है, जो आपको पसंद नहीं है. अगर सभी लोग आपकी प्रशंसा में ही बोलें तो फिर इसका मतलब है कि अभिव्यक्ति की ज्यादा स्वतंत्रता नहीं है.
स्वतंत्रता वह है कि अगर कोई ऐसी बात करे जो आपको पसंद नहीं है. अगर कोई आपके खिला़फ खराब टिप्पणी भी कर सके और आप उसे ऐसा करने का अधिकार देते हैं, तभी सचमुच उसे अभिव्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता मिलती है. पश्चिमी लोकतंत्र में हम इसे देखते हैं, क्या हम भारत में भी ऐसा देखते हैं?
संसद के भीतर सी अन्नादुरई, उस समय मद्रास राज्य से द्रमुक का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ने भारत से मद्रास राज्य को छूट दिए जाने के लिए एक भाषण दिया था. उन्होंने मद्रास राज्य के लिए अलग झंडा, अलग नाम, अलग संविधान आदि की मांग की थी. एक घंटे का उनका भाषण राज्यसभा में हुआ. किसी ने उनके भाषण को बाधित नहीं किया. उन दिनों में एक स्वस्थ बहस की परंपरा थी. उसके बाद 12 सदस्यों ने श्री अन्नादुरई के तर्क को ग़लत बताया, भ्रामक बताया.
उन्हें समझाया कि कैसे उनकी ये मांग भारत के हितों के खिला़फ है और खुद यह तमिलों के हितों के खिला़फ भी है. फिर क्या हुआ? चुनाव हुए, तमिल सत्ता में आए. 1967 में सत्ता में आए और तब से पिछले 50 साल से सत्ता में हैं. वे भारत के अभिन्न अंग बने हुए हैं. उन्होंने अलग होने की बात नहीं की. वास्तव में अगर आप सूचकांकों को देखें तो तमिलनाडु विकसित राज्यों में से एक है.
आज यह औद्योगिक और अन्य रूप से विकसित है. ऐसा क्यों हुआ? तमिलनाडु के लोगों को लगता है कि राज्य में अब उनकी सरकार, उनके द्वारा चुने गए लोग राज्य चला रहे हैं. यह दिल्ली से गाइडेड नहीं होती. पहले जब कांग्रेस थी, तब दिल्ली से गाइडेड होती थी. लेकिन कश्मीर में यह भावना नहीं है. केवल एक बार, 1983 में जब फारूक़ अब्दुल्ला चुनाव जीते, तब लोगों को लगा कि वे इंदिरा गांधी और कांग्रेस के अधीन नहीं हैं. उनकी अपनी चुनी हुई सरकार है. यह एक साल तक चली.
जगमोहन राज्यपाल थे, आधी रात को साज़िश के तहत दलबदल हुई, कांग्रेस ने जीएम शाह को मुख्यमंत्री बना दिया. अब्दुल्ला की सरकार गिर गई. दुर्भाग्यवश पहली बार सांप्रदायिक दंगा तभी कश्मीर में हुआ. कश्मीर कभी सांप्रदायिक नहीं रहा है, एक मज़बूत हिंदू और एक मज़बूत मुस्लिम आबादी के बावजूद. क्योंकि यहां सूफी इस्लाम है, वहाबी इस्लाम नहीं है.
वास्तव में धर्म कश्मीर में मुद्दा है ही नहीं. इसके उलट कश्मीर को ले कर धार्मिक प्रोपेगेंडा फैलाते हैं. बेशक़ वे मुसलमान हैं, जैसे अरब के लोग मुसलमान हैं, दुबई में मुसलमान हैं फिर भी वहां बिना किसी समस्या के हिन्दू काम करते हैं. धर्म जब तक निजी जीवन का विषय है, कोई समस्या नहीं है और कश्मीर में यह कोई मुद्दा नहीं है.
ठीक है कि जम्मू में अधिक हिंदू हैं लेकिन जम्मू के कुछ जिलों में ठीक ठाक संख्या में मुसलमान भी हैं. कश्मीर एक मिश्रित संस्कृति वाला राज्य है. वहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं, बौद्ध हैं, सिख हैं. महाराजा रंजीत सिंह ने वहां शासन किया, हरि सिंह का वहां शासन था. दुर्भाग्य से भारत, कश्मीर को सेना, अर्द्धसैनिक बल और पुलिस के ज़रिए नियंत्रित करना चाहता है. भारत के दूसरे राज्य की तरह ही वहां भी क़ानून और व्यवस्था होनी चाहिए.
लेकिन ये प्रमुख निर्णायक नहीं हो सकते. दुर्भाग्य से कश्मीर में प्रबल धारणा यह है कि वर्तमान में दिल्ली सरकार केवल सुरक्षा कर्मियों की सलाह से ही चलती है और फैसले लेती है. यह धारणा खत्म होनी चाहिए. इसे और अधिक राजनीतिक होना चाहिए. गृह मंत्री राजनाथ सिंह को बार-बार श्रीनगर की यात्रा करनी चाहिए. वे एक राजनीतिक आदमी हैं, चुनाव लड़ते हैं, वह चीजों को समझते हैं.
उन्हें कश्मीरी समाज से लगातार मिल कर बातचीत करते रहना चाहिए. जाहिर है, बिना किसी पूर्वाग्रह के वे एक बेहतर पोजीशन ले सकते हैं. भारत के गृह मंत्री को इस बात पर सहमत होने की ज़रूरत नहीं है कि कश्मीर एक खुला सवाल है. भारत के भीतर रहते हुए भी कश्मीर के लिए अपार संभावनाएं है. क्यों श्रीनगर के नागरिकों पर प्रतिबंध होने चाहिए.
कश्मीरी लोगों को यह एहसास ज़रूर होना चाहिए कि वे उनके द्वारा शासित हो रहे हैं, जिसे उन्होंने चुना है. शासन करने वाले हमारे और हमारे जैसे ही लोग हैं. ऐसे लोग सरकार चला रहे हैं, जो चाहते हैं कि छात्र पढ़ाई कर सकें, बीमार का इलाज़ हो सके, व्यापार ठीक से चले, पर्यटक आएं. ये सही है. लेकिन एक पर्यटक अ़खबार में खून-़खराबे की खबर पढ़ कर क्यों कश्मीर जाएगा? कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहेगा.
इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? हुर्रियत नेताओं को दोषी ठहराना एक बात है. वे अपना काम कर रहे हैं. लेकिन, श्रीनगर की सरकार आपकी है, भाजपा और पीडीपी की है. दिल्ली की सरकार आपके (भाजपा) पास है. आप देश चलाने की अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकते हैं. देश का हर कोना सुशासन, शालीनता, मानव जीवन की सुरक्षा और स्वतंत्रता के साथ चले, ये आपकी ज़िम्मेवारी है.
मैं फारूक़ अब्दुल्ला, कांग्रेस के सैफुद्दीन सोज, सीपीएम के तारिगामी और कांग्रेस अध्यक्ष जीएम मीर से भी मिला. राजनीतिक दल राजनीतिक दल होते हैं और इनमें से किसी का भी कठोर विचार नहीं है. कोई भी जनमत संग्रह की बात नहीं करता, क्योंकि उनका कामकाज भारतीय चुनावी क़ानूनों से चलता है.
लेकिन अच्छी बात यह है कि उनमें से सभी चाहते थे कि प्रयासों को जारी रखना चाहिए. हर कोई चाहता है कि आग ठंडी हो, लेकिन किसने आग लगाई, नहीं मालूम. वे यह भी नहीं जानते हैं कि कौन इस आग को ठंडा कर सकता है.
लेकिन ये ज़रूर चाहते हैं कि लोगों के बीच संपर्क बढ़े. यह कुछ हद तक सही भी है कि सूचना का अभाव है. इसलिए वे चाहते हैं कि भारत से ज्यादा से ज्यादा लोग यहां आएं. लेकिन मेरे हिसाब से कश्मीर की चाबी केंद्र सरकार के पास है. जब तक सरकार सुरक्षा उपायों में ढील नहीं देती, सामान्य जनजीवन बहाल नहीं करती, चीज़ें नहीं सुधरेंगी.
शब्बीर शाह एक पुलिस स्टेशन में हैं, जिसे एक उप जेल ही बना दिया गया है. हमें वहां जा कर उनसे मिलने का मौका मिला. एसएचओ पहले तो अनिच्छुक था और हमें अनुमति नहीं दी गई, लेकिन बाद में संतोष भारतीय ने कुछ फोन कॉल किए और फिर हमें उनसे मिलने की अनुमति प्रदान की गई. बेशक, एक बार अनुमति मिलने के बाद एसएचओ ने हमारे लिए चाय भी भिजवाई. हमने शाह के साथ एक घंटे बात की.
एक अच्छी बैठक हुई. इस मुलाक़ात का अहम हिस्सा ये रहा कि शब्बीर शाह ने गुस्सा नहीं दिखाया. शाह खुद इस बात से अचंभित हैं कि सरकार को उन्हें 29 साल से बार-बार और पिछले 40 महीनों से लगातार कैद में रख कर क्या मिल रहा है? वह हुर्रियत का हिस्सा हैं और पूर्व में प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर के समय किए गए प्रयासों की सराहना करते हैं. चन्द्रशेखर सरकार ने लोगों के साथ संपर्क किए थे, बैक चैनल डिस्कशन हुआ था.
कश्मीर समस्या की चाबी केंद्र के पास है
अच्छी बात यह है कि सभी राजनीतिक दलों के या हुर्रियत के लोग समझते हैं कि आप हमेशा के लिए हड़ताल नहीं रख सकते. वे यह भी समझते हैं कि छह महीने का समय एक बड़ी अवधि है और वे खुश हैं कि इस ह़डताल में एक गैप (अंतराल) आया है.
लेकिन वे इस बात से भी आशंकित हैं और ये नहीं जानते हैं कि आगे क्या होगा, क्योंकि मूल सवाल अभी भी अनुत्तरित ही है. ऐसे में लोगों का गुस्सा फिर सतह पर आ सकता है. बेशक पाकिस्तान की भूमिका है, लेकिन हम अपने देश में घटने वाली घटना के लिए स़िर्फ पाकिस्तान को ही दोष नहीं दे सकते हैं.
क्या हम इतने कमज़ोर हैं कि हम अपने ही लोगों के दिलों को जीत नहीं सकते हैं. मैं नहीं समझता कि यह भारत जैसे एक बड़े देश के लिए स्वीकार्य चीज़ है. आज ज़रूरत इस बात की है कि कश्मीर को और अधिक अधिकार दिए जाएं, 370 को और मज़बूत बनाएं. तब पाकिस्तान क्या कहेगा? और जो लोग आज जनमत संग्रह की बात करते हैं, उसमें धर्म एक कारक है.
जनमत संग्रह धर्म के बिना किए जाने की बात थी, लेकिन अब यह मुश्किल है. आज के इतने अधिक सांप्रदायिकीकरण की हालत में जनमत संग्रह एक विकल्प नहीं है. पाकिस्तान भी समझता है कि वहां जनमत संग्रह नहीं होगा. नियंत्रण रेखा अंतर्राष्ट्रीय सीमा की तरह हो जाएगी. प्रस्ताव यह था कि उसे एक सॉफ्ट बॉर्डर बना दिया जाए, लेकिन लोगों को यह सब समझ नहीं आता. वे इसे ले कर भी संदेह करते हैं.
अब, जो भी कहना और करना है, भारत सरकार को करना है. भारत एक बड़ा देश है. कश्मीर देश का एक बहुत छोटा हिस्सा है. कश्मीर की आबादी भारत के बाक़ी हिस्सों की तुलना में क्या है? यदि हम इतनी कम जनसंख्या के मन में विश्वास नहीं जगा सकते अपने शासन के बारे में, अपने संविधान के बारे में, तो फिर मैं समझता हूं कि इसका बहुत बुरा असर होगा.
आप कह सकते हैं कि कुछ शरारती तत्व ये सब कर रहे हैं. वे हर जगह हैं. मुंबई में और दिल्ली में भी आपराधिक कृत्य होते हैं. लेकिन इससे पूरा का पूरा राज्य प्रभावित नहीं होता. जाहिर है, कश्मीर में मतदाताओं के मन पर अधिक प्रभाव है. इस बात का कोई जवाब नहीं है कि सरकार की प्रतिक्रिया इतनी ़खराब क्यों है? शायद इसकी वजह अर्धसैनिक बलों द्वारा ताक़त का इस्तेमाल भी है, जो अक्सर होता रहता है. इस तरह की शिकायतें आती रहती हैं.
ऐसे मामले आज ही नहीं, अकबर के समय में भी थे. यह सेनाओं का सामान्य व्यवहार है. लेकिन सभ्य राज्य में हमें इसे ना कहना चाहिए. एक और शिकायत है कि सेना के खिला़फ पुलिस आमतौर पर एफआईआर दर्ज नहीं करती है. अब, ऐसे में लोग क्या महसूस करेंगे? जंगलराज और क़ानून के शासन के बीच फिर क्या अंतर रहेगा? प्राथमिकी दर्ज होनी चाहिए, जांच कराई जानी चाहिए.
दस में से दो दोषी पाए जाएंगे. इससे एक औसत आदमी के मन में विश्वास पैदा होगा. मैं नहीं समझ पा रहा कि मैं क्या कहूं? या तो सरकार को चाहिए कि वो कश्मीर मामलों के लिए अलग से एक मंत्रालय बनाए, जैसा कि एक बार श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था, और जॉर्ज फर्नांडीज़ इसके प्रभारी थे, स्वयं गृह मंत्री इस मामले को देखें लेकिन किरण रिजीजू तो बिल्कुल इसके लिए फिट नहीं हैं. इसके लिए एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो चीजों को समझे, जो उदारवादी मानसिकता का हो.
आप झंडेवालान (दिल्ली में आरएसएस का कार्यालय) में जो अनुशासन लागू करते हैं, वही अनुशासन कश्मीर में लागू नहीं कर सकते हैं. कश्मीर एक समग्र राज्य है. वास्तव में यह भारत का गौरव है. यह दुनिया को दिखाने लायक एक जगह है कि देखिए हम कैसे सद्भावना के साथ रहते हैं. हालांकि, हमने इस सद्भावना को खत्म करने की कोशिश की है. बेशक कश्मीरी पंडितों का वहां से निकलना एक बदनुमा दाग है, कश्मीरी मुसलमानों के लिए भी.
उनकी वापसी की बात होती है, लेकिन वे वापस जाने का जोखिम क्यों लें. मुझे आशा है कि एक दिन आएगा और धीरे-धीरे वे अपने घरों को वापस जाएंगे और समग्र कश्मीर की तस्वीर हमारे सामने होगी. आज़ादी के बाद, 1980 तक, यानी 35 साल तक ऐसी कोई समस्या नहीं थी. जनमत संग्रह का भी मुद्दा था, पाकिस्तान भी मुद्दा था, लेकिन कश्मीर के लोगों के बीच सद्भावना बनी रही. हमें उसी स्थिति को पाने की कोशिश करनी चाहिए. देखते हैं कि केन्द्र सरकार क्या करती है? प