पिछले दिनों जेएनयू में छात्रों द्वारा विरोध और नारेबाजी की रिपोर्टिंग छाई रही. नारा लगाने और प्रदर्शन करने वालों पर पुलिस द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा कड़ी कार्रवाई की गई. जांच-पड़ताल के बाद पता चला कि पुलिस कार्रवाई के लिए न तो एलजी ने आदेश दिया था और न गृह मंत्रालय या पीएमओ ने. तो क्या पुलिस कमिश्नर बीएस बस्सी ने खुद यह फैसला लिया या भाजपा के किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति के इशारे पर? जो भी हो, कुल मिलाकर इसका नतीजा यह निकला कि पुलिस ने नारेबाजी करने वाले छात्रों के खिला़फ अत्यधिक बर्बर रुख का प्रदर्शन किया. उक्त छात्र राह से भटके हो सकते हैं, क्योंकि इस उम्र में बच्चे राह से भटका भी दिए जाते हैं. ग्रुप के नेता कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया. देशद्रोह बहुत ही गंभीर आरोप है.
इसके लिए बहुत ही गंभीर और ठोस सुबूतों की ज़रूरत होती है. महज नारेबाजी करने का मतलब देशद्रोह नहीं होता. भारतीय क़ानून के तहत छात्र की बात तो छोड़ दें, यदि समाज का कोई ज़िम्मेदार व्यक्ति, हम में से कोई एक आदमी यह कहता है कि कश्मीर पाकिस्तान से संबंधित है, तो क्या पुलिस कमिश्नर बस्सी उसे जेल में डाल देंगे? केवल अपने विचार व्यक्त करना देशद्रोह नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय बताते हैं कि देशद्रोह वह है, जिसमें राज्य के खिला़फ समाज में हिंसा भड़काई जाती हो. केवल नारेबाजी करना या किसी उद्देश्य के साथ सहानुभूति रखना देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता. भारतीय दंड संहिता का सेक्शन 124 मैकाले द्वारा लाया गया था, जो राष्ट्रद्रोह से संबंधित है. कई सारे मामले हैं (यहां तक कि ब्रिटेन में भी), जिन पर अदालतों ने बहस की और उसे परिभाषित किया है. भारत में हमने एक ऐसे संविधान को अपनाया, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की स्वतंत्रता है. इसमें स़िर्फ एक ऐसा क्लॉज है, जो फ्रीडम ऑफ स्पीच पर मामूली प्रतिबंध लगाता है और वह भी किसी विशेष हालत में.
फली एस नरीमन देश के बहुत बड़े वकील हैं. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख में उन्होंने सेक्शन 124 के अर्थ और लक्ष्य पर रोशनी डाली है. उन्होंने बहुत ही सही और विनोदपूर्ण लहजे में लिखा है कि यदि छात्र भारत के टुकड़े होने की बात करते हैं या ऐसा कुछ कहते हैं, जो भारत के हित में नहीं है, तो ज़रूरत इस बात की है कि कोई व्यक्ति ऐसे छात्रों के परिवार वालों को बताए कि वे अपने बच्चे के दिमाग़ की जांच कराएं. निश्चित तौर पर वह किसी ग़लत संगत में पड़ा हुआ है, उसे कोई रास्ते से भटका रहा है और वह ऐसा काम कर रहा है, जो उसे नहीं करना चाहिए. उसे जेल भेजने या उस पर देशद्रोह का आरोप लगाने की ज़रूरत नहीं है.
राजनाथ सिंह तुरंत हरकत में आए और उन्होंने कहा कि उनके पास इस बात के सुबूत हैं कि उक्त छात्रों को आतंकियों की मदद हासिल है. उन्होंने हाफिज सईद के नाम वाले फर्जी एकाउंट का सहारा भी लिया. वह देश के गृह मंत्री हैं. उन्हें समझना चाहिए कि सोशल नेटवर्किंग और इंटरनेट के समय में फर्जी एकाउंट्स आम बात है और कोई आतंकी संगठन यह दावा नहीं करेगा कि हमने यह काम किया है. लेकिन, इसके बाद मामला उलट गया.
कन्हैया को हिरासत में लेने के बाद दिल्ली के पुलिस कमिश्नर कहते हैं कि अगर वह जमानत के लिए अर्जी देता है, तो हम उसका विरोध नहीं करेंगे. आ़खिर क्यों? अगर वह एक आतंकी है, तो उसका विरोध कीजिए या फिर यह बयान दीजिए कि उसे ग़लत समझा गया, वह मिस-गाइडेड (राह से भटका हुआ) है, वह निर्दोष है. बीएस बस्सी ने जो काम किया है, उससे स़िर्फ दिल्ली के पुलिस कमिश्नर पद की गरिमा कम हुई है.
इसके लिए बीएस बस्सी ही ज़िम्मेदार हैं. उनके उत्तराधिकारी के नाम पर फैसला हो गया है. नए पुलिस कमिश्नर आलोक वर्मा होंगे. किसी ने कहा कि उनके लिए आगे कठिन राह है. मैं समझता हूं कि आलोक वर्मा सबसे पहले जो काम कर सकते हैं, वह यह कि दिल्ली पुलिस कमिश्नर कार्यालय की गरिमा वापस लाएं. ऐसा करना देश के लिए उनकी सेवा होगी. बीएस बस्सी न पहले कमिश्नर हैं और न अंतिम. वह पुलिस कमिश्नर बनने के एक खराब उदाहरण हैं. निश्चित तौर पर वह ये सारे काम अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए कर रहे थे. वह रिटायरमेंट के बाद सूचना आयुक्त बनना चाहते थे.
दूसरी थ्योरी. संसद सत्र से ठीक पहले यह सब क्यों हुआ? कोई है, जो संसद सत्र को पटरी से उतारना चाहता था. कई सारे नाम लिए जा रहे हैं, लेकिन हमें यहां इस पर बहस नहीं करनी चाहिए. मूल सवाल है कि यदि किसी व्यक्ति, जो सरकारी पद पर न हो, ने बस्सी से ऐसा करने के लिए कहा भी, तो उन्हें उसे बताना चाहिए था कि पुलिस यह नहीं कर सकती. और, अगर ऐसा किया गया, तो यह उल्टे सत्तारूढ़ दल को ही ऩुकसान पहुंचाएगा, क्योंकि संसद सत्र आ रहा है. किसने बस्सी को यह सब करने के लिए कहा या प्रेरित किया, इसका पता लगाना काफी मुश्किल है.
एबीपी न्यूज पर कन्हैया की पूरी पृष्ठभूमि दिखाई गई. वह बिहार के बेगूसराय का रहने वाला है. उसका रिकॉर्ड काफी अच्छा है. उसने जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष पद का चुनाव जीता, बिना किसी बड़े आधार और खास मदद के. उसकी पार्टी में केवल पांच-सात लोग थे, जो सक्रिय थे. वह एआईएसएफ का उम्मीदवार था, जो सीपीआई से संबद्ध है. अन्य पार्टियां काफी ताकतवर थीं, लेकिन छात्रों ने उसमें भरोसा जताया और वह छात्रसंघ का अध्यक्ष चुना गया. जिसे लोगों ने चुना है, उसे पुलिस कमिश्नर बेइज्जत नहीं कर सकते. हालांकि, वह दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के साथ यही करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन, इससे चीजें कारगर नहीं होतीं. हालात सुधारने के लिए यह बेहतर होगा कि संसद सत्र शुरू होने से पहले बस्सी को अवकाश पर भेजा जाए या उससे भी बेहतर यह होगा कि उन्हें उनके पद से हटा दिया जाए. ज़ाहिर है, उनका कार्यकाल 29 फरवरी को समाप्त हो जाएगा, लेकिन संसद में केवल बस्सी हटाओ-बस्सी हटाओ के नारे लगेंगे.यह समझ में नहीं आता कि इस सरकार के लिए रणनीति कौन बना रहा है? मैं यह नहीं मान सकता कि नरेंद्र मोदी, जिन्हें पूरे देश ने स्वीकार किया, जो 12 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, इन सब बातों के निहितार्थ नहीं समझते.
इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कम से कम उन्होंने इस सबके लिए आदेश नहीं दिए होंगे और न राजनाथ सिंह ने ऐसा किया होगा. तो फिर किसने ऐसा करने के आदेश दिए? यह एक ऐसा विषय है, जिस पर आने वाले दिनों में चर्चा होती रहेगी. उम्मीद करते हैं कि संसद सत्र में कुछ काम होगा. ज़ाहिर है, बजट पेश किया जाएगा और उसे पारित किया जाएगा. बजट को राज्यसभा से पारित कराने की आवश्यकता नहीं होती. देश का आर्थिक और वित्तीय काम जारी रहता है. इसलिए इसमें कोई समस्या नहीं है. लेकिन, जीएसटी कहां है? अरुण जेटली को एक केंद्रीय (सेंट्रल) जीएसटी की
घोषणा करनी चाहिए, ताकि राज्य अपनी देखरेख खुद कर सकें और केंद्र सरकार यह दावा भी कर लेगी कि उसने टैक्स सुधार कर दिए. ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वित्त मंत्री देश के वेतनभोगी वर्ग को कर सीमा में कुछ छूट देने जा रहे हैं. मैं उम्मीद करता हूं कि वह इसमें दरियादिली से काम लेंगे, क्योंकि वेतनभोगी वर्ग ऐसा वर्ग है, जो कहीं से बच भी नहीं सकता. जिस तरह महंगाई लगातार बढ़ रही है, उससे आम आदमी का जीवन कठिन होता जा रहा है.
मैं वित्त मंत्री से अनुरोध करना चाहूंगा कि वह वेतनभोगी और व्यक्तिगत करदाताओं के प्रति नरमी दिखाएं. अधिकतम आबादी को मदद मिलनी चाहिए. अगर वह कृषि में अधिकतम निवेश के उपाय करते हैं, तो यह मेरे लिए सबसे अधिक खुशी की बात होगी. कृषि क्षेत्र की पहले ही काफी उपेक्षा हो चुकी है. अभी भी अगर हम इसके लिए तत्काल काम शुरू नहीं करते हैं, तो दस-बीस वर्षों के बाद हालत भयावह हो जाएगी. उम्मीद बनाए रखिए. बजट का इंतज़ार करते हैं.