कहते हैं जब कोई पापी पश्चाताप करता है तो स्वर्ग में जश्न मनाया जाता है. संसद में पीछे बैठने वाले सदस्यों को अपने मन की बात कहने की बहुत कम आज़ादी होती है. इसके बावजूद पी चिदंबरम ने साहस दिखाते हुए कश्मीर मुद्दे पर वो बात कही, जिसे अब कोई स्वीकार करना नहीं चाहता है. चिदंबरम किसी भी राजनीतिक दल के पहली पंक्ति के पहले ऐसे सदस्य हैं जिन्होंने खुले तौर पर कहा कि भारत (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) ने कश्मीरियों से जो वादा किया था, उससे मुकर गया है. गुलाम नबी आजाद ने फौरन उनकी बात को रद्द कर दिया क्योंकि यह कांग्रेस की नीति नहीं है. इससे ज़ाहिर होता है कि वे एक ऐसा सच बोल रहे थे, जो खुद उनकी पार्टी को ही स्वीकार्य नहीं है.
आज़ादी के बाद देशी रियासतों को दो तरह से भारतीय संघ में शामिल किया गया था. पहला परिग्रहण (एक्सेशन) से और दूसरा एकीकरण (इंटीग्रेशन) से. जूनागढ़ और हैदराबाद का एकीकरण आम वोट से हुआ. कश्मीर में भी इसी तरह की वोटिंग का वादा किया गया था, लेकिन कभी युद्ध और कभी संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में हुए युद्ध विराम की वजह से यह वोटिंग कभी नहीं हो पाई. चूंकि कश्मीर के दोनों हिस्से कभी एक नहीं हो सके इसलिए किसी तरह का जनमत संग्रह असंभव हो गया. शेख अब्दुल्ला को 11 वर्षों तक बिना मुकदमा चलाये उनके घर में सिर्फ इसलिए नज़रबंद रखा गया क्योंकि वे जनमत संग्रह की वकालत कर रहे थे.
उसके बाद चुनावों में जमकर धांधलियां हुईं और ऐसे नेतृत्व की तलाश की गई, जो वहां दिल्ली की भाषा बोले. आम सहमति के मुद्दे को पूरी तरह से भुला दिया गया. हालांकि धारा 370 संविधान में तो बना रहा, लेकिन स्वायत्तता की जो व्याख्या इस धारा में की गई थी राज्य ने उसे खो दिया. यह एक मूलमंत्र बन गया कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और सेकुलरिज्म का सबूत है.
आजादी के बाद के 50 वर्षों में कांग्रेस कश्मीर घाटी के लोगों के दिल और दिमाग़ को जीतने में नाकाम रही. अटल बिहारी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सुलह की प्रक्रिया शुरू हुई. इस प्रक्रिया में तीन पक्ष थे: भारत, पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर (प्लस पीओके?). दो आयामी तरीके से समस्या का समाधान निकालने की बात की जा रही थी. पहले तरीक़े में भारत और पाकिस्तान तथा दूसरे में भारत और जम्मू-कश्मीर को शामिल करने की बात थी, लेकिन जब अलगाववादियों के एक छोटे समूह ने एक तीसरे पक्ष (पाकिस्तान और जम्मू-कश्मीर) बनाने की कोशिश की तो भारत को चौकन्ना होना पड़ा था. तीसरे पक्ष के डर ने भारत द्वारा कश्मीरियों का दिल जीतने के प्रयासों को सीमित कर दिया.
इस्लामिस्ट टेररिज्म ने 1980 के दशक के आखिरी दिनों में कश्मीर में जो घुसपैठ करना शुरू किया था, वह आज भी जारी है. जब भी पुलिस या सेना की गोली से किसी की मौत होती है तो उसके जनाज़े को जुलूस की शक्ल में निकाला जाता है. इस दौरान नौजवान आज़ादी का नारा लगाते हैं, जो और भी मौत का कारण बनता है.
आज़ादी का नारा भारत से आज़ादी के लिए नहीं है, बल्कि स्वायत्तता के लिए है, उस यथास्थिति के लिए है, जब वहां की सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री (जैसा कि 1947 से पहले प्रांतों के सभी मुख्यमंत्रियों को संबोधित किया जाता था) और राज्य के मुखिया को सदर-ए-रियासत कह कर संबोधित किया जाता था. कश्मीरियों से किए गए प्रमुख वादे पर चिदंबरम ने अपनी चुप्पी तोड़ी है, जिसके लिए उनकी आलोचना जरूर की जाएगी. एक पूर्व गृह मंत्री होने और कई सरकारों के मंत्रिमंडल में शामिल रहने की वजह से वे सभी मुद्दों से अच्छी तरह से वाकिफ हैं.
इस समस्या का एक साहसिक हल है और वह यह कि एक जनमत संग्रह कराया जाए, जिसमें जम्मू-कश्मीर के सभी नागरिक शामिल हों (जैसा महाराजा ने पाकिस्तान के हमला नहीं करने की स्थिति में कराई होती). वहां के लोगों से पूछा जाना चाहिए कि वे भारतीय संघ में इंटीग्रेट होना चाहते हैं या स्वायत्तता चाहते हैं. स्वायत्तता का मतलब स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि 1947 और 1953 के बीच जो स्थिति थी, उसकी बहाली है और आर्टिकल 370 को प्रभावी ढंग से बहाल करना है. अगर भारत चाहता है कि जम्मू-कश्मीर उसे प्यार करे तो उसका यही एकमात्र तरीका है.