सद द्वारा पारित नेशनल ज्यूडिशियल अप्वायंटमेंट कमीशन एक्ट को अमान्य करने वाले सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले को अलग-अलग हलकों में न्यायपालिका की आज़ादी के पक्ष में बताया जा रहा है और उसकी तारी़फ की जा रही है. लेकिन, यह सही नहीं है. 26 जनवरी, 1950 को संविधान अपनाते समय संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई थी. इस संविधान में न्यायपालिका की आज़ादी के लिए बहुत सारे प्रावधान रखे गए.
एक बार अगर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज की बहाली हो गई, तो उसे उस समय तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक संसद के दोनों सदनों से उसके खिला़फ दो तिहाई बहुमत से महाभियोग पारित नहीं हो जाता. इतनी अधिक सुरक्षा या कहें एहतियात न्यायपालिका की आज़ादी के लिए पर्याप्त है कि जजों को सरकार आसानी से नहीं हटा सकती.
एक बेंच के सभी जज अपना-अपना फैसला देने के लिए स्वतंत्र होते हैं. यहां तक कि भारत के मुख्य न्यायाधीश या उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश जजों से यह नहीं कह सकते कि आपको अमुक विचार रखना है या इस तरह का फैसला देना है.
हर मुक़दमा एक बेंच द्वारा सुना जाता है और उसका फैसला आ़िखरी होता है. अब सवाल यह उठता है कि जब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश किसी फैसले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, तो सरकार जजों के फैसलों को कैसे प्रभावित कर सकती है. जहां तक न्यायपालिका की आज़ादी का सवाल है, तो इतनी संवैधानिक सुरक्षा काफी है.
सवाल यह उठता है कि जजों की नियुक्ति कैसे हो? संविधान की धारा 124 इस संबंध में बिल्कुल स्पष्ट है और उसकी व्याख्या करने में कोई भी उलझाव नहीं है. उसके मुताबिक, एक जज की नियुक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा होगी. बीच में एक ऐसा समय आया, जब इस सलाह की प्रक्रिया को कार्यपालिका ने महज औपचारिकता भर बना दिया. सलाह-मशविरे के बाद सरकार की जो मर्जी होती थी, वही होता था.
1995 में जस्टिस जेएस वर्मा ने एक मामले में फैसला दिया कि जज के नाम का निर्णय चीफ जस्टिस और दो या तीन वरिष्ठ जजों को मिलाकर बनाए गए कॉलेजियम द्वारा होगा. इसके लिए वास्तव में संविधान में संशोधन की ज़रूरत थी.
यह संविधान की सही व्याख्या नहीं थी. लेकिन जैसा कि कहा गया है कि संविधान की व्याख्या में किसी भी तरह का उलझाव होने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या ही अंतिम और मान्य होगी, उसी अधिकार का प्रयोग करते हुए जस्टिस वर्मा ने यह व्यवस्था (कॉलेजियम) बनाई और जो ये लोग कहें, उसे सरकार को स्वीकार करना है, राष्ट्रपति को उसे नियुक्त करना है. अब संविधान की यह व्याख्या किसी भी तार्किक व्यक्ति के लिए अतार्किक ही है.
न्यायपालिका को आज़ाद होना चाहिए, इसे लेकर कोई विवाद नहीं हो सकता. कार्यपालिका से लेकर आम आदमी और मीडिया तक इस बात को मानता है. सब इस बात से सहमत हैं कि न्यायपालिका को आज़ाद होना चाहिए. मुश्किल तब आती है, जब इस काम के लिए सबसे बेहतर का चुनाव करना हो, उसे कैसे चुना जाए? मैं मानता हूं कि संविधान में जो व्यवस्था दी गई है, वह काफी है.
सरकार कुछ नामों को चीफ जस्टिस के पास सलाह के लिए भेजे और अगर चीफ जस्टिस को कोई आपत्ति न हो, तो उन व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया जाए. तब आप समवर्ती सूची की बात करेंगे, तो मेरे ख्याल से वह भी अच्छा है. उसमें क़ानून मंत्री, अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया और चीफ जस्टिस मिलकर फैसला ले सकते हैं. लेकिन, अभी जो ़फैसला आया है, वह न तो न्यायपालिका को और न न्याय प्रक्रिया को कोई श्रेय देता है.
अटॉर्नी जनरल ने बताया कि बहुत सारे अयोग्य या ग़लत या कम योग्यता वाले जजों की नियुक्तियां हुई हैं. जैसा कि सरकार ने बिल्कुल सही कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाएगा, लेकिन बहस जारी रखनी चाहिए.
मेरे ख्याल में सुप्रीम कोर्ट को ज्यूडिशियल स्टेट्समैनशिप का प्रदर्शन करना चाहिए. उसे यह कहना चाहिए था कि कम से कम एक ज्यूडिशियल मेंबर भी उस कमेटी में रहे. मौजूदा व्यवस्था संविधान के अनुरूप नहीं है. दुनिया के किसी भी हिस्से में जजों को जज नियुक्त नहीं करते.
न तो अमेरिका में, न तो ब्रिटेन में और न यूरोप में, जहां से हमने अपना संविधान लिया है. जज, जज की नियुक्ति बिल्कुल नहीं करते. मौजूदा चीफ जस्टिस के रिटायरमेंट के बाद किसी न किसी को इस मुद्दे का संज्ञान लेना चाहिए.
इस मुद्दे का परीक्षण होना चाहिए कि जजों की नियुक्ति का सबसे बेहतर तरीका कौन-सा होगा? देश सबके लिए है, सबको एक बेहतर न्याय व्यवस्था चाहिए. दरअसल, अनगिनत न्यायिक सुधारों की ज़रूरत है, जिन्हें किया जाना बाकी है. मिसाल के तौर पर जज रिटायरमेंट के बाद प्रैक्टिस नहीं कर सकते. वे ऐसे काम करके पैसा बना रहे हैं, जिन्हें करना निषिद्ध है.
जो काम वे प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकते, वे काम उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? वे अपनी राय देकर पैसा कैसे कमा सकते हैं? इस तरह की प्रथा खत्म करने के लिए हमें अमेरिकी प्रथा देखनी चाहिए. वहां एक बार जो जज बन जाता है, वह पूरी ज़िंदगी के लिए जज रहता है.
उसे रिटायरमेंट की चिंता नहीं रहती है. भारत में भी एक ऐसा सिस्टम लागू किया जा सकता है, जिसमें जज के रिटायर होने के बाद भी उसे पूरा वेतन और भत्ता मिले, ताकि उसे और कोई काम करने की ज़रूरत न पड़े.
आप एक ऐसा तरीका निकाल सकते हैं, जिसमें एक जज को वित्तीय सुरक्षा प्रदान की जा सके. लेकिन, हम जो बात कर रहे हैं, वह बहुत छोटी चीज है और वह है, जजों की नियुक्ति का तरीका. अ़खबारों में जो भी आलेख आ रहे हैं, उनमें न्यायिक स्वतंत्रता की बात आ रही है और इस अधिनियम को समाप्त करने वाले फैसले की तारी़फ की जा रही है, जो ठीक नहीं है. इस बात पर सोचने की ज़रूरत है कि न्याय मिलने में होने वाली देरी कैसे खत्म की जाए और त्वरित न्याय मिले.
बेवजह की पीआईएल से कैसे छुटकारा मिले. ये ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर विचार होना चाहिए. जहां तक जजों की नियुक्ति का सवाल है, तो जजों द्वारा जजों की नियुक्ति बिल्कुल ठीक नहीं है. भारत जैसे परिपक्व लोकतंत्र को एक बेहतर सिस्टम कैसे मिले, इसके लिए काम होना चाहिए. आशा करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस दिशा में प्रयास करेगा. प