(1 फ़रवरी 1972 को जयप्रकाश नारायण का हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित पत्र)
जबसे मैंने 13-1-1972 के अंक में जम्मू और कश्मीर के चुनाव पर आपका बेहतरीन संपादकीय पढ़ा है, तबसे मैं आपको अपने दिल की गहराइयों से बधाई देने के लिए यह पत्र लिखना चाह रहा था. मैं आपके संपादकीय के एक-एक शब्द से सहमत हूं. दरअसल जब जनवरी 1971 के पहले सप्ताह में शेख अब्दुल्ला और उनके सहयोगियों को पिछले लोकसभा चुनाव में हिस्सा लेने से रोकने के लिए कार्रवाई को लेकर अफवाहों का बाज़ार गरम था, तब मैंने इसका विरोध किया था. मैंने व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री और श्री पीएन हसकर से यह कार्रवाई नहीं करने की अपील की थी, लेकिन मेरी अपील का कोई असर नहीं हुआ. नतीजतन एक लोकतंत्र के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल हुई और कश्मीर की जनता बाकी देश की जनता से और अधिक अलग-थलग हो गई. कश्मीर से शेख अब्दुल्ला के निर्वासन के आदेश को उद्धृत करते हुए मैंने अन्य बातों के अतिरिक्त इस बात पर भी अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा था कि शेख अब्दुल्ला और उनके सहयोगियों को भारत की मुख्यधारा की राजनीति में वापस लाने के लिए 1953 के बाद मिलने वाले पहले अवसर को हमने मूर्खतापूर्ण तरीके से गंवा दिया है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी ज़ख्मों को भर देती है, लेकिन हमने उस मौके को भी हाथ से जाने दिया. मुझे ख़ुशी है कि वर्तमान संदर्भ में आपके संपादकीय में इन बातों की प्रतिध्वनि सशक्त रूप से सुनाई दी है.
इस बार भी संदर्भ चुनाव ही है, लेकिन इस बार का चुनाव जम्मू और कश्मीर विधानसभा का है. मुझे इसमें कोई शक नहीं कि एक बार फिर जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री श्री मीर कासिम ने दिल्ली की मिलीभगत से यह घोषणा की कि निर्वासन आदेश लागू रहेगा, क्योंकि जिन हालात में ये आदेश जारी हुए थे, उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. बेशक ये एक ज़िम्मेदार राजनेता का एक अजीबोगरीब बयान था. यह कोई भी समझ सकता था कि बांग्लादेश की आजादी और पाकिस्तानी सेना की पराजय ने उपमहाद्वीप की स्थिति को बिल्कुल बदल दिया है. अगर जम्मू और कश्मीर के मुसलमानों की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है, तो यह मीर कासिम के नेतृत्व और उनकी पार्टी के दिवालिएपन को ज़ाहिर करता है. स्थिति का जो आकलन उन्होंने प्रस्तुत किया, व्यक्तिगत रूप से मैं उसे स्वीकार नहीं करता हूं. ऐसा लगता है कि उनका आकलन घाटी में सुलह और वहां के लोगों की भलाई से अधिक उनके व्यक्तिगत सत्ता लोभ पर आधारित है. काश मैं गलत होता, लेकिन मैं उनके क्रियाकलापों की इससे बेहतर व्याख्या नहीं कर सकता हूं.
एक बार फिर लोकतंत्र के सवाल की तरफ लौटते हैं. पिछले दस महीनों से हम खुद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकतंत्र और बांग्लादेश में मानवाधिकार के रक्षक के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, लेकिन हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को क्या कहेंगे, जब हम खुद अपने एक राज्य के नागरिकों को उन्हीं अधिकारों से वंचित कर रहे हैं? सरकार के प्रवक्ता ने पहले जो भी कहा हो या अब कहेंगे, लेकिन हकीक़त यह है कि जम्मू और कश्मीर में कभी भी धांधली-रहित चुनाव नहीं हुए हैं. आपने अपने संपादकीय में बिल्कुल सही कहा है कि आज़ादी और लोकतंत्र को अलग-अलग नहीं किया जा सकता. लेकिन यदि शेख अब्दुल्ला और उनके निर्वासित सहयोगियों को चुनाव पूर्व, पर्याप्त समय रहते अपने राज्य में वापस नहीं लौटने दिया जाता और राजनीतिक कैदी (जिनपर हिंसा का अपराध साबित हो चुका है उनको छोड़कर) अभी भी कैद में रहते हैं, तो लोकतंत्र की हमारी पुरजोर हिमायत हमारे कृत्य से कैसे सामंजस्य बैठा पाएगी और दुनिया को हम यह कैसे यकीन दिला पाएंगे कि हम दोहरे मानक इस्तेमाल नहीं करते या घर के लिए एक और बाहर के लिए दूसरी नीति नहीं अपनाते?
एक महत्वपूर्ण प्रासंगिक बिंदु पर मैं अपना रुख स्पष्ट करना चाहता हूं. एक समय था, जब मैं शेख अब्दुल्ला के साथ बातचीत की लगातार मांग करता रहा, ताकि उनके साथ किसी समझौते पर पहुंचा जाए और उनके स्वाभिमान को भी संतुष्ट किया जा सके. ऐसा इसलिए था, क्योंकि उनके साथ कोडाईकोनाल में लंबी बातचीत के बाद मुझे यकीन हो गया था कि वे पाकिस्तान की मंशा के विपरीत कश्मीर को भारतीय संघ में बने रहने पर राज़ी हो जाएंगे. बशर्ते कि हम उनको अपनी छवि बचाने के लिए कुछ रियायतें दे दें, लेकिन अज्ञात कारणों से उनसे बातचीत तो हुई, लेकिन गंभीरता के साथ कभी नहीं हुई. मैं समझता हूं कि इस मसले पर सबसे गंभीर बातचीत का सिलसिला उनके और श्री जी पार्थसारथी के बीच चला था. ये बातचीत शेख के कोडाईकोनाल से रिहाई और अपने राज्य (जहां उन्होंने कुछ अस्पष्ट और दुर्भाग्यपूर्ण बयान दिए थे) से दिल्ली वापसी पर हुई थी. इस के बावजूद मैं समझता हूं कि शेख और भारत के विचारों में सबसे अधिक नजदीकी इसी समय आई थी. लेकिन फिर जब मामला लगभग तय होने के करीब था और श्री पार्थसारथी एक दो दिन में शेख से फिर से मिलने वाले थे कि अचानक कुछ नामालूम कारणों से शेख को बिना बताये पार्थसारथी न्यूयॉर्क रवाना हो गए. उसके बाद फिर कभी इस कश्मीरी नेता के साथ सियासी मेल-मिलाप की संभावनाओं पर कोई संजीदा कोशिश नहीं हुई.
इतिहास की इन घटनाओं का ज़िक्र करने का मकसद यह कहना नहीं है कि भारत सरकार को एक बार फिर शेख के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, ताकि घाटी में विश्वसनीय और लोकतांत्रिक चुनाव के लिए आवश्यक माहौल तैयार किया जा सके. मुझे भारी मन से यह स्वीकार करना पड़ता है कि शेख का बांग्लादेश के प्रति रुख और उनके द्वारा कश्मीर और बांग्लादेश के मुद्दों में समानता ढूंढने से मुझे बहुत मायूसी हुई है. 1947 से लेकर आज तक जो घटनाएं घटी हैं, उसके मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि अब किसी भी कश्मीरी नेता का जवाहरलाल नेहरू के जनमत संग्रह के वादे का राग अलापना एक बेकार की कवायद है. जनमत संग्रह का मुद्दा अब हमेशा के लिए खत्म हो चुका है. यहां तक कि शेख भी अब घड़ी के कांटे को पीछे नहीं ले जा सकते. कश्मीर के भारत में अधिग्रहण पर अब कोई सवाल नहीं उठा सकता है, जो कोई भी इसके विपरीत सोचता है, वह मूर्खों की जन्नत में जी रहा है और उसकी सोच में समय के अनुकूल बदलाव नहीं हुआ है और उपमहाद्वीप में ऐतिहासिक बदलावों को उनसे नहीं समझा है. मुझे नहीं लगता कि घाटी में ऐसी सोच रखने वाले बहुत अधिक लोग हैं. एक मात्र सवाल जिसे आज भी प्रासंगिक माना जा सकता है, वह है कि भारतीय संघ में रहते हुए जम्मू और कश्मीर को कितनी स्वायत्तता दी जा सकती है और जम्मू और लद्दाख को राज्य के संवैधानिक ढांचे में कितनी स्वायत्तता होगी. लेकिन यह सवाल सिर्फ जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष नहीं है. देश में कई राज्य हैं, जो अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं. उदाहरण के लिए तमिलनाडू के संबंध में राजामन्नार आयोग की रिपोर्ट है. लेकिन साथ ही मुख्यमंत्री करुणानिधि का यह ज़ोरदार बयान भी गर्व के साथ दोहराया जा सकता है. यह बयान उन्होंने हाल में तंजोर की एक आम सभा में दिया है. वे कहते हैं कि राज्यों को अधिक स्वायत्तता की मांग का मतलब देश का विभाजन हरगिज़ नहीं है. इसका मतलब केवल लोक कल्याण के कार्यों को प्रोत्साहित करना है. देश की एकता और अखंडता को प्रभावित किए बिना लोगों के लिए राज्यों को अधिक अधिकार देने की मांग की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी स्वयं जांच कर सकती हैं.
हमारे संविधान में काफी लचीलापन है और हमारे राज्य और केंद्र इतने बुद्धिमान ज़रूर हैं, जो समझते हैं कि स्वायत्तता की मांग की हद क्या होनी चाहिए. अपने देश की विशाल आबादी और विभिन्न समस्याओं को देखते हुए राज्यों को और अधिक स्वायत्तता दिए जाने की वकालत मैं खुद करता रहा हूं. मैं ये भी मानता हूं कि छोटे राज्य बेहतर सरकार दे सकते हैं और लोकतंत्र को जनता के और करीब ला सकते हैं और इसमें भागीदारी की भावना को बढ़ा सकते हैं. इसके अतिरिक्त छोटे राज्य क्षेत्रीय असमानताओं को अधिक तेज़ी से और बिना तनाव के कम कर सकते हैं. साथ में हमेशा से मैं यह जोर देता आ रहा हूं कि संघीय सरकार की मजबूती और अधिकार को कमज़ोर नहीं किया जा सकता और न ही भारत की अखंडता को कमजोर होने दिया जा सकता है. मैं समझता हूं कि इस हद के अंदर आपसी सामंजस्य और एक दूसरे से आदान-प्रदान की काफी गुंजाइश है.
इन्ही कारणों से मुझे कभी ये शक नहीं रहा कि हमारे राष्ट्र की अखंडता को कोई खतरा है. मैं निश्ंिचत हूं कि भारत हमेशा एकजुट रहेगा और मजबूती के साथ आगे बढ़ता रहेगा. हमारी समस्याएं बड़ी हैं, लेकिन मुझे विश्वास है कि हम उनपर काबू पा लेंगे. ख़ुशी की बात यह है कि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े मुस्लिम देश के रूप में बांग्लादेश की आज़ादी और उस आज़ादी के संघर्ष में तथाकथित हिंदू भारत की भूमिका ने देश में हिंदू और मुसलमान दोनों तरह की सांप्रदायिकता के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी है. कहते हैं कि आदत धीरे-धीरे जाती है, लेकिन मुझे यकीन है कि बड़े से बड़े धर्मांध को भी इस ऐतिहासिक घटना का संदेश मिल गया होगा. तो क्या मैं भारत सरकार को ये सुझाव दे सकता हूं कि बांग्लादेश से सबक सीखते हुए इस देश में कम से कम उन राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दे, जो नाम और काम से खुलेआम अपने सांप्रदायिक चरित्र की नुमाइश करते हैं. मिसाल के तौर पर हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का नाम लिया जा सकता है. जातिवाद बेशक एक बड़ा अभिशाप बना रहेगा, लेकिन यह मुख्य रूप से सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन की पैदावार है. एक सामाजिक संस्था के रूप में जातिवाद की पहले जो भी मान्यता थी, अब वे मान्यताएं नहीं रही हैं. मुझे विश्वास है कि देश जैसे-जैसे विकास करेगा, जातिवाद अपनी मौत खुद मर जाएगा. इसका यह मतलब नहीं है कि प्राचीनकाल की इस बेकार प्रथा (जो मुख्य रूप से राजनीतिक कारणों से जिंदा है) के खिलाफ लगातार जंग की आवश्यकता नहीं है.
भविष्य में भारत के इसी विश्वास के मद्देनजर मैं जम्मू और कश्मीर में धांधली रहित साफ-सुथरे चुनाव कराने की गुज़ारिश करता रहा हूं. मैं सभी संबंधित पक्षों को यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि राज्य में किसी भी चुनाव को साफ-सुथरा नहीं कहा जा सकता है, जबतक निर्वासित नेताओं को समय रहते राज्य में आने नहीं दिया जाता. मैं यह ज़रूर स्वीकार करूंगा कि मैं जनमत संग्रह से पाबंदी हटाने का पक्षधर नहीं हूं. जनमत संग्रह (प्लेबेसाइट) अब बेमानी हो चुका है और यहां तक कि मौजूदा संदर्भ में यह राजद्रोह का मामला हो गया है. मैं उम्मीद करता हूं कि मिर्ज़ा अफ़ज़ल बेग और उनके सहयोगियों को इतनी समझ होगी कि वे मौजूदा स्थिति को समझ सकें (जैसा कि श्री भुट्टो न चाहते हुए भी धीरे-धीरे समझने लगे हैं) और हालात का पुनर्मूल्यांकन करके खुद को एक वास्तविक भारतीय पक्ष के रूप में ढाल लेंगे. मैं आपके (संपादक के) साथ पूरी तरह से सहमत हूं, जब आप ये सवाल पूछते हैं कि आखिरकार हम किस से डर रहे हैं?
मौजूदा कानून देशद्रोह की किसी भी गतिविधि से अच्छी तरह से निपटने के लिए पर्याप्त है. मुझे इसका भी विश्वास है कि कश्मीर घाटी के लोगों ने आत्म निरीक्षण किया होगा और धर्म के आधार पर पाकिस्तान के लिए उनके मन में जो भी बेहतर सोच होगी, वह बांग्लादेश की घटना के बाद समाप्त हो गई होगी. जम्मू और कश्मीर के लोग खास तौर पर यहां के मुसलमान नागरिक भारत और पाकिस्तान (अब उसका जो भी हिस्सा अब शेष बचा है) के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकने की स्थिति में हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री और मेरे समेत अनगिनत लोग कह रहे हैं कि भारत, पाकिस्तान के लोगों के खिलाफ किसी तरह की दुर्भावना नहीं रखता और न ही पाकिस्तान के विघटन की इच्छा रखता है. शेष पाकिस्तान का विघटन अनगिनत समस्याएं पैदा करेगा, न सिर्फ अपने लिए, बल्कि भारत और पूरे उपमहाद्वीप के लिए भी, जो विश्व की महाशक्तियों को बिगड़े हुए हालात में यहां के मामलों में हस्तक्षेप करने का मौक़ा देगा.
जब स्वायत्तता की मांग पर शेख मुजीबुर्रहमान ने 7 मार्च 1971 को अपना असहयोग आंदोलन शुरू किया था, तो बांग्लादेश पर अपने पहले बयान में मैंने कहा था कि पाकिस्तान की अखंडता बंगबंधु (शेख मुजीबुर्रहमान) के हाथों में नहीं है, बल्कि याहिया खान और उनकी सरकार के हाथों में है. उस बयान के कुछ प्रासंगिक अंश का यहां मैं हवाला देना चाहूंगा, क्योंकि पाकिस्तान के मौजूदा संकट के लिए यह मुनासिब है-
मुझे यह स्पष्ट कर लेने दीजिए कि जैसे मैं अपने देश की अखंडता में विश्वास रखता हूं, उसी तरह मैं पाकिस्तान को टूटते हुए भी नहीं देखना चाहता. पश्चिमी पाकिस्तान के सैन्य शासन द्वारा नरसंहार के बावजूद शेख मुजीबुर्रहमान अपने राज्य के लिए पूर्ण स्वायत्तता से अधिक कुछ भी नहीं मांग रहे हैं. पाकिस्तान से अलग होने का आखिरी फैसला उन्हें नापसंद है. ये उनके व्यक्तित्व की पहचान है. उनको स्वयं द्वारा खिंची गई रेखा की हद में रखना पश्चिमी पाकिस्तान के नागरिकों और सैनिक प्रशासन की ज़िम्मेदारी है. हमें आशा करनी चाहिए कि पश्चिमी पाकिस्तान में इतनी समझ होगी कि वह उन्हें इस हद से बाहर निकलने पर मजबूर नहीं करेगा.
लेकिन अफ़सोस, बाद की घटनाओं ने ज़ाहिर किया कि पाकिस्तान में ये समझ नहीं थी. उसने निक्सन और किसिंजर जैसे दुराग्रही दोस्तों की मदद से भारत को शांति का दुश्मन साबित करने की कोशिश की. बाकी बचे पाकिस्तान की अखंडता पहले की तरह ही भारत के बजाए खुद पाकिस्तान के हाथों में है. भारत ने खान अब्दुल वली खान या बलूच गांधी अब्दुस समद खान के बजाए खुद राष्ट्रपति भुट्टो पर अपना रुख स्पष्ट किया है. भुट्टो को भी उसी तरह के सवालों का सामना करना है कि क्या उनमें पाकिस्तान के अलग-अलग गिरोहों के लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की कद्र करने की समझ है? पाकिस्तान एक समरूप देश नहीं है और केवल इस्लाम के नाम पर उसे एक नहीं रखा जा सकता है. शेख मुजिबुर्रहमान को फांसी पर चढ़ाने के राष्ट्रपति याहिया खान का आदेश मानने से इंकार करके भुट्टो (जो उस वक़्त विदेश मंत्री थे) ने अपनी सियासी दृढ़ता और दूरदर्शिता का सबूत दिया था. मैं उम्मीद करता हूं कि वह न केवल बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, बल्कि खुद अपने प्रांत सिंध की स्वायत्तता की मांग पर वैसी ही दूरदर्शिता दिखाएंगे. बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में नेशनल आवामी पार्टी और जमीअतुल उलेमा-ए-पाकिस्तान का गठबंधन (जिनकी इन प्रांतीय एसेंबली में बहुमत है) को सत्ता सौंपने से इंकार करना शुभ संकेत नहीं है. वे भी याहिया खान की गलतियों को दुहरा रहे हैं.
ऐसे हालात में यदि जम्मू और कश्मीर के मुसलमान सच्चाई को स्वीकार करते हुए अंततः भारत के वफादार नागरिक के तौर पर रहने का मन बना लेते हैं, तो ऐसा कर वे न केवल अपनी प्रगति, विकास और कल्याण में योगदान देंगे, बल्कि पाकिस्तान में गड़बड़ी फ़ैलाने वाले तत्वों को कमज़ोर कर उसकी अखंडता को भी बचाने का काम करेंगे. ये तत्व अपने देश के नवनिर्माण और उपमहाद्वीप में शांति स्थापित करने, सद्भाव और सहयोग को बढ़ावा देने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों से अपनी जनता का ध्यान भटकाना चाहते हैं.
बहरहाल, भारत सरकार की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के क्षेत्र में और सेकुलरिज्म और लोकतंत्र के हमारे आदर्शों के प्रति एक बड़ी सेवा होगी, यदि वह साहस दिखाते हुए कश्मीर के निर्वासित नेताओं को घर वापस लौटने देती है और आने वाले चुनावों में एक समान अधिकार वाले नागरिक की हैसियत से अपनी सही भूमिका निभाने देती है. क्योंकि इस मुकाम पर कोई दूसरा रास्ता अदूरदर्शी और संकीर्ण मानसिकता का परिचायक होगा और खतरों से भरा होगा.
जैसा कि आपने अपने संपादकीय में कहा है कि नगा विद्रोहियों, जो भारत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं, को दिल्ली लाया गया और प्रधानमंत्री ने खुद उनसे बातचीत की और उस राज्य में अशांति के बावजूद वहां साफ़-सुथरे चुनाव कराए गए, जिसके बहुत अच्छे परिणाम आ रहे हैं. शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों के चुनाव से पहले घर वापसी में मुझे कोई संकट नहीं दिखाई दे रहा है. ऐसे में भारत अपना सर ऊंचा कर दुनिया को यह दिखा सकेगा कि जिन आदर्शों के लिए उसने बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली के लिए एक बड़ा खतरा मोल लेकर उनका समर्थन किया था, उन्हीं आदर्शों को उसने बेझिझक अपने देश में अपनाया.
एक आखिरी बिंदु, हालांकि यह जम्मू और कश्मीर में चुनाव से संबंधित नहीं है, लेकिन इस विवाद के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है और जो पाकिस्तान और कुछ बड़ी शक्तियों द्वारा पोषित है. ये बिंदु है सीजफायर लाइन (युद्ध विराम रेखा या नियंत्रण रेखा) की. इतने वर्षों बाद और इस रेखा के उस पार से पाकिस्तान के कम से कम तीन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हमलों के बाद और हालिया पाक-भारत युद्ध के बाद सीजफायर लाइन की कोई वास्तविकता और औचित्य नहीं है. यह ऐसा बिंदु है, जिसपर देश और सरकार एकमत हैं. कुछ पागल और हाशिए के लोगों को छोड़कर मुझे नहीं लगता है कि कोई ताक़त का इस्तेमाल कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को जम्मू और कश्मीर में मिलाना चाहता है. लेकिन एक आम राय यह है कि नियंत्रण रेखा और संयुक्त राष्ट्रसंघ के पर्यवेक्षक (जिनकी शांति कायम रखने में भूमिका शून्य है) अब बेकार हो चुके हैं. लिहाज़ा इस बिंदु पर भी एक राष्ट्रीय आम सहमति बन चुकी है कि तथाकथित नियंत्रण रेखा को युक्तिसंगत बना कर उसे दोबारा खींच कर एक स्पष्ट अंतर्राष्ट्रीय सीमा का रूप दे दिया जाए, जो भारत की सुरक्षा की गारंटी देगा और पाकिस्तान को यहां गड़बड़ी फैलाना मुश्किल हो जाएगा. अगर ऐसा होता है, तो संयुक्त राष्ट्र की इस क्षेत्र में उपस्थिति गैरज़रूरी और अंतर्राष्ट्रीय कानून के विरुद्ध हो जाएगी. मैं समझता हूं कि भारत के बाहर भी अब यह एहसास हो रहा है कि असली सीजफायर लाइन तर्कहीन थी और जल्दबाजी में खिंची गई थी. उसे खींचते समय वहां की भौगोलिक स्थिति, क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता और वहां के लोगों (खास तौर पर महाराजा और उनके प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला) की भावनाओं को ध्यान में नहीं रखा गया था.
यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर कुछ न कुछ आदान-प्रदान की नीति ज़रूरी होगी. हमें आशा करनी चाहिए कि राष्ट्रपति भुट्टो वास्तव में शांति चाहते हैं और भारत के साथ दोस्ताना संबंध रखना चाहते हैं, जो बेशक दोनों देशों के हित में है. ऐसा करने से अंतर्राष्ट्रीय साजिशें भी समाप्त हो जाएंगी, जिनकी वजह से अतीत में काफी गड़बड़ियां पैदा हुईं. मुझे विश्वास है कि यदि भुट्टो समय को पहचानते हुए, किसी के हाथों का खिलौना बने बगैर और ऐतिहासिक तथ्यों को कबूल करते हुए भारत के साथ स्थाई शांति और आपसी सहयोग की इच्छा करते हैं, तो भारतीय सरकार भी इस दिशा में पीछे नहीं हटेगी.