हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रिश्ते भी अजीब हैं. दोनों देशों की जनता चाहती है कि दोस्ती हो, आना-जाना हो, एक-दूसरे के यहां पढ़ाई करें, एक-दूसरे के यहां इलाज कराएं, लेकिन राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहते. चूंकि राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहते, इसलिए जो भी सरकार होती है, वह चार क़दम आगे बढ़कर 10 क़दम पीछे चली जाती है. अब तक ऐसा ही होता रहा. मौजूदा सरकार भी यही कर रही है. शायद आगे भी ऐसा होगा.
हम मानसिक रूप से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पसंद करते हैं, लेकिन हम दिखाते स्वयं को धर्मनिरपेक्ष हैं. इसी वजह से कोई भी एक छोटी-सी घटना देश की इज्जत का सवाल बन जाती है. ऐसा दोनों तऱफ होता है. वहां पर भी गला फाड़कर-फाड़कर हिंदुस्तान को सबक सिखाने की दलीलें होती हैं और हमारे यहां तो अब पाकिस्तान को नेस्तोनाबूद करने जैसी बातें भी कुछ संगठन करने लगे हैं.
दरअसल, पाकिस्तान और हिंदुुस्तान का मसला दो ऐसे भाईनुमा दोस्तों के बीच का किस्सा है, जो न साथ रह सकते हैं, न साथ रहना चाहते हैं, लेकिन लोगों को दिखाने के लिए दोनों लंबी-लंबी ज़ुबान में साथ रहने की वकालत करते हैं. इसी वजह से दोनों देशों में ऐसे समूह मजबूती के साथ जड़ जमा रहे हैं, जिनका यह मानना है कि दोनों देशों में बातचीत नहीं होनी चाहिए.
शायद यह बाहरी शक्तियों की रुचि (इंट्रेस्ट) हो कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान में अगर जरा भी दोस्ती हुई या जरा भी बातचीत का रास्ता खुला, तो उनके आर्थिक हितों के ऊपर काफी खतरा पैदा हो जाएगा. दूसरी तऱफ हिंदुस्तान और पाकिस्तान हथियारों के बहुत बड़े खरीददार हैं. इसलिए दुनिया के सबसे बड़े संगठित माफिया गिरोहों के क़ब्जे वाले हथियारों के सौदागर बिल्कुल इस मंडी को खत्म नहीं होने देना चाहते.
वे चाहते हैं कि दोनों देश उनसे हथियार खरीदते रहें और दोनों देशों के अलावा ऐसे समूह, जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं, वे भी उनसे हथियार खरीदते रहें. वरना यह कैसे हो सकता है कि विज्ञान की इतनी तरक्की के बावजूद, दुनिया के हर उस देश में, जहां हथियारबंद संघर्ष चल रहा है, हथियार इतनी आसानी से पहुंच जाएं? इराक हो, सऊदी अरब हो, पाकिस्तान हो, अफगानिस्तान हो, एक छोटा-सा हिस्सा चीन का हो या फिर रूस से जुड़ी हुई यूक्रेन की सीमा हो, वहां लोगों के पास हथियार आख़िर पहुंच कैसे जाते हैं?
हिंदुस्तान में नक्सलवादी और उत्तर-पूर्व के नगा संगठन भी हथियारों के मसले में, और स़िर्फ हथियारों के नहीं, अच्छे हथियारों के मसले में काफी सहज स्थिति में रहते हैं. उनके पास हथियार आ़िखर कहां से पहुंचते हैं, क्योंकि वहां हथियारों की फैक्ट्रियां नहीं हैं.
जहां-जहां भी हथियारबंद संघर्ष चल रहे हैं, उन देशों में हथियारों की फैक्ट्रियां नहीं हैं. हथियारों की फैक्ट्रियां वहां पर हैं, जहां पर संपूर्ण सुरक्षा है, शांति है, लोकतंत्र है और जिन देशों की दुहाई सारी दुनिया में दी जाती है, वहां से हथियार निकलते हैं. क्या वहां की सरकारों की सहमति के बिना हथियार निकलते हैं? विश्व में अपनी ताकत के दम पर आज हुंकारने वाला अमेरिका या उसके सर्वशक्तिमान संगठन, चाहे वह सीआईए हो या एफबीआई, क्या उन्हें नहीं पता कि हथियार कैसे लोगों के पास पहुंचते हैं?
मैं फिर दोहराता हूं कि जहां से हथियार निकलते हैं, वे लोकतांत्रिक देश हैं, शांतिप्रिय देश हैं, वहां शांति हैं, वहां कोई हिंसक वारदातें नहीं होतीं. तब आ़खिर क्या कारण है कि हथियार लोकतांत्रिक देशों से निकल कर तानाशाही के लिए लड़ने वाले संगठनों के पास आसानी से पहुंच जाते हैं?
ये सवाल मैं इसलिए उठा रहा हूं, क्योंकि सारी दुनिया में अलग-अलग तरह की सोच वाले संगठन हैं, सारी दुनिया में अलग-अलग तरह के आतंक के उद्योग चल रहे हैं और सारी दुनिया में वह सब हो रहा है, जो आज हिंदुस्तान और पाकिस्तान में दिखाई देता है. इसी वजह से शायद ये ताकतें उन संगठनों को बढ़ावा देती हैं, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच सहमति या दोस्ती नहीं चाहते. नतीजे के तौर पर कोई भी एक घटना भारत और पाकिस्तान में युद्ध का माहौल पैदा कर देती है.
किसी जवान का सिर कटा पार्थिव शरीर हमारे देश में आता है, तो हम युद्ध करने की बात करने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि इससे कितनी मांओं की गोद सूनी हो जाएगी. उसी तरह से पाकिस्तान में अगर किसी सिपाही की लाश पहुंचती है, तो फौरन इस्लाम की रक्षा के लिए हिंदुस्तान को नेस्तोनाबूद करने के भाषण शुरू हो जाते हैं.
लेकिन, इन सबके बीच बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो युद्ध नहीं चाहते, दोनों देशों में दोस्ती चाहते हैं और चाहते हैं कि दोनों देशों के लोग एक-दूसरे के साथ प्यार-मोहब्बत से रहें. और, जो लोग ऐसा चाहते हैं, वे उनकी आंखों की किरकिरी हैं, जो इसके खिला़फ हैं. इसलिए जब यह बात होती है कि भारत और पाकिस्तान की सिविल सोसायटी कुछ करे, तो मेरे दिमाग में सवाल खड़ा हो जाता है कि सिविल सोसायटी नामक कोई चीज है भी क्या?
दरअसल, सिविल सोसायटी एक ब्रॉड कॉन्सेप्ट है, सिविल सोसायटी एक बड़ा सपना है, जिसमें कोई ताकत नहीं है. लेकिन, अगर सिविल सोसायटी की ताकत दिखानी हो, तो दोनों देशों के पत्रकारों को अपनी-अपनी सरकार का नुमाइंदा होने का बेवकूफी भरा ख्याल छोड़ देना चाहिए. पत्रकार अपनी-अपनी सरकारों के जाल में फंस जाते हैं और एक अंधा राष्ट्र-प्रेम लोगों के सामने परोसने लगते हैं.
इसकी जगह पर अगर दोनों देशों के पत्रकार स़िर्फ मिल-जुल कर बातचीत करना शुरू करें, तो मेरा मानना है कि यह दीवार गिराने की पहल हो सकती है और नफरत खत्म करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जा सकता है.
पत्रकार अपने-अपने समाज के एक ताकतवर अंग हैं. यहां मेरा सा़फ कहना है कि भारत और पाकिस्तान के पत्रकार अगर एक-दूसरे से नहीं मिलते, तो फिर वे अपने-अपने देश के भौंड़े प्रवक्ता बन जाते हैं और टेलीविजन चैनलों की टीआरपी की खातिर नए-नए तरह के स्वांग रचने लगते हैं.
मेरा मानना है कि सरकारें दोस्ती चाहती हैं या नहीं, यह विषय अलग है, लेकिन सरकारें स़िर्फ इतना करें कि दोनों देशों के पत्रकारों को एक-दूसरे के देश में आने-जाने की सुविधा के लिए आसान शर्तों पर वीजा देना शुरू करें.
सरकारें स़िर्फ इतना कर दें, फिर उसके बाद उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि तब पत्रकार आपस में मिलकर कई तरह के नुस्खे दोनों देशों की जनता और सरकारों के सामने रख सकेंगे.
आज के जमाने में युद्ध की बात करना इंसानियत के साथ धोखा करना है. आज के जमाने में इंसानियत को शर्मसार करने की कोशिश करने वाले कम से कम पत्रकार तो नहीं हैं. इसलिए मेरा विश्वास अभी पत्रकारों के ऊपर है.
मैं भारत और पाकिस्तान के पत्रकारों से अपील करता हूं कि वे अपनी-अपनी सरकार के ऊपर दबाव डालकर एक-दूसरे के देशों में आना-जाना शुरू करें, बातचीत शुरू करें, ई-मेल से बातचीत करें, लेकिन बातचीत ज़रूर करें. बिना बातचीत के दोनों मिलकर ताकत नहीं बन सकते. ताकत बनने के लिए बातचीत ज़रूरी है और बातचीत कर शुरुआती बिंदु तलाशने की ज़रूरत है, ताकि भारत और पाकिस्तान के बीच कभी युद्ध न हो.