जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष और हाल के महीनों में नरेन्द्र मोदी सरकार की भगवा-नीति के विरोध के प्रतीक बनकर उभरे या उभारे गए कन्हैया कुमार का दो दिवसीय पटना प्रवास सूबे की राजनीति में हलचल का बड़ा कारण बन गया. सत्तारूढ़ महागठबंधन ने कन्हैया को वीर नायक जैसा स्वागत-सम्मान दिया. कन्हैया को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी उत्साह में है लेकिन उसके महास्वागत से थोड़ा भ्रम में भी है. विपक्षी भारतीय जनता पार्टी सहित एनडीए के घटक दलों ने राज्य सरकार के इस स्वागतोत्साही-रुख की कड़ी निंदा की. भाजपा सहित उसके तमाम सहयोगी दलों ने कन्हैया को रेड-कारपेट आवभगत देने को देशद्रोह के एक आरोपित को ऐसा सत्कार देने के लिए महागठबंधन की कड़ी आलोचना की. कन्हैया ने अपने पटना प्रवास के दौरान यहां शहीदों और राष्ट्र-नायकों की प्रतिमा पर अपना सिर तो झुकाया ही, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद और उनके छोटे पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सूबे के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी से सद्भाव-भेंट भी की.
इन सभी से बिहार के हालात के साथ-साथ देश की मौजूदा व्यवस्था पर भी बातचीत की. मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो से उनकी मुलाकात बंद कमरे में हुई. इतना ही नहीं, कन्हैया ने राजद सुप्रीमो के चरण स्पर्श भी किए और भावी राजनीति के संदर्भ में उनसे गुर भी लिए. लालू प्रसाद ने कन्हैया पर देशद्रोह का आरोप लगाने वाली केंद्र सरकार को तो निशाने पर लिया ही, साथ ही यह भी कहा कि वह बिहार का बेटा है और बिहारी कभी देशद्रोही नहीं हो सकता. बदले में कन्हैया ने लालू प्रसाद की राजनीति की तारीफ की. कन्हैया की मुलाक़ात को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सार्वजनिक तौर पर कुछ भी नहीं कहा, कन्हैया भी खामोश ही रहे. जेनयू छात्र संघ के अध्यक्ष ने पटना में छात्र-नौजवानों की एक सभा को भी संबोधित किया और देशभक्ति-राष्ट्रभक्ति को लेकर अपना रुख साफ किया. पर, यह दौरा विवादों में भी फंसा रहा. कन्हैया कुमार की एक मई को आयोजित सभा में उन्हें काला झंडा दिखाने के आरोपी दो युवकों की पिटाई को लेकर काफी चर्चा तो हुई ही, शराब कारोबारी विनोद जायसवाल के साथ होने की वजह से उनकी काफी निंदा की गई.
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लेकिन सबसे अधिक चर्चा रही शराबखोरी को लेकर उनके बयान की. कन्हैया ने शराबबंदी का तो स्वागत किया, पर शराबखोरी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार मानकर किसी भी व्यक्ति के ऐसे व्यक्तिगत अधिकार पर रोक को न्यायसंगत नहीं बताया. उनके इस बयान ने जद (यू) को ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री को भी अप्रसन्न कर दिया. इसके बाद नीतीश कुमार को यह कहना पड़ा कि शराब-खोरी मौलिक अधिकार नहीं है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर इसकी छूट नहीं दी जा सकती. हालांकि कन्हैया की यात्रा में जद (यू) प्रवक्ता और नीतीश कुमार के खास के तौर पर चर्चित नीरज कुमार उनके साथ रहे. पर, शराब को लेकर उनके बयान के बाद जद (यू) ने खुद को उनसे अलग कर लिया. इस लिहाज से शराब के कारण उन्हें हानि ही उठानी पड़ी. अब देखना है, कन्हैया कुमार इस क्षति की भरपाई कैसे करते हैं. हालांकि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कन्हैया से जद (यू) खुद को किस हद तक और कितना अलग करता है, यह भी देखने की बात है. पटना के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल सरगर्म है कि कन्हैया का यह स्वागत सत्कार क्यों? इस सवाल का जवाब आसान नहीं तो बहुत कठिन भी नहीं है.
वस्तुतः कन्हैया को साथ लेकर सत्तारूढ़ महागठबंधन के नेता, विशेषकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद कई मोर्चे को साधना चाहते हैं. कन्हैया जहां जाते हैं, युवा समुदाय की बड़ी जमात उनके साथ जुड़ रही है. वह अपने संबोधनों में केंद्र सरकार की कई विफलताओं की चर्चा करते हैं. शिक्षा के क्षेत्र में मोदी सरकार की कमजोरियों को तो निशाने पर वह लेते ही हैं, रोजगार उपलब्ध कराने में एनडीए सरकार की विफलताओं पर भी हमला करते हैं. उच्च शिक्षण संस्थाओं के भगवाकरण की नीति को भी बार-बार चर्चा के केंद्र में लेकर विश्वविद्यालयों की स्वायतता पर हमले और शिक्षा के बजट में कटौती पर भी सवाल उठाते हैं. यह सही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के युवा वोटरों में अब भी काफी लोकप्रिय हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि इस समुदाय की वह पहली पसंद हैं. कन्हैया मोदी के इस आभा मंडल को क्षत-विक्षत करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिल रही है. ऐसे में छात्र-युवा समुदाय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर पुनर्विचार का माहौल बन रहा है और कन्हैया इसे गति देने की कोशिश कर रहे हैं.
भाजपा विरोधी राजनीति कन्हैया की इस कोशिश का अपने तरीके से लाभ हासिल करने की भरसक चेष्टा कर रही है. जद (यू) ही नहीं, नीतीश कुमार के दिल्ली अभियान के समर्थकों को भी इससे ताकत मिलने की उम्मीद दिखती है. बिहार में इस तरह के स्वागत-सत्कार का एक पक्ष कन्हैया कुमार की सामाजिक पष्ठभूमि भी है. कन्हैया बिहार के बेगूसराय जिले के हैं. सूबे की जिस सामाजिक जमात से वह आते हैं, वह कभी लालू प्रसाद की राजनीति का समर्थक नहीं रही है. पिछले कई दशकों से लालू प्रसाद की राजनीति के विरोध में वह खड़ी रही है. यह सामाजिक समूह कुछ साल पहले तक राजनीतिक कारणों से राजद सुप्रीमो के विरोध और नीतीश कुमार के समर्थन में था. लेकिन पिछले संसदीय और विधानसभा चुनावों में यह सामाजिक समूह नीतीश कुमार से पूरी तरह छिटक गया. फिलहाल यह समूह भाजपा और इस नाते एनडीए के साथ खड़ा दिख रहा है. राष्ट्रीय राजनीति के ख्याल से कन्हैया के समर्थन का जो भी कारण हो, पर बिहार में यह उस विशेष सामाजिक समूह के कटु महागठबंधन विरोधी मानस को मुलायम करने की राजनीतिक पहल हो सकती है. यह कहना कठिन है कि इस कोशिश में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को कितनी सफलता मिलेगी. पर, राजनीति तो उम्मीद की बदौलत ही की जाती है. फिर ऐसा करने में क्या परेशानी है!
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कन्हैया कुमार वाम राजनीति के अंग हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन से जुड़े हैं. उनकी इस यात्रा ने भाकपा को काफी उत्साहित कर रखा था. भाकपा के अलावा अन्य वाम दलों के छात्र-युवा संगठन भी इसे सफल बनाने में लगे रहे. कन्हैया की सभा व अन्य कार्यक्रमों में लगभग सभी वाम दलों की उत्साहपूर्ण भागीदारी रही. वस्तुतः बिहार में वाम राजनीति जड़ता के दौर से गुजर रही है. पिछले कई चुनावों में बिहार में उसकी स्थिति निरन्तर कमजोर होती रही है. पिछले कई दशकों से सूबे की वाम राजनीति किसी के सहारे ही चलती रही है. बिहार में वाम राजनीति का बड़ा धड़ा भाकपा कभी कांग्रेस के साथ थी. फिर, मंडल राजनीति के उग्र दौर में भाकपा के साथ-साथ माकपा भी लालू प्रसाद के साथ हो गई. इन दोनों वाम दलों के लिए हालात कतई सम्मानजनक नहीं रह गए थे. सामाजिक न्याय के नाम पर उत्पन्न राजनीतिक आंदोलन के उस दौर में भी भाकपा (मा.ले.) ऐसे किसी मंडलवादी राजनेता से अलग रही. पर सामाजिक समूहों की उत्कट गोलबंदी के कारण भाकपा, माकपा के साथ उसकी भी हालत खराब होती चली गई. इस अधोगति से उबरने के ख्याल से पिछले विधानसभा चुनावों में बिहार के वाम दलों ने मध्यमार्गी पार्टी, विशेष तौर पर कांग्रेस के साथ-साथ राजद और जद (यू) से दूरी बना ली.
सूबे के संसदीय इतिहास में पहली बार छह वाम दलों ने अपना अलग, ढीला-ढाला ही, मोर्चा बनाया. मोर्चे के बावजूद भाकपा और माकपा सहित पांच वाम दलों को कोई सफलता तो नहीं मिली, पर भाकपा (मा.ले.) को तीन सीटें मिलीं. इसके बावजूद इस बार के विधानसभा चुनावों में वामदलों की स्थिति पहले के बनिस्बत बेहतर रही. विधानसभा चुनावों में यह बात तो स्पष्ट हुई कि वामदलों के एकजुट अभियान-आंदोलन इसकी वापसी के आधार बन सकते हैं. हालांकि ऐसा कोई अभियान होता दिख नहीं रहा है. ऐसे में कन्हैया की मदद से वाम दल सूबे में युवा वोटरों को नए सिरे से गोलबंद कर सकते हैं. यह गोलबंदी वाम राजनीति की जड़ता को तोड़ने की दिशा में कुछ सकारात्मक भूमिका निभा सकती है. लेकिन इसे राजनीतिक वापसी का आधार बनाना आसान नहीं है. सारा कुछ इसपर निर्भर करेगा कि बिहार के वाम दल कन्हैया का उपयोग कैसे करते हैं, करते भी हैं या नहीं. इसके लिए वाम दलों को काफी कुछ करना होगा. वाम दलों की इस कमजोरी के दौर में कन्हैया कुमार के बहाने इस, छोटे ही सही, मतदाता समूह को आकर्षित करने की कोशिश तो कोई कर ही सकता है. नीतीश कुमार-लालू प्रसाद की राजनीतिक मंशा यह भी हो, तो कोई बड़ी बात नहीं.