एक दोहा है कबीर दास की उल्टी बानी, बरसे कंबल भीगे पानी. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में यही हो रहा है. कुलपति साहब के फैसले भी अजीबोगरीब हैं. जहां एक ओर कोर्ट से बरी व्यक्ति को पुनः विश्वविद्यालय में ज्वाइन होने नहीं दिया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ कोर्ट से सजायाफ्ता व्यक्ति की नियुक्ति करने में उन्हें थोड़ी भी झिझक नहीं हो रही है. ऐसा लगता है कि विश्वविख्यात बनारस हिंदू विश्वविद्यालय अब घपलेबाजी का अड्डा बन गया है. ऐसी कई खबरें विश्वविद्यालय से आ रही हैं जिससे यह लगता है कि सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन नियम कानून को ताक पर रखकर फैसले ले रहा है. बीएचयू में घपलेबाजी की खबरें तब आ रही हैं जब पूरा विश्वविद्यालय भारत रत्न मदन मोहन मालवीय की कर्मभूमि का शताब्दी वर्ष मना रहा है. इस अंक में हम दो ऐसी खबरें पेश कर रहे हैं, जिनसे यह साफ लगता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास पर कालिख पोतने में जुटा है. ये दोनों विषय विश्वविद्यालय प्रशासन के निकम्मेपन को उजागर करते हैं. पहला मामला मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. ओपी उपाध्याय की नियुक्ति का है और दूसरा मामला प्रोफेसर संदीप पांडेय की बर्खास्तगी का है.
पहले, मेडिकल सुपरिंटेंडेंट की नियुक्ति में काशी हिंदू विश्वविद्यालय प्रशासन और मानव संसाधन मंत्रालय की नाकामी को समझते हैं. जिनकी नियुक्ति हुई उनका नाम डॉ. ओपी उपाध्याय है. पहले भी वह विवादों में रहे हैं, लेकिन जून 2011 को उन्हें फीजी नेशनल युनिवर्सिटी में तीन साल के कॉन्ट्रेक्ट पर कुलपति का सलाहकर बनने का ऑफर मिला था. मतलब यह कि जून 2014 तक उन्हें फीजी नेशनल युनिवर्सिटी में ही रहना था. बताया जाता है कि वह अपना तीन साल का कार्यकाल पूरा किए बगैर भारत लौट आए और दोबारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नियुक्त हो गए.
यहां सवाल यह है कि जब वह फीजी से वापस बीएचयू आए तब विश्वविद्यालय में उनकी पुनर्नियुक्ति के दौरान सारे नियम-कानून का पालन किया गया? क्या जरूरी कागजात और एनओसी यानि अनापत्ति प्रमाणपत्र जमा कराया गया या फिर इन सबको नजरअंदाज करके उन्हें वापस रख लिया गया? 17 अप्रैल 2016 को डॉ. ओपी उपाध्याय को कुलपति ने मेडिकल सुपरिंटेंडेंट के रूप में नियुक्त कर दिया. समझने वाली बात यह है कि डॉ. ओपी उपाध्याय अगर मेडिकल सुपरिंटेंडेंट नहीं बने होते, तो वह 30 जून 2016 को रिटायर हो गए होते. अब, जब वह मेडिकल सुपरिंटेंडेंट बना दिए गए हैं, तो उन्हें 2 साल का एक्सटेंशन मिल गया है. डॉ. ओपी उपाध्याय की नियुक्ति विवादों में तकनीकि मामले को लेकर तो है ही, लेकिन फीजी में जो उन्होंने कारनामा किया उसे सुनते ही आप दंग रह जाएंगे.
काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. ओपी उपाध्याय की दास्तान मजिस्ट्रेट कोर्ट ऑफ फीजी के क्रिमिनल केस संख्या 1297/2012 से पता चलती है. यह केस यौन उत्पीड़न का है. इस केस में पीड़िता 21 साल की लड़की है जो उस वक्त बीएससी की स्टूडेंट थी. कोर्ट के आदेश के मुताबिक डॉ. ओपी उपाध्याय ने 21 साल की लड़की का यौन उत्पीड़न किया. इस केस की सुनवाई 8 जनवरी 2013 को हुई थी. सुनवाई के दौरान डॉ. ओपी उपाध्याय ने खुद को निर्दोष साबित करने के लिए अपनी तरफ से सारी दलीलें दीं, लेकिन कोर्ट ने उनकी बातों को मानने से इंकार कर दिया.
फीजी की कोर्ट ने डॉ. उपाध्याय को 21 साल की लड़की का अपने घर पर यौन शोषण करने का दोषी पाया. कोर्ट ने उन्हें 18 महीने की जेल की सजा दी और तीन साल के लिए सस्पेंड कर दिया. इसके साथ पीड़िता को 500 डॉलर का हर्जाना देने को कहा गया और एक हजार का अतिरिक्त जुर्माना भी लगाया गया. इस फैसले के बाद डॉ. ओपी उपाध्याय ने फीजी हाईकोर्ट में अपील की. हाईकोर्ट ने भी डॉ. उपाध्याय की सजा को बरकरार रखा.
अब सवाल यह है कि डॉ. ओपी उपाध्याय को किस आधार पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नियुक्त किया गया? और नियुक्त करने के बाद उन्हें मेडिकल सुपरिंटेंडेंट क्यों बना दिया गया? क्योंकि एक बार जब फीजी हाईकोर्ट ने उन्हें सजा सुना दी, तो ऐसे में दो ही परिस्थिति पैदा होती हैं. डॉ. ओपी उपाध्याय ने फीजी की जेल में सजा काटी या फिर वहां से भाग निकले. दोनों ही परिस्थितियों में डॉ. उपाध्याय एक गुनहगार हैं. सवाल यह है कि क्या डॉ उपाध्याय ने फीजी की अदालत के फैसले के बारे में कुलपति या मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सूचना दी या फिर उन्हें झांसा देकर वह विश्वविद्यालय में फिर से कार्यरत हुए हैं?
अफसोस की बात यह है कि फीजी में हुई इस घटना के बारे में विश्वविद्यालय प्रशासन को पता है लेकिन इसके बावजूद डॉ. उपाध्याय के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की. काशी हिंदू विश्वविद्यालय छात्र महासभा के पूर्व अध्यक्ष रामकरण यादव फीजी की घटना और डॉ. उपाध्याय की नियुक्ति को लेकर राष्ट्रपति को पत्र लिख चुके हैं. उन्होंने यह पत्र ऊपर भी भेजा है. उन्होंने काशी विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के सारे सदस्यों को भी पत्र के माध्यम से इस मामले से अवगत कराया.
फिर ऐसी क्या बात है कि सभी अधिकारी डॉ. ओपी उपाध्याय पर लगे आरोप के बारे में जांच करने से बच रहे हैं? क्या काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मेडिकल सुपरिंटेंडेंट की नियुक्ति में फीजी प्रकरण को जानबूझ कर नजरअंदाज किया गया है? इस बात की जांच होनी चाहिए कि इस पृष्ठभूमि का व्यक्ति कैसे विश्वविद्यालय को चकमा देने में कामयाब हुआ है और साथ ही इस चूक के लिए कुलपति को भी जिम्मेदार बनाना चाहिए.
पूर्वांचल के एम्स के नाम से मशहूर सर सुंदर लाल चिकित्सालय के नवनियुक्त मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. ओपी उपाध्याय की नियुक्ति विवादों में घिर गई है. यह नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए एक काले धब्बे के रूप में उजागर हुई है. सवाल यह उठने लगा है कि युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रो. गिरीश चंद्र त्रिपाठी को क्या यह पता है कि उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति की है जिन्हें एक लड़की के यौन शोषण का दोषी पाया गया. क्या उन्हें यह पता नहीं था कि डॉ. उपाध्याय पर पहले भी कई आरोप लगे हैं.
नोट करने वाली बात यह है कि जब उन्हें डिप्टी मेडिकल सुपरिंटेंडेंट के लिए तीन बार और मेडिकल सुपरिंटेंडेंट के लिए दो बार चयन समिति ने अयोग्य ठहरा चुकी है तो फिर ऐसी क्या बात है कि फीजी से लौटने के बाद वह अचानक मेडिकल सुपरिंटेंडेंट पद के लिए सबसे योग्य हो गए? इस सवाल का जवाब कुलपति साहब को देना चाहिए, क्योंकि फीजी में प्रोफेशनल स्तर पर उन्होंने कोई कारनामा तो किया नहीं बल्कि एक गुनहगार के रूप में वह वहां से वापस लौट हैं. अब सवाल यह है कि क्या मानव संसाधन विकास मंत्री और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति अब भी खामोश रहेंगे या फिर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करेंगे? ओपी उपाध्याय न सिर्फ कानून की नज़र में गुनहगार हैं बल्कि ऐसे किसी व्यक्ति का शिक्षण संस्थान में कार्यरत होना भी सामाजिक दृष्टि से गलत है.
हाईकोर्ट के फैसले के बावजूद जिद पर अड़ा बीएचयू प्रशासन
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से विज़िटिंग प्रोफेसर संदीप पांडेय को बर्खास्त किए जाने के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के बावजूद उन्हें फिर से ज्वाइन नहीं करने दिया जा रहा. मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय ने कहा कि उनके पक्ष में अदालत का इतना मजबूत आदेश आने के बाद भी विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी बीएचयू में उनकी वापसी नहीं होने दे रहे हैं.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने संदीप पांडेय के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आईआईटी में विजिटिंग फैकल्टी के अनुबंध को खत्म करने का आदेश 23 अप्रैल को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा कि देशविरोधी गतिविधियों जैसे आरोप लगाकर एकतरफा कार्रवाई करना नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है. न्यायमूर्ति वीके शुक्ला और न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी की खंडपीठ ने पांडेय की तरफ से दायर याचिका को अनुमति दे दी जिन्होंने छह जनवरी 2016 के विश्वविद्यालय प्रबंधन के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उनके अनुबंध को खत्म कर दिया गया था. उन्हें रसायन इंजीनियरिंग विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया गया था और उनका कार्यकाल इस साल 30 जुलाई तक था. उक्त आदेश में गांधीवादी कार्यकर्ता पांडेय को यह भी कहा गया कि उनके अनुबंध को खत्म करने का फैसला आईआईटी (बीएचयू) के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की बैठक में किया गया जिसने उन्हें साइबर अपराध और देशहित के खिलाफ काम करने का दोषी पाया.
बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने बीएचयू में राजनीति विज्ञान के एक छात्र के पत्र का संज्ञान लिया जिन्होंने पांडेय पर राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने और नक्सलियों से सहानुभूति रखने का आरोप लगाया था. पांडेय के वकील राहुल मिश्रा ने तर्क दिया कि संबंधित अधिकारियों ने यह फैसला याचिकाकर्ता की आवाज को दबाने के लिए किया, क्योंकि वह अलग विचारधारा के व्यक्ति हैं. आदेश को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि यह मामला महज अनुबंध रद्द करने का नहीं है बल्कि छवि खराब करने वाला दंडात्मक आदेश है जिसमें साइबर अपराध करना और देशहित के खिलाफ काम करना जैसे भारी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. अदालत ने कहा कि यह सभी आरोप गंभीर हैं और याचिकाकर्ता के व्यवहार व चरित्र पर गंभीर आक्षेप लगाते हैं. अदालत ने कहा कि जिस तरीके से एकतरफा फैसला किया गया है, उसे हम मंजूरी नहीं दे सकते.
हाईकोर्ट का यह आदेश आने के बावजूद बीएचयू के कुलपति अपनी जिद पर अड़े हैं और संदीप पांडेय को अध्यापन का कार्य जारी करने का आदेश नहीं दे रहे. संदीप पांडेय इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं और कहते हैं, काशी हिंदू विश्वविद्यालय आईआईटी से मेरा निष्कासन रद्द करने का इलाहाबाद हाईकोर्ट से जो फैसला आया है उसमें सबसे बड़ी बात यह है कि अदालत ने मेरी विचारधारा और कार्यों की वैधता स्वीकार की है. फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का बचाव किया गया है और कहा गया है कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वैध एवं संवैधानिक अधिकार है, लिहाजा अपने से अन्य विचारधारा का गला नहीं घोंटा जा सकता. न्यायाधीशों ने वाल्टेयर का वह प्रसिद्ध वक्तव्य भी उद्धृत किया कि, मैं आपसे असहमत हो सकता हूं लेकिन आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए मैं अपनी जान की बाजी तक लगा दूंगा.
संदीप पांडेय ने कहा कि बीएचयू के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय भी कहते थे कि भारत तभी मजबूत रहेगा और प्रगति करेगा जब सारे समुदाय मिलजुल कर साम्प्रदायिक सद्भावना व सौहार्द के साथ रहेंगे. अदालत ने भी पंडित मदन मोहन मालवीय का उक्त कथन उद्धृत किया है. हाईकोर्ट ने बीएचयू के कुलपति और प्रशासनिक पदों पर बैठे अन्य अधिकारियों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि प्रशासनिक पदों पर विद्यमान लोगों को अकादमिक व प्रशासनिक निर्णय लेते समय तटस्थ रहना चाहिए.
इस प्रकरण का विचित्र पहलू यह भी है कि संदीप पांडेय के दो अन्य रिश्तेदार भी बीएचयू से निकाले जा चुके हैं. बीएचयू में इंडोलॉजी विभाग के प्रोफसर राजबली पांडेय और केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर गोपाल त्रिपाठी को भी 1960 में हजारी प्रसाद द्विवेदी समेत कुछ अन्य प्रोफेसरों के साथ निकाल दिया था. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तीन वर्षों तक कुलपति रहे आचार्य नरेन्द्र देव को भी अप्रिय परिस्थितियों में विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा था.