बजट सत्र में बजट मुख्य विषय होने के कारण संसद में कम काम होता है और जो बिल सरकार अध्यादेश के माध्यम से लाई थी, उनकी वजह से सरकार और विपक्ष के बीच अविश्‍वास बढ़ गया था. संसद में कुछ दिन नीरस थे, क्योंकि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और गृह मंत्री विदेश दौरे पर गए थे. लेकिन, किसी न किसी तरह कार्य संस्कृति सदन में बहाल करनी होगी, अन्यथा आने वाले चार साल देश के लिए अच्छे नहीं होंगे. सरकार यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि हमने तो बिल पेश किए थे, विपक्ष ने ही उन्हें पारित नहीं होने दिया. जनता को नतीजे चाहिए.

संसद का सत्र अभी चल रहा है. भाजपा को अब जाकर एहसास हुआ है कि संसद को द्विपक्षीय तरीके से चलना चाहिए और यह कि विपक्ष के सहयोग के बिना लंबित पड़े बिल संसद में पारित कराना नामुमकिन है. दरअसल, उन्हें यह काम अपने कार्यकाल के पहले दिन से ही शुरू कर देना चाहिए था. बहरहाल, उनके सहयोगी दलों ने भी भूमि अधिग्रहण जैसे बिलों का विरोध किया. इस वजह से उन्हें लगा कि यदि विपक्ष सहयोग के लिए तैयार नहीं है और उनके सहयोगी दल विरोध में हैं, तो ऐसे में संसद के संयुक्त सत्र में भी बिल पारित नहीं हो सकते. खैर जो भी हो, लोकसभा ने भूमि अधिग्रहण बिल नौ संशोधनों के साथ पारित कर दिया, लेकिन विपक्ष जैसा चाहता था, यह उससे थोड़ा कम है. कोयला और खनन से संबंधित दो बिल राज्यसभा की स्थायी समिति के पास भेज दिए गए हैं. हो सकता है कि भूमि अधिग्रहण बिल भी राज्यसभा की स्थायी समिति के पास भेज दिया जाए, ताकि उस पर आम सहमति का कोई फॉर्मूला बनाया जा सके. वास्तव में भूमि अधिग्रहण बिल को कुछ संशोधनों के साथ एक बार फिर लोकसभा भेजा जाएगा. लेकिन यह देशहित में है कि सभी बिल संसद में पारित हो जाएं और दोनों पक्ष आदान-प्रदान के आधार पर काम करें, क्योंकि इसमें कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है. यह देश के लिए है, इसलिए सभी पक्षों के विचारों को ध्यान में रखकर काम किया जाए.
दूसरी तरफ़ दिग्विजय सिंह ने एक सराहनीय बयान जारी किया कि विपक्ष को यह फैसला करना चाहिए कि उसे किस बिल का विरोध करना है और किसका नहीं. बिना सोचे-समझे सभी बिलों का विरोध करने से कुछ हासिल नहीं होगा. यह एक ऑब्सट्रकशनिस्ट (अवरोध उत्पन्न करने वाली) प्रवृत्ति है. लोकतंत्र में न तो ऑब्सट्रकशनिज्म से काम चलता है और न विपक्ष को नज़रअंदाज़ करके अध्यादेश द्वारा शासन चलाने से. सही तरीका यह है कि बातचीत के ज़रिये समाधान तलाशा जाए. यहां संसदीय कार्यमंत्री के रूप में वेंकैया नायडू उपयुक्त नहीं हैं. उनकी भाव-भंगिमा (बॉडी लैंग्वेज) में सुलह के बजाय टकराव का पहलू नज़र आता है. एक ऐसे व्यक्ति को संसदीय कार्यमंत्री बनाया जाना चाहिए, जिसकी पहुंच संसद के हर पक्ष तक हो. अभी संसद की सात-आठ बैठकें बाकी हैं. हमें आशा करनी चाहिए कि इनमें से कुछ ठोस परिणाम निकल कर सामने आएंगे.

नीतीश कुमार ने बिहार में विश्‍वास मत हासिल कर लिया. दरअसल, विश्‍वास मत हासिल करने की यह पूरी क़वायद ख़त्म होनी चाहिए. जहां तक मुझे याद है, देवेगौड़ा सरकार के समय इसकी शुरुआत हुई थी. तब तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए विश्‍वास मत हासिल करने के लिए कहा था. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था. किसी को विश्‍वास मत हासिल करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी. इसके लिए अविश्‍वास प्रस्ताव लाया जाता था.

उम्मीद के मुताबिक नीतीश कुमार ने बिहार में विश्‍वास मत हासिल कर लिया. दरअसल, विश्‍वास मत हासिल करने की यह पूरी क़वायद ख़त्म होनी चाहिए. जहां तक मुझे याद है, देवेगौड़ा सरकार के समय इसकी शुरुआत हुई थी, तब तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए विश्‍वास मत हासिल करने के लिए कहा था. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था. किसी को विश्‍वास मत हासिल करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी. इसके लिए अविश्‍वास प्रस्ताव लाया जाता था. मुझे अच्छी तरह याद नहीं है, पर लगता है कि यह वीपी सिंह के समय से शुरू हुआ था. लेकिन, यह ग़लत प्रक्रिया है. पहले ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं थी. एक बार अगर राष्ट्रपति संतुष्ट हो गए और किसी को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया या राज्यपाल ने किसी को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया, तो वह सदन का सामना करता था. अगर किसी को सरकार में विश्‍वास नहीं है, तो वह अविश्‍वास प्रस्ताव लाकर सरकार गिरा सकता है. किसी पदस्थ प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को विश्‍वास मत हासिल करने की क्या आवश्यकता है? लेकिन, बदकिस्मती से यही प्रणाली कायम रहेगी. दरअसल, यह अच्छी बात है कि बिहार में न केवल नीतीश खेमे के विधायकों ने एक साथ मतदान किया, बल्कि उन्हें अतिरिक्त वोट भी मिले. इससे ज़ाहिर होता है कि बतौर नेता नीतीश कुमार की स्वीकार्यता हर जगह है. बेशक, बिहार चुनाव के रंग में आ रहा है और इसी साल सितंबर के आसपास राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी. इसका मतलब है कि विधानसभा के बाकी बचे पांच से छह महीनों में नीतीश सरकार को जनता को दिखाई पड़ने वाले कुछ ऐसे काम करने होंगे, जिनके सहारे उनकी पार्टी आत्मविश्‍वास के साथ चुनावी जंग लड़ सके.
बजट सत्र में बजट मुख्य विषय होने के कारण संसद में कम काम होता है और जो बिल सरकार अध्यादेश के माध्यम से लाई थी, उनकी वजह से सरकार और विपक्ष के बीच अविश्‍वास बढ़ गया था. संसद में कुछ दिन नीरस थे, क्योंकि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और गृह मंत्री विदेश दौरे पर गए थे. लेकिन, किसी न किसी तरह कार्य संस्कृति सदन में बहाल करनी होगी, अन्यथा आने वाले चार साल देश के लिए अच्छे नहीं होंगे. सरकार यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि हमने तो बिल पेश किए थे, विपक्ष ने ही उन्हें पारित नहीं होने दिया. जनता को नतीजे चाहिए.
अब एक नज़र आम आदमी पार्टी में चल रहे ड्रामे पर डालते हैं. मैं प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं के व्यवहार से हैरान हूं. आप इतने बेसब्र कैसे हो सकते हैं? अभी 10 फरवरी को दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी में भारी विश्‍वास जताया था. केजरीवाल को कुछ समय तो दीजिए. कम से कम एक साल के बाद देखिए कि वह अपनी घोषणाएं पूरी करने में सक्षम हैं या नहीं. अगर दिल्ली सरकार अपनी घोषणाओं के अनुकूल नहीं चलती है, तो उससे जनता में खुद-ब-खुद असंतोष पैदा होगा, लेकिन पार्टी की इस अंदरूनी कलह से कोई लाभ नहीं होगा. अब वे लोग केजरीवाल की पिछली गलतियां गिना रहे हैं और कह रहे हैं कि वह कांग्रेस को तोड़कर सरकार बनाना चाहते थे. यह सब अब अप्रासंगिक हो गया है. पार्टी ने दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीतीं हैं. तो अब यह मामला कैसे प्रासंगिक हो सकता है कि वह कांग्रेस के छह विधायकों को तोड़ना चाहते थे या नहीं? जैसा कि बिल्कुल सही कहा गया है कि जब वह किसी को मंत्री बनाने का वादा नहीं कर रहे थे, किसी को रिश्‍वत की पेशकश नहीं कर रहे थे, तो दूसरी पार्टी के लोगों से समर्थन मांगने में क्या ग़लत है? अभी वह एक ऐसी पार्टी में हैं, जो दूसरी पार्टी के लोगों को समझा रही है कि वे अपनी पार्टी छोड़कर उसमें शामिल हो जाएं. अब इसमें ग़लत क्या है? मुझे पता नहीं कि प्रशांत भूषण किन सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, जिन पर यह पार्टी स्थापित हुई है. अगर ऊंचे सिद्धांतों का मतलब यह है कि आपको सरकार नहीं बनानी चाहिए, तो उस समय केजरीवाल सही थे, जब उन्होंने धरना वगैरह दिया था. जनता नाराज़ थी, क्योंकि केजरीवाल ने पद छोड़ा था. जनता ने इस बार उनका समर्थन इसलिए किया, क्योंकि उन्होंने उससे वादा किया कि यदि इस बार उन्हें बहुमत मिला, तो वह इस्तीफ़ा नहीं देंगे.
मुझे नहीं लगता है कि केजरीवाल के विरोधी ऐसा करके पार्टी या खुद के हक़ में कुछ अच्छा कर रहे हैं. दिल्ली सरकार को काम करने का मौक़ा दीजिए. यदि वह अपनी घोषणाओं के अनुरूप काम नहीं करती है, तो उसकी आलोचना कीजिए. अंदरूनी महत्वाकांक्षाएं तो हमेशा रहेंगी और विचारों में कई मुद्दों पर मतभेद भी होंगे. यह अफ़वाह है कि योगेंद्र यादव पूरे देश में चुनाव लड़ना चाहते हैं, जबकि केजरीवाल सोचते हैं कि उन्हें केवल दिल्ली पर अपना ध्यान केंद्रित रखना चाहिए. लेकिन, इस तरह की बातें तो सभी पार्टियों में होती हैं. आप को एक जगह बैठकर इन मामलों को सुलझा लेना चाहिए. हर एक आदमी प्रेस में बयान दे रहा है, यह संस्कृति ठीक नहीं है. यह सिलसिला जितनी जल्दी ख़त्म होगा, आम आदमी पार्टी के लिए उतना ही अच्छा होगा.

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