santoshbhartiya-sirदेश के गृहमंत्री कहते हैं कि कश्मीर के अलगाववादियों से सख्ती से निपटेंगे. वहीं गृह राज्यमंत्री कहते हैं कि अलगाववादियों के खिलाफ केस दर्ज करेंगे और उनके साथ आतंकवादियों की तरह व्यवहार करेंगे यानी जैसे आतंकवादियों पर गोली चलती है, वैसे ही अब अलगाववादियों पर गोली चलेगी. सरकार का अलगाववादियों से मतलब हुर्रियत नेताओं से है, लेकिन शायद अब इसका मतलब उन सभी नौजवानों से है, जो सड़कों पर हैं, पत्थर चला रहे हैं, हड़ताल कर रहे हैं या सरकार का बायकॉट या असहयोग कर रहे हैं, चाहे वो कश्मीर की सरकार हो या फिर केंद्र की.

किसी भी सरकार के गृह राज्यमंत्री से ऐसे वक्तव्य की अपेक्षा करना बहुत दुःखद है. सरकार में रहने वाले व्यक्ति को बहुत संयमित और सोचने-समझने वाला होना चाहिए. साथ ही किसी भी परिस्थिति को संभालने में माहिर होना चाहिए अन्यथा ऐसे दिमाग के लोग सीमा पर होने वाली सामान्य गोलीबारी को बहुत जल्द युद्ध में बदल सकते हैं. उनकी नजर में जान की कोई कीमत नहीं होती और अपने तुफैल में या परिस्थिति का गलत आकलन करने या स्वयं उस परिस्थिति का सामना न करने या उस परिस्थिति को संभालने में अयोग्य होने की वजह से लोगों को मरवाने का फैसला ले सकते हैं. मैं ये बातें बहुत जिम्मेदारी से लिख रहा हूं और यहां मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से शिकायत है. आपकी सरकार के लोग, आपकी पार्टी के लोग आलोचना को देशद्रोह मान लेते हैं. आपकी पार्टी के लोग शिकायत को अलगाववादी मान लेते हैं और उस पर तेजी से कार्रवाई करने की बात करते हैं. इसमें ये कहीं नहीं झलकता कि आप भारत की उस सरकार के प्रतिनिधि हैं, जहां विभिन्न धर्मों, विभिन्न जातियों,  विभिन्न मतों और विभिन्न विचारधाराओं के लोग रहते हैं. जैसे, पूर्व गृहमंत्री नक्सलवादियों का मुकाबला हेलिकॉप्टर व सेना से करना चाहते थे, आज आप कश्मीर में अपने ही देश के रहने वालों की शिकायत सुनने की जगह उन्हें अलगाववादी बना आतंकवादियों सा व्यवहार करने का बयान देते हैं. यह समझ की बलिहारी है. इसका मतलब भारत की सरकार योग्य हाथों में नहीं है और प्रधानमंत्री का अपने मंत्रिमंडल के लोगों की समझ और दिमाग पर कोई नियंत्रण नहीं है.

कश्मीर में अलगाववादी कौन हैं? कश्मीर के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र है, जहां असंतोष ही असंतोष है, जहां न फैक्ट्रियां हैं, न उत्पादन के साधन हैं, न लोगों के पास रोजगार है. पाकिस्तान में लोगों का कोई भविष्य नहीं है और इसकी लड़ाई पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर चल रही है. हमारे देश में उन संघर्षों का, उन लड़ाइयों का कोई ब्यौरा जानबूझ कर लोगों के पास नहीं पहुंचने दिया जाता. लेकिन कश्मीर के लोग जानते हैं क्योंकि उनका पाकिस्तान के लोगों से पड़ोसी राज्य होने के नाते काफी संपर्क रहता है. कोई भी असफल राष्ट्र के साथ जाना नहीं चाहता है. हो सकता है कि वे लोग स्वतंत्र राष्ट्र की मांग करें. लेकिन उन्हें न मीडिया समझाता है, न राजनीतिक दल समझाते हैं कि आप अकेले रहकर स्विट्जरलैंड की तरह स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते हैं तो आप जीएंगे कैसे? आपके पास साधन कहां से आएंगे? आपके पास तो कुछ है नहीं. 1953 से पहले जब शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री थे, उस समय भी ये बात आयी थी. शेख अब्दुल्ला यह बात  समझ गये थे कि कश्मीर का हित स्वतंत्र रहने में नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से अपनी सत्ता चलाने में है.

इसकी जगह आप ये विश्‍लेषण नहीं करते कि कश्मीर के लोगों ने पत्थर क्यों उठा लिये और पत्थर उन हाथों ने उठाये हैं, जो अपने मोहल्ले के स्वयं नेता हो गए हैं. वे लोग अपने मोहल्ले में इस समय हुक्म जारी करते हैं. विरोध स्वरूप रात में घरों में लाइटें नहीं जलती हैं, दिन में लोग बाहर नहीं निकलते हैं, दुकानदार स्वेच्छा से अपनी दुकानें बंद किये हुए हैं. अभी अन्ना हजारे के एक साथी विनायक पाटील कश्मीर से लौटे हैं. वे बता रहे थे कि उन्होंने कश्मीर में एक टैक्सी चालक से पूछा कि कश्मीर में ये दुकानें कब खुलेंगी. पत्थर कब बंद होंगे. तो टैक्सी ड्राइवर कहता है, आजादी मिलने तक. उसे ये सपना दिखाया गया है कि अगर हम हिंदुस्तान से आजाद हो जाएंगे तो हमारे घर में दूध-घी की नदियां बह जाएंगी. ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजों के जमाने में आजादी के लिए लड़ने वाले हिंदुस्तानियों को तत्कालीन नेताओं ने भरोसा दिलाया था.

कश्मीर के नौजवानों में 1953 में हुए शेख अब्दुल्ला-जवाहरलाल नेहरू के बीच समझौते का पालन न करने को लेकर गुस्सा है. साथ ही कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता देने के सवाल से मुकर जाने की टीस वहां जीवन के आखिरी किनारे पर खड़ी पीढ़ी के मन में है, वहीं नौजवानों के मन में इस बात की टीस है कि अब तक चार संसदीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर आए, यहां घूमे, लोगों से वादे किये, कश्मीर के लोगों में आशाएं जगाईं, लेकिन दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने ये भी नहीं बताया कि उन्होंने सरकार को क्या सूचनाएं दीं या अपनी क्या सिफारिशें दीं. ये प्रतिनिधिमंडल दोबारा लौट कर कश्मीर गया ही नहीं. इसलिए इस बार जब सीताराम येचुरी से पत्रकारों ने सवाल किया कि आप तो 2010 के प्रतिनिधिमंडल में भी आये थे, उसके बाद कहां गायब हो गये? न आपके वादे दिखाई दिये, न आप दिखे. सीताराम येचुरी शर्मिंदगी से बोले, हां, अविश्‍वास का संकट तो है. यह अविश्‍वास किसने पैदा किया? यह अविश्‍वास भारत सरकार द्वारा भेजे गए पिछले चार प्रतिनिधिमंडलों ने कश्मीरियों के मन में पैदा किया है.

राम जेठमलानी, केसी पंत, इंटरलोकेटर के नाम से राधा कुमार, दिलीप पडगांवकर और पूर्व सूचना आयुक्त अंसारी ने साल भर कश्मीर में जगह-जगह घूमकर लोगों से बात की, उनकी इच्छाएं जानी, सरकार से बात की और एक रिपोर्ट दी. लेकिन क्या रिपोर्ट दी किसी को नहीं पता.

कश्मीरियों के मन में भारतीय संसद के प्रतिनिधिमंडल के प्रति अगर गुस्सा है, तो इसमें नाजायज क्या है? कश्मीर के लोगों में अगर भारत के प्रति गुस्सा है कि उनसे जितने वादेे किये गये उनपर कोई अमल नहीं हुआ तो इसमें नाजायज क्या है? अपनी मांग उठाना क्या देशद्रोह है, लेकिन ये बातें सरकार में बैठे लोगों को समझ में नहीं आती है, जैसे पिछली सरकार में बैठे लोगों को समझ नहीं आई, वैसे इस सरकार में बैठे लोगों को समझ नहीं आई.

पिछली सरकार में गृह मंत्री कहते थे कि तोप-बंदूकों से, हेलिकॉप्टरों से नक्सलियों को समाप्त कर देंगे. आज मौजूदा गृह राज्यमंत्री कहते हैं कि हम अलगाववादियों से आतंकवादियों की तरह व्यवहार करेंगे.

कमाल है, इसलिए लगता है कि देश चलाना आसान नहीं है. देश चलाना एक मुश्किल काम है. देश चलाने का मलतब देश में रहने वाले लोगों का न केवल विश्‍वास जीतना है बल्कि उनके मन में आगे बढ़ने के सपने भी गढ़ने हैं. क्यों ये सरकार ये सब नहीं कर पा रही है? शायद परिस्थितियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इंतजार कर रही हैं कि वो खुद यहां आएं और तीन-चार दिन कश्मीर में रहें, सभी वर्गों के लोगों से मिलें और फिर आगे बढ़ने के नए फैसले लें, जिससे कश्मीर के लोगों में विश्‍वास पैदा हो सके.

कश्मीर हमारे लिये सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं है. कश्मीर हमारे लिए सेक्युलरिज्म की मिसाल है. उसका प्रमाण है. अगर कश्मीर में बहुसंख्या में मुसलमान हैं और पाकिस्तान कहता है कि इसलिए कश्मीर उसके साथ मिल जाना चाहिए तो फिर भारत के गांव में रहने वाले सारे मुसलमानों को उस गांव से निकलने के लिए तैयार रहना चाहिए जहां वो अल्पसंख्या में हैं. क्योंकि फिर यही तर्क देश में हर जगह लागू होगा. इस देश का मुसलमान यह समझता है. पाकिस्तान की इस मांग के परिणामस्वरूप देश में गांव-गांव में दंगे फैल सकते हैं और केंद्र सरकार के पास न इतनी पुलिस है, न इतनी सेना है कि वो हर गांव में मुसलमानों की रक्षा कर सके. राजनीतिक दल ये बात कश्मीर में लोगों को समझाने के लिए आगे क्यों नहीं आते? वो क्यों कश्मीर के लोगों के बीच हवा फैलने देते हैं कि पाकिस्तान में सब कुछ अच्छा है और पाकिस्तान में अगर कश्मीर मिल जाएगा तो कश्मीरियों की जिंदगी स्वर्ग से भी सुंदर हो जाएगी. पाक अधिकृत कश्मीर के हालात कश्मीर के लोगों को पता हैं, लेकिन कश्मीर के लोग पाकिस्तान का नाम भारत सरकार को चिढ़ाने के लिए लेते हैं. वहां झंडे भी भारत सरकार को चिढ़ाने के लिए लगाए जाते हैं, ताकि भारत सरकार ये समझे कि उसने जो वादे कश्मीर के लोगों के साथ किए हैं वो   जल्दी से जल्दी पूरा करें. संसदीय प्रतिनिधिमंडल के प्रति अविश्‍वास और इस बात का फैलना कि ये लोग धोखा देते हैं इसलिए हम उनसे बातचीत नहीं करेंगे, ये बहुत गंभीर बात है. भारत की संसद विश्‍वास का सर्वोच्च प्रतीक है. संसदीय प्रतिनिधिमंडल को भी जाने से पहले ये सोचना चाहिए था कि उनसे पहले गए प्रतिनिधिमंडलों ने कश्मीर के लोगों से क्या-क्या वादे किए हैं.

इसीलिए आज जो स्थिति पैदा हुई है, उसका समाधान करने के लिए प्रधानमंत्री को आगे आना चाहिए. कश्मीर समस्या देशवासियों के लिए वैसे ही गंभीर समस्या है, जैसे चीन या पाकिस्तान. चीन या पाकिस्तान से आप सेना से निपट सकते हैं, लेकिन अपने ही लोगों पर अगर आप सेना का इस्तेमाल करेंगे तो सेना कभी किसी और इस्तेमाल के लिए भी खड़ी हो जाएगी. ये खतरनाक खेल भारत सरकार के मंत्रियों को खेलना बंद करना चाहिए. देश बहुत बड़ी चीज है. आजादी बड़ी कुर्बानियों के बाद मिली है. इस आजादी को रखने या न रखने की सलाहियत या रखने या न रखने की क्षमता कश्मीर में मौजूदा नेतृत्व को दिखानी होगी. कश्मीर के लोग हमारे हैं, हम कश्मीर के हैं. हम जिस तरह बिहार, बंगाल उत्तर प्रदेश, ओड़ीशा व महाराष्ट्र के लोगों को अपना मानते हैं, ठीक उसी तरह हम कश्मीर के लोगों को भी अपना मानते हैं. जितनी आजादी इन्हें है, उतनी ही आजादी कश्मीर के लोगों को है. सबसे पहले भारत सरकार को विश्‍वास बहाली के ठोस कदम उठाने चाहिए, न कि गृह राज्यमंत्री जैसे बयान दिए जाएं. यह गैरजिम्मेदाराना, निहायत गैरजिम्मेदाराना बयान है. सरकार को और हो सके तो सरकार की जगह प्रधानमंत्री को फौरन सामने आकर कश्मीर की समस्या का हल अपने हाथ में लेना चाहिए.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here