कल्याण सिंह का देहांत भाजपा में अटल-आडवाणी युग के एक और कद्दावर नेता का देश के राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होना है। कल्याण सिंह के निधन पर भाजपा में उनके व्यक्तित्व और अवदान का नए सिरे से स्वीकार और पुरस्कार हो रहा है। बावजूद इस सच्चाई के कि दो बार भाजपा छोड़ने के बाद कल्याण सिंह सियासी रूप से हाशिए पर चले गए थे। समूचे देश और भाजपा के आदर्श नेता अटल बिहारी वाजपेयी से उनका खुलकर टकराव हुआ था। चूंकि कल्याण सिंह का डीएनए भी आरएसएस का था और उनकी कर्मभूमि भाजपा ही थी, इसलिए उम्र में आखिरी दौर में वो भाजपा में लौटे। कल्याण सिंह भाजपा की राम मंदिर केन्द्रित आस्था और राजनीति की मिश्रित रणनीति के महत्वपूर्ण शिल्पकार थे। अगर उत्तर प्रदेश का सीएम रहते उनके कार्यकाल में अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद कारसेवकों ने न ढहाई होती तो राम मंदिर आंदोलन अभी भी ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वही बनाएंगे’ के नारे तक ही सीमित रहता। कल्याण सिंह ने बाबरी मस्जिद ढहाने वाले कारसेवकों पर गोली नहीं चलाने दी, यह ‘राज धर्म’ था या नहीं, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन कल्याण सिंह के लिए वह निर्विवाद रूप से ‘राम धर्म’ जरूर था। बाबरी ध्वंस के बाद कल्याणसिंह ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ का आदर्श बन गए थे।
वास्तव में भारतीय राजनीति के आकाश पर कल्याण सिंह का उदय मंडल और कमंडल सियासत के भारी घर्षण का परिणाम था। कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के लोधी समुदाय से आते थे, जो अब पिछड़े वर्ग में शामिल है। लोध या लोधी खुद को चंद्रवंशी क्षत्रिय तथा अपना उद्गम स्थल पंजाब के लुधियाना क्षेत्र को मानते हैं। मंडल आयोग की सिफारिशें मान्य करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के निर्णायक दांव के बाद भाजपा ने यूपी में जवाबी चाल ओबीसी कल्याण सिंह को राज्य की कमान सौंप कर चली। कल्याण सिंह संघ के समर्पित कार्यकर्ता और दिए गए लक्ष्य को हर हाल में पूरा करने वाले नेता थे। अविभाजित यूपी का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने यूं तो कई कठोर फैसले लिए, लेकिन इतिहास उन्हें राम मंदिर के लिए जरूरी सामाजिक-राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए याद रखेगा। जबकि इसके पहले तक मुख्य रूप से सवर्णों की पार्टी समझी जाने वाली भाजपा ने पहली बार कल्याणसिंह के माध्यम से माध्यम से पिछड़ी जातियों में गंभीर पैठ बनाना शुरू की, जिस पर राम के नाम पर ‘हिंदू एकता’ का मुलम्मा चढ़ाया गया।
हिंदू होने का गर्व भरा गया। कल्याण सिंह के रूप में कई ओबीसी जातियों को स्थायी रूप से हिंदुत्व के शामियाने में लाने की सुनियोजित कोशिशों का विस्तार हम आगे मध्यप्रदेश में देखते हैं, जहां भाजपा ने 21 वीं सदी में शुरू से लेकर अब तक पिछड़े वर्ग से ही मुख्यमंत्री बनाए हैं और स्पष्ट संकेत दिया है कि मप्र में भाजपा के रहते सत्ता वास्तव में उन पिछड़ी जातियों के हाथ में है, जिन्हें पूर्ववर्ती कांग्रेस शासन काल में अपेक्षित तवज्जो नहीं मिली। कांग्रेस में सुभाष यादव जैसे दो-चार अपवादों को छोड़ दें तो वहां आज भी कद्दावर ओबीसी नेताओं का टोटा ही है।
कल्याण सिंह की विशेषता रही कि उन्हें झुकाना मुश्किल था। अटल-आडवाणी युग का प्रमुख चेहरा होने के बाद भी उनकी सबसे ज्यादा मुठभेड़ अटलजी से ही हुई, जिन्होंने कल्याण सिंह को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। कल्याण सिंह दो बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे। पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार के और दूसरी बार बसपा के एक गुट के समर्थन से बनी सरकार के। यह वो समय था, जब देश में जातिवाद की राजनीति अपना चेहरा गढ़ चुकी थी। सियासी परिदृश्य पर मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव और मायावती जैसे चेहरे छाने लगे थे, जो जाति के नाम पर ही वोटरो को लामबंद करने में विश्वास करते थे। सत्ता का जातिगत हस्तांतरण ही उनके लिए ‘सामाजिक न्याय’ था। ऐसे में बतौर सीएम कल्याण सिंह के दूसरे कार्यकाल में ही उत्तर प्रदेश में भाजपा में भी अगड़े बनाम पिछड़े की राजनीतिक चिंगारी सुलग चुकी थी। नतीजतन वहां भाजपा के अगड़ी जाति के नेताओं ने कल्याणसिंह पर ‘पिछड़ों की राजनीति’ करने का आरोप जड़ते हुए मोर्चा खोल दिया था। उसके बाद कल्याण सिंह को सीएम पद से हटना पड़ा और उनकी जगह अटलजी के एक प्रिय पात्र रामप्रकाश गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की गई कि भाजपा अगड़ों के हितों को भूली नहीं है। उनके बाद भाजपा के एक और मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह बने, जो ठाकुर हैं।
मंडल आंदोलन की परिणति देश में ओबीसी को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण के रूप में हुई साथ ही अन्य पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण की मांग तेज होने लगी। विधान मंडलों में ओबीसी आरक्षण अभी भी नहीं है। उधर राम मंदिर का मार्ग सुगम करने के बाद भी कल्याण सिंह का भाजपा में आगे का रास्ता कांटो भरा ही था। अटलजी से उनका खुला टकराव शुरू हो गया। एक बार तो उन्होंने अटलजी को ‘कमजोर’ प्रधानमंत्री तक कह दिया था। 1999 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को परोक्ष चुनौती यह कहकर दी थी कि ‘पीएम बनने के पहले एमपी भी बनना पड़ेगा।‘ बागी तेवरों के चलते 1999 में भाजपा ने कल्याण सिंह को पार्टी से निकाल दिया ।
कल्याण सिंह ने अपना ‘राष्ट्रीय क्रांति दल’ बनाया। लेकिन अपने दम पर वो कोई राजनीतिक क्रांति नहीं कर सके। क्योंकि उनकी जड़ें तो भाजपा में ही थीं। कल्याण फिर भाजपा में लौटे। 2004 में अटल सरकार के पतन के साथ भाजपा में अटल युग का भी समापन हो गया था। कल्याण सिंह ने 2004 का लोकसभा चुनाव भाजपा के टिकट पर बुलंद शहर से जीता। बावजूद इसके पार्टी में उन्हे वो तवज्जो नहीं मिली, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी। 2007 में बीजेपी ने कल्याण को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपी। जिसमें पार्टी की भारी हार हुई। सत्ता उन मायावती को मिली, जो ब्राह्मण दलितों की सोशल इंजीनियरिंग कर रही थीं। उधर कल्याण सिंह का भी भाजपा से मोहभंग हुआ और 2009 का लोकसभा चुनाव उन्होंने बतौर निर्दलीय एटा से लड़ा।
इस लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा में अटलजी के सहयोगी रहे दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी का सितारा भी गर्दिश में जाने लगा। उधर संघ ने कल्याण सिंह के रूप में पीछे छूटे ओबीसी राजनीति के सिरे को नरेद्र मोदी के रूप में नए सिरे से थामा और प्रचारित किया। मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व के प्रखर चेहरे और पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आगे किया गया। इसका अोबीसी में सही संदेश गया और भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ दिल्ली के तख्त पर काबिज हो गई। चुनाव के पहले भाजपा में मोदी युग की भोर में कल्याणसिंह फिर अपनी मूल पार्टी में लौटे। पार्टी में उनकी पुरानी सेवाअों के लिए राजस्थान का गवर्नर बनाकर मेवा दिया गया। कल्याणसिंह के पुत्र राजवीरसिंह सांसद बने।
दरअसल कल्याण सिंह के साथ भाजपा की पिछड़े वर्ग में राजनीतिक निवेश की जो कहानी शुरू हुई थी, उसकी पूर्णाहुति नरेन्द्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के रूप में होती है, जब हिंदू एकता का आह्वान करने वाली भाजपा खुलकर अोबीसी कार्ड खेलती और इसका सगर्व उद्घोष करती दिखती है। राम मंदिर का जो बीज कल्याण सिंह ने बोया था, वो वृक्ष में बदलने का काम मोदी सरकार कर रही है।
इतिहास राजनेताओ का आकलन कई मापदंडों पर करता है। इसमें नेता का विजन, निर्भीकता, जोखिम उठाने का साहस, प्रशासकीय क्षमता, संगठन कौशल और जन मानस पर राज करने की कूवत तो है ही, वर्तमान राजनीतिक तकाजे भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं। कल्याण सिंह के मरणोपरांत उनका उदार मन से स्वीकार इस बिंदु को भी रेखांकित करता है। यूपी की योगी सरकार ने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ने नाम पर छह जिलो की एक एक सड़क का नामकरण कल्याण सिंह के नाम पर करने का ऐलान किया है। ये वो जिले हैं, जहां से कल्याण या तो चुनाव जीते या फिर वो उनकी कर्मभूमि अथवा जन्मभूमि रही। कल्याण सिंह लोधी समुदाय के भी दिग्गज नेता रहे।
उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मध्यप्रदेश में भी लोधी मतदाओ की भी बड़ी संख्या है। यूपी में आगामी विधानसभा चुनाव में इस समुदाय का समर्थन निर्णायक होगा। कल्याण सिंह को दिया जा रहा सम्मान लोधी समुदाय के महत्व का स्वीकार भी है। भाजपा की रणनीति साफ है कि वह सभी भावी चुनाव पिछड़े वर्ग के हितरक्षक के तौर पर जीतना चाहेगी। यह इस बात का प्रोजेक्शन भी है कि अब भाजपा का कोर समर्थक तबका पिछड़ा वर्ग है, यही हिंदुत्व का झंडाबरदार भी है। इस वर्ग का भाजपा के साथ एकजुट रहना पार्टी के सत्ता में बने रहने की गारंटी है। कल्याणसिंह के साथ भाजपा में खरा और खुलकर बोलने वाली पीढ़ी का भी अवसान हो गया है। यह भाजपा की सेहत के लिए अच्छा है या बुरा, ये आने वाला वक्त तय करेगा।