अलगाव की भावना पैदा क्यों होती है
इन सभी लोगों से मुलाक़ात करने के बाद, सवाल है कि इन सब को जोड़ने वाला कॉमन धागा क्या है? दरअसल, आज के युवा जिनमें गुस्सा है, उन्हें कश्मीर के इतिहास का पता नहीं है. लेकिन, मैं क्या कहूं, यहां तो बड़ी उम्र के भी ऐसे लोग हैं, जिनके पास कश्मीर के इतिहास का अपना संस्करण है और वही बताने की कोशिश कर रहे हैं. यहां तक कि अब शेख अब्दुल्ला, जो कश्मीर के निर्विवाद नेता थे, उनके बारे में भी अलग कहानियां सुनाई जा रही हैं.
लोग यहां तक सवाल उठा रहे हैं कि क्या शेख अब्दुल्ला निर्विवाद नेता थे? यह कश्मीर के लोगों के लिए एक अच्छी बात नहीं है. भाजपा ने हमेशा यही किया है और जवाहर लाल नेहरू आदि को दोषी मानती है या जानबूझ कर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती है.
तथ्य यह है कि शेख अब्दुल्ला एक सुधारवादी थे, वह जमींदारी के खिला़फ थे. वह जानते थे कि महाराजा के अधीन हिंदू ज़मींदार थे और मुसलमान उनके जोतदार थे. उन्होंने इसमें सुधार किया, संतुलन लाए. बहरहाल, मुझे लगता है कि भारत सरकार को सकारात्मक कार्रवाई करनी चाहिए, इसे सक्रिय होना चाहिए.
उस वक्त किसी के साथ भी कोई बात करने का मतलब नहीं है जब सामान्य नागरिक स्वतंत्रता और मानवधिकार छीन लिए गए हों. ऐसे में जब आप श्रीनगर में धरना नहीं दे सकते, शांतिपूर्ण धरना नहीं कर सकते, आप एक हॉल में बैठक नहीं कर सकते, इससे तो अधिनायकवाद और तानाशाही के संकेत मिल रहे हैं. यह आगे लोगों को अलगाव की ओर धकेलेगा.
मेरे लिए सबसे बड़ा झटका सामान्य लोगों के बीच अलगाव की भावना थी. समस्या ये है कि भारत सरकार शांति के समय भी कड़े कानून का सहारा ले रही है, जिसकी असल में ज़रूरत नहीं है. क्या होगा यदि आप गिलानी को श्रीनगर में घूमने की इजाजत दे देते हैं? क्या होगा यदि शब्बीर शाह को जेल में नहीं रखा जाता है? उन्हें आजाद करने का मतलब ये नहीं है कि कश्मीर भारत से आजाद हो जाएगा.
बिल्कुल नहीं! वहां सेना पाकिस्तानी सीमा पर खड़ी है. वह रहेगी भी, कोई इस पर सवाल खड़े नहीं करता, लेकिन सामान्य नागरिक अधिकार, मानव अधिकार बहाल किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं है, वहां इसे ले कर भी नाराजगी है कि अनुच्छेद 370, जिसे कश्मीरियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए लागू किया गया था और जिसे मजबूत बनाने की ज़रूरत थी, उसे और कमज़ोर किया जा रहा है.
1953 में जब शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया था और 1975 में जब वे फिर से मुख्यमंत्री बने, इस बाईस साल के बीच लगभग सभी कानूनों को ऐसा बनाया गया, जो 370 को औपचारिक बना कर रख देने वाले थे.
कोई भी ये तर्क दे सकता हैं कि बख्शी गुलाम मोहम्मद, शम्सुद्दीन, जी एम सादिक और सैयद मीर कासिम के समय उन प्रस्तावों को विधानसभाओं से पारित किया गया था. ठीक है, लेकिन मैं नहीं जानता कि मौजूदा विधान सभा क्यों नहीं उन प्रस्तावों को रद्द कर सकती है?
फारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला की लंबे समय तक सरकारें रही हैं. ये प्रस्ताव ला सकते थे और कह सकते थे कि उस वक्त जो प्रस्ताव लाए गए थे, उन्हें हम खत्म करते हैं. वे कह सकते थे कि हम अपना क़ानून लागू करेंगे, हमें भारत के क़ानूनों को यहां लागू करने की ज़रूरत नहीं है.
लेकिन ये सब कानूनी और तकनीकी मामले हैं. जमीनी हक़ीक़त ये है कि कश्मीर के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कुछ आर्थिक मसलों पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के पक्ष में निर्णय दिया, इससे वे गुस्सा हैं.
वे भारतीय स्टेट बैंक से ऋण चाहते हैं. यह तर्कसंगत है. ऋण कुछ कानूनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, लेकिन अलगाव की भावना मनोवैज्ञानिक है. जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय को व्यापारियों और बैंकों के बीच संतुलन लाने के लिए पर्याप्त रूप से सशक्त होना चाहिए. यहां के लोग आरोप लगाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी भारत बनाम कश्मीर कार्ड खेल रही है.
यह सच नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट केवल एक क़ानून की व्याख्या कर रही है, लेकिन जब भारत सरकार भारत और कश्मीर के बीच इस दीवार को खड़ी करती है, तो मुझे डर है कि अलगाव की ये भावना दूर नहीं होगी. अगर आज यह भावना जारी रहती है तो कल पांच या दस साल बाद भी समाधान नहीं निकलेगा. कश्मीर के लोग केंद्र सरकार द्वारा दिए गए भाषणों जिसमें टेररिस्ट मनी, एटीएम में कोई कतार नहीं है, से सहमत नहीं हैं.
वहां एटीएम में इसलिए कतार नहीं है क्योंकि सर्दियों के मौसम आने से पहले लोग स्वाभाविक तौर पर घर में दो से तीन महीनों का खाद्य भंडारण कर लेते हैं. इसलिए वहां एटीएम में कोई कतार नहीं है. इसलिए, वे भारत के अन्य भागों की तरह नहीं हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपने उन्हें तकलीफ़ नहीं दी है. विमुद्रीकरण से वे गहरे तक प्रभावित हुए हैं, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली और मुंबई प्रभावित हुआ है.
अब हम यहां से कहां जायेंगे? मेरे हिसाब से अगर सरकार केवल सुरक्षा नेटवर्क के माध्यम से कश्मीर को देखना चाहती है, या राष्ट्रीय सुरक्षा, सलाहकार, सेना, गृह मंत्रालय के नज़रिए से देखना चाहती है तो समस्या है.
कश्मीरियों को अगर विदेश जाना है तो उन्हें भारतीय पासपोर्ट ही चाहिए, इस तरह वे क़ानूनी तौर पर भारत का ही हिस्सा हैं. लेकिन उनके दिमाग़ और दिल भारत के साथ नहीं हैं. क्यूं? क्योंकि उनके मन में यह भावना बार-बार आती है कि हम जन्म से कश्मीरी हैं और बिहार या केरल या तमिलनाडु से आया हुआ एक सैनिक हमसे हर कुछ किलोमीटर बाद हमसे हमारी पहचान (आईडी) पूछता है.
ये सेना के जवान कश्मीर से नहीं हैं और हमसे कश्मीर की आईडी मांगते हैं. यानी, पुलिस, अर्धसैनिक बल, सेना के नेटवर्क को कम किया जा सकता है. यह कैसे करना है, यह मुश्किल है. नियंत्रण रेखा पर सेना हो तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि तब सेना दो देशों के बीच होगी न कि कश्मीर के भीतर. सशस्त्र बलों और वर्दीधारी लोगों की संख्या को कम किया जाना चाहिए. इसे हम धीरे-धीरे कम कर सकते हैं.
अगर आप ऐसा करते हैं और पाते हैं कि हिंसा नहीं हो रही है तो इसमें क्या समस्या है? कश्मीर में अभी कुल 178 आतंकवादी हैं. सरकार कहती है कि अगले छह महीनों में इस संख्या में वृद्धि हो सकती है. 178 बहुत बड़ी संख्या नहीं है, लेकिन मैं इस बात से सहमत हूं कि आतंकवादी, आतंकवादी होते हैं. वे किसी के घर में छुप सकते हैं और बाद में तबाही मचा सकते हैं. यह एक जटिल मुद्दा है. लेकिन यह जितना मनोवैज्ञानिक है उतना ही तार्किक भी.
जनमत संग्रह तब तक नहीं संभव है जब तक भारत और पाकिस्तान इस बात से सहमत न हों. इसलिए, इसे अलग ही रखें. लेकिन, दिल्ली या मुंबई या चेन्नई या किसी अन्य जगह के लोग जो सामान्य जीवन जीते हैं, वही सामान्य जीवन कश्मीर के लोगों को भी दिया जा सकता है, दिया जाना चाहिए. 1983-84 के बाद और 1989 के चुनाव जिसमें कश्मीरी लोग धांधली किए जाने की बात करते हैं.
तब से तक़रीबन पिछले तीस वर्षों में नागरिक स्वतंत्रता या समानता की झलक नहीं देखने को मिल रही है. पुलिस सर्वोच्च है और सेना सर्वोच्च है. क्रोध अब और अधिक बढ़ गया है क्योंकि अब नया पैलेट गन आ गया है. छात्रों द्वारा पत्थर फेंके जाने पर उन पर पैलेट गन चलाया गया जिससे लोग अंधे हुए. इससे निश्चित रूप से भारत भर के लोगों के बीच एक अच्छा सन्देश नहीं गया.
बेशक क़ानून और व्यवस्था महत्वपूर्ण है, लेकिन किसी समस्या के हल के लिए आप अनुचित तरीके से कार्रवाई नहीं कर सकते. आप यह बोल कर कि विमुद्रीकरण से समस्या खत्म हो गई क्योंकि अब उन्हें पत्थर फेंकने के लिए 500 रुपये नहीं मिल पा रहे हैं, मज़ाक़ नहीं उड़ा सकते. ऐसा बोलना ही बचकाना है.