कश्मीर घाटी अशांत है. बुरहान वानी के मारे जाने के बाद भड़की हिंसा में 50 लोग मारे गए, सैकड़ों लोग जख्मी हुए और जिस तरह तनातनी बढ़ी उससे घाटी में यह सवाल तेजी से उठा कि कश्मीर में बैलेट बड़ा है या पैलेट. श्रीनगर के दो सबसे बड़े मेडिकल इंस्टिट्यूट्स और हॉस्पिटल, शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (सौरा, श्रीनगर) और श्री महाराजा हरी सिंह हॉस्पिटल (श्रीनगर) इस वक़्त ज़ख्मियों से भरे पड़े हैं. इसके अलावा घाटी के जो दूसरे जिला अस्पताल हैं, वहां भी ज़ख्मियों का इलाज चल रहा है. ज़ख्मियों में कम उम्र के लड़के भी हैं, कुछ नौजवान भी हैं और कुछ लड़कियां भी हैं. ये सभी लोग पिछले कुछ दिनों के दरम्यान जख्मी हुए हैं. यानि यह सारा सिलसिला उस समय शुरू हुआ जब 8 जुलाई की शाम साढ़े आठ बजे सुरक्षा बलों ने श्रीनगर से 80 किलोमीटर दूर, दक्षिणी कश्मीर के कोकरनाग इलाके में कार्रवाई करके वहां मौजूद तीन आतंकवादियों को मार गिराया. सुरक्षा बलों की टीम श्रीनगर से मिली एक खास सूचना के आधार पर यह ऑपरेशन करने गई थी. मारे गए तीन आतंकियों में एक बुरहान वानी भी था. उसकी उम्र 22 साल थी. उसे पिछले दो साल में कश्मीर में बड़ी शोहरत मिली थी, क्योंकि वह कम्प्यूटर का जानकार था और फेसबुक पर सक्रिय था. जब उसके मारे जाने की ख़बर कश्मीर घाटी में फैली तो शहर और कस्बे के नौजवान सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने लगे और यह सिलसिला देर रात तक चलता रहा. दूसरे दिन उसके जनाज़े में दो लाख से ज्यादा लोग शरीक हुए.
दरअसल, मसला यह है कि उसके इलाके में बुरहान के साथ लोगों की हमदर्दी रही है. लोगों का कहना है कि बुरहान की उम्र उस वक़्त 15 साल थी जब उसके बड़े भाई खालिद को सुरक्षा बालों ने बहुत पीटा था. इस घटना से उसका दिल टूट गया था और उसने फैसला किया था कि वह मिलिटेंट बनेगा. बाद में उसका भाई खालिद मारा भी गया. बुरहान के माता पिता का कहना है कि उसे फर्जी मुडभेड़ में मारा गया. वह मिलिटेंट नहीं था. वह पोस्ट ग्रेजुएट लड़का था. फेसबुक पर बुरहान की फैन फॉलोइंग बहुत बड़ी थी. वह अगर कोई पोस्ट या वीडियो अपलोड करता था तो उसे देखते ही देखते सैकड़ों लाइक्स आ जाती थीं.
बहरहाल, पिछले 26 साल से कश्मीर में आतंकवाद जारी है. सुरक्षा बलों के मुताबिक यहां कई आतंकवादी मारे जा चुके हैं. लेकिन बुरहान पहला ऐसा मिलिटेंट है जिसके मरने पर इतना बवाल मचा. लोगों का कहना है कि वह दहशतगर्द था लेकिन असल में वह विक्टिम भी था और उसके साथ ज्यादती हुई थी. एक बच्चा जिसने अपनी आंखों के सामने एक बेगुनाह भाई को पिटते देखा था और गुस्से में आतंकी बन गया. बहरहाल, अभी तक सरकार ने पुष्टि की है कि 8 जुलाई से 27 जुलाई के बीच 50 लोग मारे जा चुके हैं. आधिकारिक तौर पर 2500 लेकिन अनधिकृत तौर पर 3500 लोग ज़ख्मी हैं, इनमें पुलिसकर्मी भी शामिल हैं.
लोग तीन तरीकों से ज़ख्मी हुए हैं. एक सुरक्षा बलों की फायरिंग से हुए, दूसरे पैलेट गन के इस्तेमाल से और तीसरे पत्थरबाजी से. पैलेट गन एक ऐसी गन होती है जिससे छोटे-छोटे छर्रे निकलते हैं, जिससे आदमी मरता नहीं है लेकिन जिस्म पर बहुत ज़्यादा चोट लगती है. डॉक्टरों का कहना है कि 170 ़ज़ख्मी ऐसे हैं जिनकी सर्जरी होगी. उनमें से बीस लोगों की आंखें प्रभावित हुई हैं. बीस में से दस ऐसे हैं जिनकी एकआंख खराब हो चुकी. इनमें से चार लोगों को एम्स ले जाया गया. सरकार ने इलाज का इंतज़ाम किया. उनमें एक लड़की भी है 14 साल की, जिसका नाम है इंशा मलिक, दक्षिण कश्मीर की है. उसकी मां से जब इस संवाददाता ने बात की तो उसका कहना था कि इंशा घर में बैठी थी जब बाहर प्रदर्शन हो रहे थे. सुरक्षा बल के पैलेट गन की फायरिंग से एक छर्रा आ उसे लग गया और उसकी दाईं आंख चली गई. राज्य सरकार ने एम्स से डॉक्टरों की एक टीम भी बुलाई है जो आंखों का इलाज करेगी. एम्स की टीम ने देखा कि ज़ख्मियों में से कुछ लोगों की हालात गंभीर है, जिनको वेंटिलेटर पर रखा गया है. इससे मरने वालों की संख्या बढ़ने का भी अंदेशा है. पत्थरबाजी में सुरक्षा बल के लोगों को भी गंभीर चोटें आईं. आधिकारिक तौर पर 15 सौ सुरक्षा कर्मी जख्मी हुए, जिनमें 244 सुरक्षाकर्मियों को गंभीर जख्म आए और अलग-अलग अस्पतालों में उनका भी इलाज चल रहा है.
यह प्रकरण बुरहान वानी के इन्काउंटर से शुरू हुआ, जिसने सबके सामने यह सवाल छोड़ा कि बुरहान को इतनी लोकप्रियता क्यों मिली? पहली बार ऐसा हुआ कि किसी मिलिटेंट के ज़नाज़े में दो लाख लोग शामिल हुए. इतना ही नहीं, दूसरे दिन घाटी के अलग अलग इलाकों में गायबाना नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ा गया, जिसमें तकरीबन पांच लाख लोगों ने बुरहान के जनाज़े की नमाज़ पढ़ी. माना जा रहा है कि मिलिटेंसी अब नई नस्ल में ट्रांसफर हो गई है. इस वक़्त सड़कों पर जो हंगामे कर रहे हैं, ज़ख़्मी हो रहे हैं, इनकी उम्र भी बीस साल और तीस साल के बीच है. समीक्षकों का कहना है कि यह हिंसा की जो लहर है यह नई नस्ल में ट्रांसफर हो गई है. सवाल है कि ये सब क्यों हुआ? क्या वजह है कि पिछले 26 साल से (1989 में कश्मीर में मिलिटेंसी शुरू हुई थी) मिलिटेंसी को ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. बुरहान के मरने के बाद जो स्थिति पैदा हुई, उससे यह साबित हो गया कि मिलिटेंसी को पूरी तरह समाप्त करने में सुरक्षा बल नाकाम हैं. इसलिए अब यह कहा जा रहा है कि सरकार को राजनीतिक पहल करनी चाहिए. लेकिन समस्या यह है कि केंद्र सरकार उस मूड में नज़र नहीं आ रही है. इसकी साफ़ वजह है कि मोदी सरकार ने पूरे मुल्क में एक खास एजेंडा लेकर ही वोट हासिल किया है. वह कश्मीर के लिए हिंदुस्तान की अपनी जनता को नाराज़ नहीं कर सकते. मिसाल के तौर पर इनका एक हार्ड लाइन स्टैंड है. इनके चुनाव घोषणा पत्र में लिखा था कि कश्मीर में आर्टिकल 370 भी ख़त्म कर देंगे, राम मंदिर बनाएंगे, यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करेंगे. ऐसे में इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि मोदी सरकार कोई पहल करेगी. लेकिन पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम का स्टेटमेंट आया है. उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोगों को कश्मीर को लेकर बहुत गलतफहमी है. वे कश्मीर के हालात को समझने में गलती कर रहे हैं. उनका कहना था कि आज़ादी का मतलब यह नहीं है कि कश्मीर के लोग भारत से कट जाना चाहते हैं या पाकिस्तान से जुड़ जाना चाहते हैं. उनका कहना था कि दरअसल कश्मीर के लोग अपनी शिनाख्त चाहते हैं, अपनी पहचान चाहते हैं. वे वैसी स्थिति को बहाल करना चाहते हैं जिस स्थिति में कश्मीर का भारत में विलय हुआ था. 1964-1965 तक कश्मीर का अपना एक प्राइम मिनिस्टर हुआ करता था, यहां गवर्नर नहीं बल्कि सदर होता था, जिसे सदर-ए-रियासत बोलते थे. डॉक्टर कर्ण सिंह कश्मीर के सदर-ए-रियासत थे. उस समय राज्य को स्वायतत्ता थी. पिछले 30-40 साल में जम्मू कश्मीर में केंद्र सरकार के तीन सौ से साढ़े तीन सौ कानून लागू हैं. इसका मतलब यह है कि पहले जो स्वायतत्ता हासिल थी वह तकरीबन छिन चुकी है. चिदम्बरम का यही कहना था कि ये लोग अपनी पहचान की बहाली चाहते हैं या ये उस स्थिति पर आना चाहते हैं जिसपर इन्होंने भारत के साथ विलय किया था. विलय दरअसल महाराजा हरी सिंह ने किया था, लेकिन वो शर्त आधारित विलय थी. शर्त में यह था कि भारत के अधिकार में केवल रक्षा, विदेश निति और संचार रहेगा बाकी के जितने भी मामले हैं वह सब जम्मू और कश्मीर की सरकार के अधिकार में होंगे. लेकिन उस स्थिति को धीरे धीरे समाप्त किया गया. इसके नतीजे में अलगाव की भावना बढ़ गई है. लोगों को लग रहा है उनसे उनकी पहचान छीनी जा रही है. यह भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य है. यहां के लोगों को एक शंका है कि मुस्लिम मेजोरिटी कैरेक्टर को बदला जा रहा है. आबादी की संरचना को बदला जा रहा है. इसकी बहुत सारी मिसालें देखने को मिल रही हैं. जबसे पीडीपी और भाजपा की सरकार बनी है उसके बाद कुछ ऐसे क़दम उठाए गए हैं जिनकी वजह से यह आशंका बढ़ गई है. मिसाल के तौर पर इन्होंने कहा कि कश्मीरी पंडितों को यहां वापस बसाने के लिए अलग सिटीज बसाएंगे. कश्मीरी पंडितों को वापस आने पर कश्मीरियों को कोई एतराज़ नहीं है, क्योंकि यह रियासत जितनी कश्मीरी पंडितों की है, उतनी ही मुसलमानों की है. लेकिन समस्या यह कि कश्मीरी अवाम को एक अलग शहर बसाना संदेहास्पद लग रहा है.
हाईकोर्ट के एक पूर्व जज जीडी शर्मा की एक किताब है कश्मीर के बारे में. इस किताब में शर्मा साहब ने कहा कि आर्टिकल 370 को ख़त्म करो. सुब्रमण्यम स्वामी ने भी अपने संबोधन में कहा कि कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बसाओ लेकिन उनकी सुरक्षा के लिए दस लाख पूर्व सैनिकों को भी वहां भेजो, उन्हें हथियार दे दो ताकि वो उनकी हिफाज़त करें. उस वक़्त इस बयान पर बड़ा शोर हुआ था. लोनों ने सोचा कि पंडित तो यहां के बाशिंदे हैं, लेकिन उनके साथ अगर दस लाख पूर्व सैनिकों को भी भेजा जा रहा है तो इसका मतलब है कि सरकार की की नीयत ठीक नहीं है. इस पर लोगों को ऐतराज़ था.
दूसरी बात यह कि हालिया दिनों में जब राज्य में गवर्नर रूल था, जब सरकार बनाने के मामले पर पीडीपी और भाजपा के बीच बातचीत चल रही थी, उस वक्त गवर्नर ने इंडस्ट्रियल पॅालिसी प्रस्तुत की थी. उस औद्योगिक नीति में उन्होंने एक प्रावधान रखा था कि यहां बाहर के जो उद्यमी हैं उन्हें औद्योगिक यूनिट स्थापित करने की अनुमति दी जाएगी. उस पर भी यहां बहुत शोर और हंगामा हुआ. लोगों ने कहा कि आर्टिकल 370 के तहत बाहर का कोई भी व्यक्ति यहां ज़मीन नहीं खरीद सकता और न यहां बिजनेस कर सकता है. अगर ऐसा किया गया तो एक तरह से यहां फ्लड गेट खुलेगा. बाहर के लाखों उद्योगपति कश्मीर आकर यहां अपनी यूनिट चालू करने लगेंगे. दरअसल, कश्मीर के लोगों को भय है कि उनकी पहचान समाप्त की जा रही है. इस मसले का राजनीतिक हल निकला जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. बल्कि यहां के जो बुद्धिजीवी हैं वो यह साफ़ तौर पर कहते हैं कि भारत में सिर्फ दो लोग पैदा हुए जो असल में इस मसले को अच्छी तरह समझ पाए थे और जो सच्चे दिल से इसका सियासी तौर पर हल करना चाहते थे. इनमें पहले महत्मा गांधी थे और उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी थे.
हालांकि करगिल युद्ध हुआ था, संसद पर हमला भी हुआ था, लेकिन उसके बावजूद वाजपेयी ने कई क़दम उठाए थे, जिससे कश्मीर में एक सच्चे अमन का वातावरण बना था. लोगों को लग रहा था कि वाजपेयी इस समस्या का समाधान निकालने के लिए गंभीर हैं. हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी ने साफ शब्दों में कहा था कि सरहदों को बदला नहीं जा सकता है. यानि वह मौजूदा व्यवस्था में ही कोई हल निकालने की कोशिश कर रहे थे. इतेफाक से उस समय पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ शासनाध्यक्ष थे. वह एक निरंकुश व्यक्ति थे. किसी से उनको पूछना नहीं था. शायद वह भी उनको सपोर्ट कर रहे थे. लेकिन बाद में समस्या यह हुई कि पाकिस्तान में हालात ख़राब हुए. मुशर्रफ को हटा दिया गया और मामला खत्म हो गया.
यूपीए सरकार ने इसे जारी रखने की कोशिश की थी. राहुल गांधी को लांच करना था तो उन्हें लगा कि अगर हम कश्मीर पर कोई ढील देंगे तो देश में हमारे खिलाफ बीजेपी बवाल खड़ा कर देगी, तो डायलॉग रुक गया. उसके बाद से इस पर कोई पहल नहीं की गई. वर्ष 2010 में भी इसी तरह प्रदर्शन शुरू हुए थे, जैसे आज चल रहे हैं. हालांकि आज के प्रदर्शन की तीव्रता ज्यादा है. इसकी वजह है एक तो कम समय में ज्यादा लोग मारे गए हैं, दूसरे ढाई हज़ार लोगों का ज़ख़्मी होना. इसलिए आज की जो स्थिति है वह ज़्यादा खतरनाक है. लेकिन 2010 में भी 120 लोग मारे गए थे. दरअसल सीमा से लगे कुपवाड़ा से सेना ने तीन लोगों को उठाया था, फिर उनको मार दिया था और कहा था कि वे आतंकवादी थे. उस मामले को लेकर भी प्रदर्शन शुरू हुआ था और फिर बहुत सारे नौजवान मारे गए थे. मरने वालों में आठ साल के बच्चे भी शामिल थे. उस समय यूपीए की सरकार थी. उस समय सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल आया था. कई राजनेता आए थे. उस समय लग रहा था कि केंद्र सरकार गंभीर है. उन्हें इस बात का एहसास था कि लोग मारे गए हैं. वो यहां आए थे और उन्होंने बहुत कोशिश की थी यहां के लोगों को मानाने की. पी चिदंबरम भी खुद दो तीन बार यहां आए थे. लोगों का गुस्सा उस वक़्त ठंडा हो गया था. बल्कि भारत सरकार ने उस समय दिलीप पडगांवकर की अध्यक्षता में बुद्धिजीवियों की एक टीम बनाई थी, जिसमें राधा कुमारी थीं. आठ महीने तक यह टीम जम्मू और कश्मीर में रही और तमाम प्रतिनिधिमंडलों और समाज के हर तबके के लोगों से मिली. उसके बाद उन्होंने केंद्र सरकार को रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट में समिति ने कुछ सुझाव दिए थे कि क्या क्या किया जाना चाहिए. लेकिन उस रिपोर्ट पर अमल नहीं किया गया. वह रिपोर्ट अभी भी गृह मंत्रालय के किसी न किसी टेबुल पर धूल चाट रही होगी. कश्मीर के समीक्षक कहते हैं कि अगर इन वार्ताकारों की रिपोर्ट को पढ़ा गया होता तो शायद आज यह स्थिति नहीं होती. दूसरी बात यह है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहते एक बार कश्मीर आए थे एक कार्यक्रम में. उन्होंने यह घोषणा की थी कि कुछ समितियां बनाई जाएंगी जो यह पता लगाएंगी कि हालात क्यों खराब हो रहे हैं. उन समितियों में एक समिति थी, जिसका काम था कि केंद्र और राज्य के रिश्तों को ठीक करने के लिए रास्ता तलाशना. उस समय हामिद अंसारी (मौजूद उपराष्ट्रपति) की अध्यक्ष्ता में एक टीम बनी थी. इस टीम ने भी भारत सरकार को एक रिपोर्ट दी थी. उस रिपोर्ट पर भी कोई अमल नहीं हुआ.
समस्या यह है कि यहां के लीडर्स को भी निशाना बनाया जा रहा है. मिसाल के तौर पर 2010 के हालात के बाद जब शांति प्रक्रिया शुरू हुई थी तो कश्मीरी अलगाववादियों ने भारत सरकार को बहुत सहयोग दिया था. यहां तक की मीरवायेज उमर फारूक गुप्त रूप से दिल्ली गए थे. वह एक रात खान मार्केट गए थे जहां वे चिदंबरम से मिले थे. लेकिन समस्या यह हुई कि तीसरे दिन प्रवीण स्वामी ने दी हिन्दू में एक आर्टिकल लिखा, जिसमें उन्होंने उस कार का नंबर तक का ज़िक्र किया था, जिसमें बैठ कर मीर वायेज़ चिदंबरम से मिलने गए थे. यानि जब यह बात यहां फ़ैल गई तो मीर वायेज़ पर इलज़ाम लगा कि वह चोरी छिपे भारत सरकार से बातचीत कर रहे हैं. नतीजा यह हुआ कि मीर वायेज़ की इमेज ख़राब हो गई और मिलिटेंट्स ने उनके करीबी साथी फजलुल हक कुरैशी पर हमला किया. फजलुल हक कुरैशी कई महीनों तक कोमा में रहे.
बिल्कुल उसी तरह यासीन मालिक के साथ हुआ. यासीन मालिक अमेरिका गए थे. वहां वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से गुप्त रूप से मिले. लेकिन फिर इस चीज़ को भी लीक किया गया तो उनकी भी हालत बुरी हो गई. उसी तरह गिलानी के बेटे, जो पिछले दस साल से पाकिस्तान में थे, उसको ए.एस. दुल्लत की सिफारिश और मदद से वापस घर लाया गया तो उसकी वजह से भी गिलानी को लोगों ने कहना शुरू किया कि वे इनके साथ मिले हुए हैं. तुम्हारे बेटे को तो यहां ले आया गया, लेकिन जो बाकी लड़के सरहद के उस पार फंसे हुए हैं, उनको यहां नहीं आने दिया जा रहा है. यानि, लोग सोचते हैं कि भारत सरकार ने कश्मीरी लीडरों को बदनाम कर दिया. यह सिलसिला 1953 से शुरू हुआ था जब शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री रहते गिरफ्तार किया गया था. वह अपने परिवार के साथ छुट्टी मनाने गुलमर्ग गए थे. वहां एक डीएसपी साहब ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी और शेख अब्दुल्ला से कहा कि उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट है. लोगों को लगा कि प्रधानमंत्री को गिरफ्तार करने के लिए डीएसपी रैंक के अफसर को भेजना सरासर बेइज्जती थी. हालांकि कश्मीर में यह भी कहा जाता है कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने ही कश्मीर को प्लेट में रख कर उसे भारत सरकार को दे दिया था. शेख अब्दुल्ला खुद कहते थे कि पंडित जवाहरलाल उनके दोस्त हैं. उसके बाद शेख अब्दुल्ला को 11 साल तक जेल में रखा गया. उनकी जगह बख्शी गुलाम मोहम्मद को यहां का प्रधानमंत्री बनाया गया. बख्शी गुलाम मोहम्मद के बाद सादिक को लाया गया. उनके हाथों से यहां संविधान में संशोधन कराए गए, जिसकी वजह से आर्टिकल 370 कमज़ोर हो गया और जो ऑटोनोमी थी वह आहिस्ता-आहिस्ता छीन ली गई. यह पृष्ठभूमि लिखने की वजह यह है कि कश्मीरियों को आशंका है कि उनसे धीरे-धीरे सब छीना जा रहा है.
एक समस्या यह भी है कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खुद ही मिस इन्फॉर्म्ड है. उसे ज़मीनी हकीकत का पता नहीं. मिसाल के तौर पर कुछ चैनल कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने सौ करोड़ रुपये भेज कर यहां इतना बवाल मचा दिया है. लेकिन सवाल यह है कि अगर पाकिस्तान यही सौ करोड़ रुपये उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र में या किसी अन्य राज्य में भेजता तो क्या वहां भी इतना हंगामा हो जाता. नहीं, दरअसल कश्मीर में हंगामे की जमीन तैयार है. यह जमीन खुद भारत सरकार ने तैयार की है. लोगों को धोखे में रख कर, लोगों के अधिकार छीन कर. ज़ाहिर है, पाकिस्तान इस स्थिति का फायदा उठा रहा है. 23 जुलाई को कश्मीर मामले पर पाकिस्तानी संसद का जॉइंट सेशन शुरू हुआ. इस से पहले कैबिनेट मीटिंग हुई थी. उसके बाद उन्होंने काला दिवस भी मनाया था. उन्होंने अधिकारिक तौर पर बुरहान को शहीद का दर्जा दिया था. उसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में उन्होंने कश्मीर का मसला उठाया. दरअसल उन्होंने इसके अंतरराष्ट्रीयकरण की कोशिश की. ज़ाहिर है, पाकिस्तान स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है.
पाकिस्तान में हाफिज सईद है, जो एक दुनियाभर में जाना पहचाना आतंकवादी है. वह भी अपनी अहमियत जताने के लिए कश्मीर के साथ खुद को जोड़ रहा है. बल्कि उसने इस हद तक झूठ बोला कि वह बुरहान के सम्पर्क में था. खुद पाकिस्तान की हालत यह है कि वहां लोग मस्जिदों में विस्फोट करते हैं, इमामबाड़ों में विस्फोट करते हैं, ईदगाहों में विस्फोट करते हैं, सड़कों पर, बाजार में विस्फोट करते हैं. तो जो लोग अपनी मस्जिदों को नहीं देखते है, वह मंदिरों को क्या देखेंगे. कश्मीर पुलिस कह रही है कि बुरहान कभी पाकिस्तान नहीं गया था, बल्कि उसने औपचारिक रूप से कभी ट्रेनिंग भी नहीं ली. यह तो हीरो टाइप का मिलिटेंट था, जिसने मिलिटेंसी को ग्लैमराइज किया था. दिन भर फेसबुक पर रहता था. राज्यसभा सांसद मुज़फ्फर बेग ने संसद में अपने भाषण में कहा भी कि बुरहान कोई ओसामा बिन लादेन नहीं था, उसको जिंदा भी पकड़ा जा सकता था. उसे पकड़ा क्यों नहीं गया. उसके सिर पर दस लाख रुपये का इनाम भी किसी की समझ में नहीं आया.
अभी जो हालत हैं, इसको बहुत सारे सियासतदां हवा भी देते हैं. मिसाल के तौर पर कुछ लोगों को शक है कि अगर 20 से 25 दिन तक यह स्थिति बनी रही तो गवर्नर रूल आ जाएगा और उसके बाद मध्यावधि चुनाव होंगे. जब दुबारा चुनाव होंगे तो फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस सत्ता में आ जाएगी, क्योंकि पीडीपी की हालत ख़राब हो गई है. पीडीपी का मजबूत गढ़ साउथ कश्मीर था, वहां इतने लोग मारे गए, इतनी तबाही हुई. ज़ाहिर है दक्षिण कश्मीर के लोग अब पीडीपी को वोट नहीं देंगे. तो कयास लगाए जा रहे हैं कि अब तो उमर अब्दुल्ला की सरकार बनेगी. अब नेशनल कॉन्फ्रेंस वाले भी सक्रिय हो गए हैं. वह भी अपनी तरफ से चाहते हैं कि प्रदर्शन को और लम्बा खींच दें, जितनी तबाही हो जाए. कुल मिला कर देखें तो कनफ्लिक्ट जोन में कुछ खास लोगों का खास इंटरेस्ट होता है इसमें. आमलोग तो बस कच्चा माल होते हैं, जो इस्तेमाल होने के लिए ही पैदा होते हैं. अब देखिए कि मणिपुर में भी अफस्पा (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट) लागू है, लेकिन वहां की कोई बात नहीं करता. क्योंकि वहां की ख़बरें नहीं आतीं, वहां कोई सपोर्ट नहीं है. पंजाब में मिलिटेंसी को समाप्त किया गया. लेकिन कश्मीर में ऐसा हो नहीं सकता, उसकी वजह है इसके पीछे लगा हुआ पाकिस्तान, जो इसे भुनाने की हर पल कोशिश करता है. पचास लोग मरे तो पूरी दुनिया में कोहराम मच गया. अमेरिका और चीन के बयान आ चुके. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने दो बयान दिए, ईरान के संसद में इस मसले को उठाया गया, इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स ने इस पर स्टेटमेंट दिया, इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स वाच ने कहा कि जांच होनी चाहिए कि पैलेट गन क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है. यानि आप कश्मीर को मणिपुर के साथ लिंक नहीं कर सकते.
कश्मीर के लोग मानते हैं कि भाजपा का तो एजेंडा है कि आर्टिकल 370 खत्म कर दिया जाए. कश्मीर में शांति कैसे आएगी, जब आर्टिकल 370 ख़त्म करने की बात होगी. कश्मीरी चाहते हैं कि पुराना वाला तंत्र पुनः स्थापित हो जो 1953 में लागू था. ये बातें यहां के बुद्धिजीवियों की है. एक संपादक हैं, कश्मीर में एक अखबार चलाते हैं, बहुत ही सीनियर जर्नलिस्ट हैं. वह कहते हैं कि भारत सरकार के लिए यही मौक़ा है कि अगर वह कोई सियासी पहल करती है, नरमी का बर्ताव करती है तो हालात सुधर सकते है. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के तीन बड़े लीडर हैं, सैयद अली शाह गिलानी, मीर वायेज उमर फारूक और यासीन मालिक. उन तीनों लीडरों को महीनों से नजरबंद रखा गया है. उनके फोन नहीं चल रहे हैं, उनके पास इन्टरनेट सुविधा नहीं है. ज़ाहिर है, उनके यहां सैकड़ों कार्यकर्ता हैं, वो तो हंगामे करेंगे ही. दबाने की जितनी कोशिश होगी, वह उतना ही उभर कर सामने आएगा. यह सब कुछ केवल पाकिस्तान का किया धरा नहीं है. भारत सरकार भी पाकिस्तान के लिए जमीन तैयार करती है.
देश ऐसे भी लोग हैं, जिनको ज़मीनी हकीक़त पता है. वजाहत हबीबुल्ला के हालिया बयान का लोग हवाला देते हैं कि कश्मीरियों को मजबूर किया गया. यासीन मालिक ने तो हथियार डाल दिया था. जेकेएलएफ पहले मिलिटेंट ऑर्गनाइजेशन था. यासीन मालिक उसके चीफ थे. फिर कुलदीप नय्यर, अरुंधती राय, गौतम नौलखा, राम जेठमलानी और वजाहत हबीबुल्ला जैसे बहुत सारे लोग उससे मिलते रहे. यह विश्वास दिलाया कि हमने भारत सरकार से बात की है, आप हथियार डाल दो, मिलिटेंट आर्गेनाईजेशन को पॅालिटिकल आर्गेनाईजेशन में बदलो. यासीन मालिक ने ऐसा ही किया. उसने दोबारा बंदूक नहीं उठाई. लोग पूछते हैं कि उसके बाद केंद्र सरकार ने क्या किया? सरेंडर करने के बाद भी उसके कई लोग मार दिए गए. एक लीडर हाथ में आ गया था, उसे भी खो दिया. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह 23 जुलाई को श्रीनगर आए थे तो उन्होंने यहां बहुत सारे लोगों से बात की. व्यापारियों को बुलाया गया था. वो आए नहीं उनसे मिलने. लेकिन उमर अब्दुल्ला अपनी पार्टी के दस नेताओं के साथ राजनाथ से मिले. उमर अब्दुल्ला ने उन्हें एक मेमोरेंडम दिया. वह मेमोरेंडम दूसरे दिन नेशनल कॉन्फ्रेंस ने स्थानीय अखबारों में प्रकाशित भी करवाया. उसमें मांग की गई थी, अफस्पा हटाओ, सुरक्षा बलों को नियंत्रण में रखो, राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करो, हुर्रियत नेताओं को रिहा करो, उनके साथ बातचीत करो और राजनीतिक कैदियों को रिहा करो. उसी तरह सरताज मदनी के नेतृत्व में पीडीपी का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला था. सरताज मदनी ने भी राजनाथ सिंह को कहा कि ये मसला सियासी है, इसको सियासी तौर पर हल किया जाए. पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के चेयरमैन हाकिम यासीन ने भी गृहमंत्री से कहा कि कश्मीर का सियासी हल निकालना होगा. उसी तरह कम्युनिस्ट पार्टी के मोहम्मद युसूफ तारीगामी भी उनसे मिले थे. तारीगामी ने इस संवादाता को बताया कि उन्होंने कश्मीरियों के साथ बिना शर्त बातचीत शुरू करने की बात कही है. बाक़ी के जो लोग मिले थे, उन्होंने भी यही कहा कि पैलेट गन का इस्तेमाल बंद कर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. राजनाथ सिंह का यह महत्वपूर्ण दौरा था. अब देखना ये है कि वे क्या करते हैं.
लब्बोलुबाव यह है कि केंद्र सरकार कश्मीरी लीडरों के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू करना चाहिए. उमर अब्दुल्ला जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने भी केंद्र से आग्रह किया था कि अफस्पा हटाया जाए. कम से कम श्रीनगर से अफस्पा हट जाए. लेकिन केंद्र ने उस पर कोई जवाब ही नहीं दिया. महबूबा मुफ़्ती भी लगातार यह कह रही हैं कि अफस्पा हटाया जाए, गठबंधन में शामिल होने के बावजूद भाजपा की केंद्र में बैठी सरकार कश्मीर के चुने हुए मुख्यमंत्रियों की बात मानने के लिए तैयार नहीं है. मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने भी कहा था कि पाकिस्तान के साथ बात होनी चाहिए, हुर्रियत लीडर्स के साथ बात होनी चाहिए, इससे ही समाधान का रास्ता निकलेगा, लेकिन सारी बातें अनसुनी ही रह जा रही हैं.
कश्मीर में काफी दिनों से तनाव चल रहा है. बुरहान वानी के इन्काउंटर में मारे जाने के बाद इसकी शुरुआत हुई. बुरहानी वानी के बारे में यह सामने आया है कि वह हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर था. वह 22 या 23 साल का एक नौजवान लड़का था जो दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के त्राल का रहने वाला था. पिछले करीब 26 सालों से त्राल दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले का संवेदनशील इलाका है. आज जो मिलिटेंसी हम देख रहे हैं इसकी शुरुआत ज्यादातर इसी इलाके से हुई है. आज भी इस इलाके को मिलिटेंसी के लिहाज से संवेदनशील माना जाता है. बुरहान वानी पुलवामा, अनंतनाग और पहलगाम में ज्यादातर सक्रिय था. उसे अनंतनाग जिले से पकड़ा गया था या इसे ट्रेस किया गया था, जैसा कि बाद में सेना की तरफ से रिपोर्ट आई कि उसे कई दिनों से ट्रेस करने की कोशिश हो रही थी. साइबर सेल करीब डेढ़ महीने से सक्रिय था. बताया जा रहा है कि इसके पास 5 से 6 मोबाइल नंबर थे जिसको यह रोटेशन पर इस्तेमाल करता रहता था, जिसके जरिए यह अलग-अलग लोगों के संपर्क में था. बुरहानी वानी सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय था. बुरहानी वानी की उम्र बहुत कम थी और वह करीब 2010 से मिलिटेंसी में पूरी तरह से शामिल था. जैसा कहा जाता है कि पुलिस की बदसलूकी से आहत होकर उसने आतंकवाद का रास्ता चुना था. बुरहान वानी काफी मशहूर हुआ. उसने कभी नकाब का इस्तेमाल नहीं किया और खुलेआम उसने फेसबुक पर अपनी फोटो डाल दी. इस वजह से लोगों को वह बहुत बहादुर लगा. उसके दाएं बाएं ऑटोमेटिक हथियार भी देखे गए. कहा जाता है कि उसने आईएसआईएस की तरह क्लिप्स भी बनाईं. इन्हीं हरकतों की वजह से सरहद पार वालों ने उसे हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बना दिया था. भाई के मारे जाने के कारण भी बुरहान में काफी गुस्सा था. बुरहान वानी के इन्काउंटर पर कई सवाल खड़े होते हैं. निर्धारित मानकों के तहत बुरहान को सरेंडर करने का मौका नहीं दिया गया. पुलिस खुद कह रही है कि तीन मिनट में ही इन्काउंटर खत्म कर दिया गया था. सिर्फ तीन मिनट के अंदर बुरहान वानी और उसके दोनों साथियों को मार डाला गया. स्पष्ट है कि मुठभेड़ के लिए बुरहान की तरफ से कितनी तैयारी थी.
सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यह साफ हो जाए कि कश्मीर में क्या हो रहा है, कहां से हो रहा है और क्यों हो रहा है. बुरहान वानी की मौत के बाद जैसा कि तय था और जैसा कि पिछले 25 सालों से होता आ रहा है, यह तय था कि कश्मीर एक बार फिर जल उठेगा. लोग पिछली बातों को भूल जाते हैं और कश्मीर को ऐसी आफतों की तरफ जान-बूझकर ढकेल देते हैं. बुरहान वानी हिजबुल मुजाहिदीन का चेहरा बन चुका था. उसके साथ नौजवान थे और उसके साथ लोगों की सहानुभूति थी. इसलिए उसकी मौत के अगले ही दिन हर जगह पत्थरबाजी शुरू हो गई. पत्थरबाजी पर काबू पाने के लिए एक दो बार आंसू गैस का इस्तेमाल होता फिर उसके बाद सीधे गोलियां चलतीं. पैलेट गन का इस्तेमाल तो मौका मिलने पर होता है, नहीं तो आमतौर सुरक्षाबल गोली ही चलाते हैं. सरकार के रवैये पर एक सवाल यह भी है कि बुरहान के मारे जाने के तुरंत बाद कर्फ्यू नहीं लगा. इंटरनेट सेवाएं बंद नहीं की गईं. दो दिन के बाद कर्फ्यू लगा. तब तक दक्षिण कश्मीर में हिंसा फैल गई थी और वहां हालात बेकाबू हो गए थे. हालात पुलिस के नियंत्रण से बाहर चले गए थे क्योंकि दक्षिण कश्मीर के साथ-साथ हिंसक प्रदर्शन की इस लहर ने पूरे कश्मीर को अपनी चपेट में ले लिया था. बुरहान वानी का जिस तरह से इन्काउंटर किया गया उस पर बहुत से लोगों ने सवाल उठाए. कर्फ्यू लगने के बाद कश्मीर की मुख्य धारा की राजनीति से जुड़े नेता या हुर्रियत जिसका आम जनता पर दबादबा है, उन्होंने अनियंत्रित हड़ताल या सिविल नाफरमानी की घोषणा कर दी जो आज तक चल रही है. इस बार के हड़ताल में जबरदस्त हिंसा देखने को मिली. कश्मीर में पिछले 25 साल से हिंसा हो रही है. इस अवधि में यहां कई नेता ऐसे हैं जो नौजवान से बूढ़े हो गए, लेकिन हैरानी यह है कि इतने सालों में नीति नहीं बदली. आज भी कश्मीर को लेकर रवैया वैसा ही है जैसा 1990 के दशक में था. लाखों लोगों के मरने के बाद भी कोई सरकार, कोई राजनीतिज्ञ या कोई स्टेट्समैन ऐसा नहीं है जो ऐसे उपाय कर सके जिससे कश्मीर से हिंसा का माहौल खत्म हो जाए और कश्मीर के लोगों को थोड़ी शांति मिले. इससे कश्मीर के नौजवानों, बच्चों और बुजुर्गों को लगे कि उनके लिए किसी के दिल में दर्द है. उनकी मौतों को रोकने के लिए पहल की जा रही है, उनकी घुटन को कम करने के लिए पहल की जा रही है. लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है. नौजवान मारे जाते हैं, राजनेता आते हैं और सहानुभूति की दो-चार बातें कर वापस चले जाते हैं. यही कहानी बार-बार दोहराई जा रही है. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा. हर कोई जानता है कि कश्मीर एक विवादित और राजनीतिक मुद्दा है. कश्मीरियों को इससे मतलब है कि सरकार यह स्वीकार करे कि कश्मीर एक समस्या है और उनसे पूछा जाए कि इस समस्या का समाधान क्या है. सरकार यह कहकर कि कश्मीरी पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं यह कहकर उनसे बात नहीं कर रही है. लेकिन कश्मीरियों ने कभी नहीं कहा कि वह पाकिस्तान के साथ जाना चाह रहे हैं. अगर कुछ लोग ऐसा कह भी रहें तो सरकार को उसको नजदीक से देखना और समझना चाहिए कि ये कौन कह रहा है और क्यों कह रहा है. कश्मीर में कोई सौ दो सौ लोग नहीं रहते हैं, लाखों लोग रहते हैं, क्या सरकार ने इनसे पूछा है?
अगर कश्मीर के एक या दो प्रतिनिधियों ने पाकिस्तान का नाम ले लिया या पाकिस्तान कश्मीरियों से मजहबी नजदीकी की वजह से प्यार जताता है, तो उसका हव्वा खड़ा करके भारत की तरफ से ये कहा जाता है कि कश्मीरियों को छोड़ देंगे तो वो पाकिस्तान चले जाएंगे. कश्मीरियों को मालूम है कि पाकिस्तान कैसा देश है, उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान कितना विकसित है, कितना अच्छा है, कितना बुरा है, अमीर है गरीब है. कश्मीर में भी कुछ सोचने-समझने वाले लोग हैं जिनका दिमाग काम करता है. यह अंदाजा लगना ठीक नहीं है कि कश्मीरी पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं. कश्मीर की अपनी जमीन है, उसके पास संसाधन हैं, उन्हें पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं है. भारत सरकार की जिम्मेदारी है कि उन्हें कुछ करने दे, उन्हें उनके संसाधनों का इस्तेमाल करने दे. उन्हें वो छूट दे, जिसके सहारे वह जिंदा रहने की कोशिश करें.
हालिया हिंसा में कश्मीर में पैलेट गन का बुरा इस्तेमाल हुआ. किसी के पेट, किसी की छाती तो किसी के मुंह पर छर्रे लगे हुए हैं. एक भी मरीज ऐसा नहीं मिलेगा जिसकी टांग पर हमला हुआ हो. कई लोगों की आंखों की रोशनी चली गई. क्यों नहीं कश्मीर से अफ्सपा को हटा दिया जाता है. पत्थरबाजी करने वाले पकड़े जाते हैं, जेल में ठूंस दिए जाते हैं. क्या कोई सीआरपीएफ वाला भी कभी संस्पेंड हुआ? नहीं. इतने दिनों तक यहां ये सब होता रहा, जब विपक्ष के नेता उमर अब्दुल्ला कहते हैं कि डॉक्टर भेज दो तो दो चार डॉक्टर आ जाते हैं.
जब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को लगा कि हालात बेकाबू हो रहे हैं तो उन्होंने ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई. उमर अब्दुल्ला ने मीटिंग का बहिष्कार कर दिया. जब केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह आए तो कांग्रेस ने बॉयकॉट कर दिया. लेकिन संसद मेंगुलाब नबी आजाद ने लंबा चौड़ा भाषण दे डाला. जब कश्मीर की सिविल सोसायटी के लोग मंत्री के साथ बात कर रहे थे तब कांग्रेस के लोगों ने अपनी बात क्यों नहीं रखी? वही गुलाब नबी आजाद, जिनके वक्त यहां सौ से ज्यादा लोग मरे थे, जब वो पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाए हुए थे, वो कह रहे थे कि भाजपा को तजुर्बा नहीं है. गुलाम नबी आजाद को तर्जूबा है तो फिर उनकी कुर्सी क्यों चली गई थी.
कश्मीर में इस तरह का पॉलिटिकल ड्रामा खूब चलता है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियां हमारे साथ ऐसा कर रही हैं. यहां की क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी बातें खुलकर सामने नहीं रख पा रही हैं. राज्यसभा में कांग्रेस से गुलाम नबी आजाद और भाजपा से अरुण जेटली खूब जमकर बोले. कश्मीर पर बेहतर भाषणबाजी के लिए उन्हें दुनिया भर में खूब वाहवाही भी मिली. हर नेता को यह याद है कि कश्मीर में किस साल कितनी हिंसा हुई, कितने नौजवान मरे, कितनी मौतें हुईं, कितने दिन कर्फ्यू रहा, ये सभी आंकड़ेे सबकी उंगलियों पर हैं, लेकिन किसी ने भी कश्मीर मसले पर आज तक कोई पहल नहीं की. आंकड़ों को तो कोई भी याद रख सकता है, तारीखें तो यहां भी लोगों को ज़ुबानी याद हैं. कश्मीरियों को भी पता है कि किस राजनीतिक पार्टी के शासनकाल में यहा क्या हुआ? किस प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के कार्यकाल में कश्मीर में कैसे हालात रहे? अगर कोई कुशल राजनेता है तो वह कश्मीर के हित में कोई बेहतर कदम उठाए, कश्मीरियों को जोड़ने के लिए कोई पहल करे. इन बातों का कोई अर्थ नहीं है कि इन दो दशकों में यहां कितनी मौतें हुईं. ये भी भूल जाने की बात है कि यहां कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ, अब तक जितने लोग भी मरे, उन्हें भूल जाना चाहिए. राजनेता कश्मीरियों के हित में कोई रोडमैप लेकर आएं, यहां के लोगों के साथ संवाद कायम करें. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है. कांग्रेस पार्टी भाजपा की गलतियों को याद रखती है और भाजपा कांग्रेस की गलतियों को. नेशनल कान्फ्रेंस (एनसी), पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की घटनाओं को याद रखती है तो पीडीपी, एनसी की गलतियां रटती है. सभी राजनेता उंगलियों पर यह गिना देंगे कि किस पार्टी के शासनकाल में कितनी मौतें हुईं, लेकिन पहल करने के लिए कोई तैयार नहीं है. कुर्सी का मोह छोड़कर लोगों के साथ खड़ा होने के लिए कोई तैयार नहीं है.
नेशनल कॉन्फ्रेंस को कश्मीर की जनता ने तीन मौके दिए, लेकिन पार्टी ने कोई भी बेहतर काम नहीं किया. आज महबूबा कुर्सी से उतर जाएं, अब्दुल्ला साहब आ जाएं तो क्या फर्क पड़ने वाला है? दोनों कुर्सी से उतर जाएं, गवर्नर साहब कुर्सी पर आ जाएं, तब भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है. चेहरे बदल रहे हैं, पार्टियां बदल रही हैं, लेकिन नियम वही पुराने चल रहे हैं. कश्मीर के लोग बार-बार कह रहे हैं यह एक पॉलिटिकल इश्यू है, इससे इन्कार मत कीजिए. यह दुर्भाग्य ही है कि आज तक कश्मीर की तरक्की और विकास के मुद्दे पर राजनीतिक दल एकमत नहीं हुए. वे कभी राज्य के विशेष दर्जे को चुनौती देते हैं तो कभी आर्टिकल 370 हटाने की बात करते हैं, तोे कभी अलग फ्लैग पर भी सवाल उठाते रहते हैं. इससे माहौल सुधरने वाला नहीं है. कश्मीर के मसले पर मुफ्ती साहब और अटल बिहारी वाजपेयी ने गंभीर पहल की थी. लोगों को उम्मीद बंधी थी कि जल्द कश्मीर का कोई हल सामने आएगा. दरअसल कश्मीर की जनता वाजपेयी में नेतृत्व कौशल की क्षमता को खुले मन से स्वीकार करती थी. यहां के लोग मानते थे कि वाजपेयी कश्मीर को लेकर कभी भेदभावपूर्ण विचार नहीं रखते थे.
भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार चला रहीं महबूबा मुफ्ती भी सुरक्षा बलों के विशेष अधिकारी वापस लेने और पैलेट गन के इस्तेमाल को रोकने की बात लगातार कर रही हैं. हाल में राजनाथ सिंह के दौरे के वक्त भी उन्होंने समझाने की कोशिश की कि प्रयोग के तौर पर कुछ इलाकों से अफस्पा को हटाया जा सकता है. महबूबा ने राजनाथ सिंह से मुलाकात के दौरान यह मांग की कि पावर हाउसेज व पावर प्रोजेक्ट्स कश्मीर को लौटा दिए जाएं. उन्होंने राजनाथ सिंह से कहा कि आप कश्मीरियों को ये सिग्नल दे दो कि आप हमारे अपने हैं. आप उनके हमदर्द हैं. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ. समझौते के तहत पावर प्रोजेक्ट्स को भी नहीं लौटाया जा रहा है. सवाल यह भी उठता है कि क्या कभी केंद्र सरकार ने सेना से कहा कि किसी आतंकवादी को इन्काउंटर में मत मारो, उन्हें जिंदा पकड़ो. कश्मीर के लोगों को याद नहीं कि कभी मीडिया से कहा गया हो कि यहां की हिंसा को इतना बढ़ा-चढ़ा कर मत दिखाओ जिससे यहां का युवा भड़क जाए, बहक जाए. दरअसल हो ये रहा है कि आतंकवादियों को मार भी रहे हैं और मीडिया को भी छूट दे रहे हैं. सेना को भी छूट दे रहे हैं. इसके बाद कुछ लोगों को कश्मीरियों के जख्म पर नमक छ़िडकने की छूट भी दे रहे हैं.
अभी पता चला है कि कश्मीरी पंडित कश्मीर नहीं लौटना चाहते हैं. क्या इन बीस सालों में किसी कश्मीरी मुलाजिम या कश्मीर के किसी कर्मचारी को किसी ने एक थप्पड़ भी मारा है. कश्मीरी पंडित यहां सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं. उन्हें सुरक्षा मुहैया कराई जाती है. उन्हें आने-जाने के लिए गाड़ियां उपलब्ध कराई जाती हैं. कश्मीरी पंडितों को दर्जनों पैकेज दिए गए हैं. हिंदुस्तान के हर कोने में कश्मीरी पंडित इज्जत से बसा है. कश्मीरियों का कहना है कि धक्के हम लोग खाते हैं. हमलोग जो यहां परेशानियां झेल रहे हैं, वह किसी को नहीं दिख रहा है. हां, यह सच है कि कश्मीरी पंडितों की यहां पर जमीन है, मजे से उनको नौकरियां दी गईं. अब यहां के लोग देख रहे हैं कि जो उनके साथ कई वर्षों तक एक थाली में खाते रहे, आज कह रहे हैं कि वे कश्मीर नहीं लौटना चाहते हैं. क्या हम उन्हें आतंकवादी लग रहे है, जिनके डर से वे यहां नहीं लौटना चाहते हैं? उनके घरों की स्थानीय लोगों ने रखवाली की, पैसे देकर उनकी प्रॉपर्टी खरीदी. यहां किसी की प्रॉपर्टी हड़पी नहीं गई, न ही किसी ने नाजायज कब्जा किया और न ही उनके साथ कोई गुंडागर्दी की गई. आज सरकार उस प्रॉपर्टी को डिस्ट्रेस डील्स (मजबूरी या हालात से तंग आकर बेची गई संपत्ति) बता रही हैै. आज कोई भी कश्मीरी पंडित वापस आकर अपनी जमीन वापस ले सकता है. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट आज यहां किसी माइग्रेट प्रॉपर्टी का लेन-देन नहीं होने देते हैं. सरकार ने उन डील्स को खारिज कर दिया है. आज कश्मीरी पंडित वापस लौटकर आ रहे हैं और वे मुसलमानों से आज के हिसाब से पैसा मांगकर जमीन के कागजात देने की बात कर रहे हैं. तब अटॉर्नी दी थी, आज कागज देने की बात कर रहे हैं तो कह रहे हैं कि आज की डेट में हमें पैसे दे दो. लोग यहां आकर देख सकते हैं कि यहां कश्मीरी पंडितों को कोई नुकसान नहीं हुआ है. लेकिन अब वे जम्मू सचिवालय से चीख-चिल्ला रहे हैं कि वहां मुजाहिद हैं, हम वहां नहीं जाएंगे. क्या कल तक वे मुजाहिद नहीं थे? कश्मीर के लोग मानते हैं कि 90 के दशक में कुछ राजनीतिक पार्टियों व मिलिटेंट्स ने उनको निशाना बनाया, जो गलत था. लेकिन उसके बाद से आज तक किसी ने कश्मीरी पंडितों पर हाथ नहीं उठाया. जो लोग यहां हैं, वे बड़े आराम से यहां रह रहे हैं. तत्कालीन गवर्नर जगमोहन ने रातो रात कश्मीरी पंडितों को यहां से किस तरह बाहर निकलवाया, ये पूरी दुनिया जानती है.
जब-जब यहां यात्रा आई, कभी यात्रियों पर कोई हमला नहीं हुआ. 2008-2010 में जब वहां हिंसा का दौर जारी था, तब सरकार ने खुद अंदेशा जताया कि शायद अमरनाथ यात्रियों पर हमला हो. हर बार सरकार ने अंदेशा जताया, लेकिन कभी अमरनाथ यात्रियों पर हमला नहीं हुआ. सरकार ने हमेशा अमरनाथ यात्रियों को सुरक्षा दी, लेकिन कभी उन पर हमला नहीं हुआ. आज इतने खराब हालात में भी यात्रा चली, लेकिन कहीं कुछ भी नहीं हुआ. केंद्र सरकार हमेशा हमले की आशंका जताकर हाइप क्रिएट करती है, लेकिन उनपर कोई हमला नहीं होता है. इसके बदले, उनके यहां आने से हमारे बाजार में व्यापारिक गतिविधियां और बढ़ जाती हैं. वे धार्मिक यात्रा के लिए यहां आते हैं और दो-चार दिन बाद यहां से चले जाते हैं. यहां सबसे ज्यादा टूरिस्ट आते हैं. लेकिन इन बीस सालों में एक भी टूरिस्ट को न तो यहां लूटा गया और न ही उनपर हमला हुआ. क्या यहां से हर टूरिस्ट सुरक्षित वापस नहीं लौटा है? एक ने भी ऐसा नहीं कहा कि हिन्दू होने के कारण उसे वहां परेशान किया गया. लेकिन दिल्ली में इंटरनेशनल टूरिस्ट्स के साथ क्या हो रहा है? दिल्ली, मुंबई और न जाने कितने राज्यों से विदेशी टूरिस्ट्स के साथ दुष्कर्म की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं. वहीं, कश्मीर में दुनिया भर से टूरिस्ट्स आते हैं, वे अकेली आती हैं और हफ्तों यहां रहती हैं, लेकिन उनके साथ छेड़छाड़ व दुष्कर्म की एक भी घटनाएं सामने नहीं आईं. दिल्ली में होटल तो जानें दें, एम्बेसी में भी राजदूतों के साथ बदतमीजी की घटनाएं होती हैं. कुछ दिनों पहले इजराइल की किसी टूरिस्ट के साथ दुष्कर्म हुआ है, ये किसी को नहीं दिखता है. लेकिन कश्मीर जैसे टूरिस्ट स्टेट में ऐसा कोई अपराध नहीं है, जिससे टूरिस्ट नाराज हों. लेकिन टूरिस्ट सीजन में तमाम एयरलाइंस कश्मीर की रेट दोगुनी तिगुनी बढ़ा देते हैं. सरकार से हर साल यह पूछा गया कि इस सीजन में एयरलाइंस रेट क्यों बढ़ा देते हैं? सर्दियों के मौसम में दो या तीन हजार में टिकट मिलती हैं, जबकि इस सीजन में बीस हजार की टिकट मिलती हैं. मुफ्ती मुहम्मद बराबर एयरपोर्ट अथॉरिटी से इस बात के लिए लड़ते रहे. वे कहते रहे कि आप ऐसा कीजिए कि पूरे साल एक ही रेट में टिकट मिले, जैसा शिमला, हिमाचल या मसूरी के लिए होता है. आप यहां के रेट्स बढ़ाकर टूरिस्ट को लूटते हैं. कश्मीर के लोग उन टूरिस्ट्स को लेकर फिक्रमंद हैं कि टिकट के रेट बढ़ाकर उन्हें लूटा जा रहा है. पहली स्नो फॉल की खबर आते ही टेलीविजन पर हर जगह हिमाचल की बर्फबारी छा जाती है, लेकिन कश्मीर की कोई खबर नहीं आती. गुलमर्ग में स्पोट्र्स होने पर शायद ही कोई चैनल यहां की कवरेज देता है. हिमाचल में एक सेंटीमीटर बर्फ हो जाए, तो चैनल वहां की कवरेज इसलिए दिखाने में लग जाते हैं, ताकि टूरिस्ट हिमाचल जाएं, यहां न आएं. कश्मीरियों के साथ यह भेदभाव पहले से होता रहा है.
कश्मीर की जनता त्रिपक्षीय बातचीत चाहती है, क्योंकि आधा कश्मीर भारत में है तो आधा पाकिस्तान में. केंद्र सरकार को एक टेबल पर बैठकर बात करनी होगी और इसमें कश्मीरियों की राय बहुत जरूरी है. अगर यहां के बारे में फैसला हो रहा है, तो यहां के लोगों से पूछा जाना जरूरी है कि आप क्या चाहते हैं? कश्मीर के लोग खुलकर कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों ने भी हमें कुछ नहीं दिया है. उनको जो भी मिला दिल्ली से ही मिला. जब महबूबा विपक्ष में होती हैं, जब उमर साहब विपक्ष में आते हैं तो खूब बोलते हैं, लेकिन ये जैसे ही सत्ता पर आ जाते हैं, वैसे ही दिल्ली की बोली बोलने लगते हैं. कश्मीर की जनता हमेशा सांसत में ही रहती है, उसे अगर थोड़ी सी राहत मिलती है, तो हुर्रियत टाइट हो जाती है और अगर हुर्रियत से छूट मिलती है तो पुलिस वाले टाइट हो जाते हैं यानी यह एक तरह से दोतरफा युद्ध की स्थिति है. यानी अगर ये छूट दे रहा है तो वो सख्ती कर रहा है और ये छूट दे रहा है तो वो सख्ती कर रहा है. ये दोनों आपस में भिड़े हुए हैं, लेकिन बीच में आम आदमी पिस रहा है.
बुरहान वानी की मौत के अगले दिन नौ जुलाई की सुबह से ही घाटी में टेलीफोन सेवा ठप्प कर दी गई. क्या आज लोग टेलीफोन के बिना रह सकते हैं? बच्चे, रिश्तेदार, मरना-जीना, त्यौहार, कौन जिंदा है, किस इलाके में कौन मर गया, यहां के लोगों को कुछ पता नहीं है. यहां के लोग अपने रिश्तेदारों से, बाहर पढ़ रहे अपने बच्चों से बात नहीं कर सकते या उनके बच्चे व रिश्तेदार फोन कर उनसे हालचाल नहीं ले सकते. ऐसे हालत हैं यहां पर. सरकार हिंसा रोकने में नाकाम रही है. आतंकवादियों को, चाहे उनकी गलती रही हो या नहीं, मार दिया गया, लेकिन यहां के लोग तो रोज मर रहे हैं. यहां के लोग काफी सख्ती में रह रहे हैं, काफी मुश्किलों में जी रहे हैं. गिलानी साहब को तो घर में बंद कर रखा गया, यासिन मलिक नजरबंद हैं, मीर वाइज नजरबंद हैं, लेकिन मीडिया ये नहीं कहता कि डेढ़ करोड़ कश्मीरी भी तो नजरबंद हैं. मीडिया यह नहीं कहता कि डेढ़ करोड़ गरीब, जिनमें कितने दिहाड़ी मजदूर हैं, उनको भी नजरबंद कर रखा गया है. दिहाड़ी मजदूर और उनके परिवार ने शाम को अपने पेट में अन्न डाला या नहीं, इसकी चिंता किसे है? ये लोग कौन से टेरेरिस्ट हैं, कौन से मिलिटेंट हैं? इनको तो पता भी नहीं है कि हिंदुस्तान क्या है, पाकिस्तान क्या है? ये लोग कितनी सजा झेल रहे हैं पिछले पच्चीस सालों से. इन दिनों कम से कम एक हजार शादियां कैंसिल हुईं. हुईं भी तो बड़ी सादगी से. मतलब जो बीस-पच्चीस साल की लड़की या तीस साल के लड़के की शादी होनी थी, उनके सपने, उनकी भावनाएं सब कुछ पर पानी फिर गया. जब यहां के हालात ठीक हो जाएंगे, तब क्या वेे नई शादी करेंगे? ये जो ख्वाब टूटते हैं, यही लोग मिलिटेंट बनते हैं. ये जब ख्वाब टूटते हैं, तो यही आक्रोश जमा हो जाता है, जो वक्त आने पर फूटता है. चाहे वो मर्द हो या औरत, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा. तभी हर कश्मीरी की जुबान से गुस्से वाली बात निकलती है. हर कश्मीरी मिलिटेंट नहीं है, लेकिन हर कश्मीरी यह सख्ती देखते-देखते, बर्दाश्त करते-करते पक गया है.
पिछले दिनों रविवार को यहां कॉमन इंट्रेंस टेस्ट, नीट था. छात्रों के लिए स्थानीय प्रशासन ने गाड़ियां मुहैया करा दीं. पांच बजे सुबह बच्चे जमा हो गए और सरकार ने अलग-अलग सेंटर्स पर ले जाकर उनके करियर का सबसे महत्वूपर्ण एक्जाम दिला दिया. एक्जाम बेहतर तरीके से हो भी गया. लेकिन आजकल कौन ऐसा बच्चा है जो इंटरनेट से पढ़ाई नहीं करता है. इंटरनेट फ्री है, एक्सेसबल है, मोबाइल है. एक बच्चा दो हजार रुपये की किताब न लाकर बीस रुपए का नेट पैक डालकर पढ़ाई कर सकता है. इतने दिनों से नेट बंद पड़ा है और दुनिया को दिखाने के लिए बच्चों को परीक्षा केंद्र पर भेज दिया गया. क्या लिखेंगे बच्चे वहां पर? उसने तो नेट खोला ही नहीं है इतने दिनों से, तो वो क्या लिखेगा? बच्चों का एडमिशन कार्ड डाउनलोड करके दे दिया गया, आने-जाने के लिए गाड़ी दे दी, सेंटर पर पहुंचा दिया, प्रशासन की ड्यूटी खत्म हो गई. दुनिया को सरकार ने दिखा दिया कि वे लोग बहुत केयरिंग हैं. लेकिन ये कहीं पर बात नहीं आई कि उस बच्चे ने तो सोलह-सत्रह दिनों से नेट ही नहीं खोला तो ये लिखेगा क्या? एक मोबाइल ऐसे बच्चों के लिए लाइफलाइन है.
हर पॉलिटिकल पार्टी, हर चैनल से यही कहा जाता है कि कश्मीर के युवाओं की भावनाओं को समझिए, उनको एड्रेस करिए. उनको समझने की कोशिश करिए. कश्मीर के लोग मानते हैं कि ये रातो रात नहीं होगा, इसमें टाइम लगेगा. इसके लिए केंद्र सरकार को विश्वास बहाल करने के जितने प्रयास करने थे, वे किए जाने चाहिए थे. कश्मीरी युवकों के साथ जुड़कर, पॉलिसीज के साथ कनेक्ट होकर, आर्थिक स्थिति को बेहतर करसरकार कश्मीरियों की भावनाएं जीत सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. 1988 में जो लोग मिलिटेंट्स थे, वही लोग आज हुर्रियत के लीडर्स हैं, उन्होंने अपनी हताशा को खत्म करने के लिए मफ के नाम से चुनाव लड़ा था. मफ यानी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट, एमयूएफ. खबर थी कि पार्टी के सभी उम्मीदवार जीत रहे हैं, मिठाइयां भी बंट गईं. तब शाम को दूरदर्शन पर आने वाली खबर में सब को हारा हुआ बता दिया गया. 1988 में हुर्रियत हार गया और 1989 में कश्मीर में मिलिटेन्सी शुरू हो गई. सिर्फ और सिर्फ यह हुर्रियत से प्रेरित था और सरकार से बदला था जो आजतक चल रहा है. चुनाव में घपला किया गया. अगर यह नहीं होता तो वही नेता राजनीति की मुख्य धारा में होते. जिनसे आज चुनाव लड़ने की मिन्नतें की जा रही हैं. जिस तरह से आज शर्मिला इरोम ने मणिपुर में कहा है कि अफ्सपा नहीं हट सकता है, अब मैं अपनी भूख हड़ताल खत्म कर चुनाव लड़ूंगी और राजनीति की मुख्य धारा में आकर लड़ूंगी. यही बात हुर्रियत के नेताओं ने तब कही थी. उन्होंने कहा था कि हम लोग राजनीति की मुख्य धारा में आकर अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए चुनाव लड़ सकते हैं. तब उनके साथ क्या किया गया था, इतिहास गवाह है. आज उन्हीं हुर्रियत के नेताओं के हाथ में कश्मीर की लगाम है.