बिहार का गया शहर. दो दृश्य, लेकिन विषय एक-आतंकवाद. यहां आतंकवाद के विरोध मेंे काम करने वाले एक जत्थे का स्वागत हो रहा है, तो दूसरे की उपेक्षा की जा रही है. यही सच है आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का. सच को सच कहने और राष्ट्रहित के लिए जान की बाजी लगाकर काम करने वाले की मदद करने से भी लोग कतरा रहे हैं. अहमदाबाद बम ब्लास्ट के आरोपी तौसीफ को पकड़ कर पुलिस के हवाले करने वाले पत्रकार और साइबर कैफे संचालक की मदद या शाबासी की बात तो छो़डिए, उल्टे उसकी परेशानी बढ़ती जा रही है. 8 अक्टूबर 2017 को गया में सेना के ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी से ट्रेनिंग लेकर आए आतंकविरोधी जत्थे का जमकर स्वागत किया गया, तो वहीं 13 सितम्बर 2017 को आतंकी तौसीफ को पकड़ने वाले पत्रकार अनुराग बसु की मुश्किलें दिनों-दिनोें बढ़ रही हैं.
इतने बड़े आतंकी को पकड़ कर पुलिस के हवाले करने वाले को किसी तरह के सहयोग की बात तो दूर, किसी पुलिस या प्रशासन के लोगों ने उसे थैंक्स कहना भी मुनासिब नहीं समझा. कारण यह था कि आतंकी तौसीफ तथा इसके सहयोगी सन्ना खान को अपनी जान की बाजी लगाकर पकड़ने की बात को अनुराग बसु ने मिडिया के लोगों को बता दी, जबकि इस मामले में पुलिस खुद श्रेय लेना चाह रही थी.
एफआईआर में भी पुलिस ने गुप्त सूचना पर आतंकी को पकड़ने की बात कही है. इसी बात को लेकर अंदर-ही-अंदर गया पुलिस अनुराग बसु से नाराज है कि इसने क्यों सबको सच बातें बता दी. इन दिनों आतंकवाद पर चर्चा हो रही है, तथाकथित राष्ट्रवादी नेतागण भी अपने भाषण में इस पर खूब बोल रहे हैं. लेकिन राष्ट्रवाद की बात करने वाली भारतीय जनता पाटर्री, राष्ट्रीय स्वाभिमान की बात करने वाला संगठन आरएसएस, बजरंगदल, विश्व हिन्दू परिषद आदि के कोई भी नेता- कार्यकर्ता अनुराग बसु के साथ नहीं खड़े हैं. वोट की राजनीति करने वाले दलों और उनके नेताओं से तो कुछ उम्मीद करना भी बेकार है. समाज के लिए अच्छे काम करने वाले लोगों को समय-समय पर सम्मानित करने वाले गया शहर के तथाकथित समाजसेवी या संगठन भी न जाने एक क्यों एक युवा पत्रकार और साइबर कैफे संचालक के साहस भरे कारनामे से अनभिज्ञ हैं.
अब तो उस युवक की रोजी-रोटी पर भी आफत आ गई है. उसके साइबर कैफे में ग्राहक भी कम आ रहे हैं और यहां काम करने वाले कर्मचारियों ने भी आने से मना कर दिया है. हद स्थिति तो तब हो गई जब मकान मालिक ने वहां से साइबर कैफे हटा कर मकान खाली करने का नोटिस दे दिया. ये कितना हास्यास्पद है कि एक तरफ आतंकवाद पर भाषण देकर नेतागण नेतागीरी चमका रहे हैं और आतंकवाद की रोकथाम के लिए हजारों करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अहमदाबाद बम ब्लास्ट के आरोपी आतंकी को पकड़ने वाले युवक के सामने अब रोजी-राटी का संकट खड़ा हो गया है.
जिस काम को देश की खुफिया एजेंसिया-पुलिस नहीं कर सकी, उसे एक युवा पत्रकार ने कर दिखाया. लेकिन वाहवाही के बदले उसे परेशानी झेलनी पड़ रही है. आजकल हर बाजार, मॉल और भीड़ भरे जगहों पर पुलिस लाउड स्पीकर से मुनादी कराती है कि आपत्तिजनक वस्तुओं और व्यक्तियों के बारे में सूचना देने वालों को पारितोषिक दिया जाएगा. लेकिन जब अनुराग बसु जैसे युवा देशहित ऐसे जोखिम लेते हैं, तो उन्हें ही अलग-थलग छोड़ दिया जाता है. पारितोषिक तो दूर की बात, कोई उनकी सुध लेने भी नहीं जाता. ऐसा भी नहीं है कि मीडिया में इस खबर को जगह नहीं मिली, लेकिन फिर भी हर तरफ शांति है. अब जो स्थिति बन रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि शायद ही कोई अब अपनी जान पर खेलकर आतंकी या आपराधिक लोगों के बारे में पुलिस को कोई सूचना देगा.