[इतिहास की बेहतर समझ हो सकती है, यदि हम इसे किसी नायक-ख़लनायक की फिल्म की तरह न देखें. जीवन सिनेमा से अधिक जटिल है. हमारी आज़ादी की लड़ाई के नायक भी हालत के हिसाब से बदले हैं. मैं कोई तुलना नहीं कर रहा, लेकिन बस यह देखने की कोशिश कर रहा हूं कि नेता अपना तरीक़ा बदलते हैं. अहिंसक गांधी-जिन्होंने तीन दशकों बाद साम्राज्य को ध्वस्त किया-को कैसर-ए-हिंद पुरस्कार तीन जून 1915 को मिला था (टैगोर को उसी दिन नाइटहुड की उपाधि मिली), क्योंकि उन्होंने महायुद्ध के लिए सैनिकों की भर्ती में सहायता की थी. सुभाष बोस 1920 तक गांधी के कट्टर अनुयायी थे, जिन्होंने बाद में फासिस्टों की सहायता से अपनी फौज बनाई. जिन्ना, जो एकता के राजदूत थे, बाद में विभाजनवादी बन गए. यह इतिहास का न्याय है…]
 
[जिन्ना के अंदर बैठे संविधानवादी ने जन संघर्ष को ख़ासा महत्वाकांक्षी पाया और उनके अंदर के उदारवादी ने राजनीति में धर्म के घालमेल को नकार दिया. जिन्ना जब 1920 में नागपुर सत्र में बोलने के लिए खड़े हुए-जहां गांधी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा था-तो वह एकमात्र प्रतिनिधि थे, जो 50,000 की उस भीड़ (हिंदुओं और मुसलमानों) में अंत तक विरोध करते रहे. उनके विरोध के दो मुख्य आधार थे. उन्होंने कहा कि प्रस्ताव स्वराज या पूर्ण स्वाधीनता की अनधिकारिक घोषणा है और हालांकि वह लाला लाजपत राय द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की भर्त्सना से पूरी तरह सहमत हैं, लेकिन उनकी नज़र में कांग्रेस के पास लक्ष्य पाने लायक़ताक़त नहीं है.]
jinna ek bachain aatma -2मोतीलाल नेहरू ने जिन्ना के साथ काउंसिल में बेहद क़रीबी ढंग से काम किया. बड़े दिल वाले मोतीलाल ने जब अपने साथी लेजिस्लेटर्स की बैठक इलाहाबाद की अपनी ख़ूबसूरत कोठी  में बुलाई थी, तो उन्होंने जिन्ना को किसी और की तरह का ही खांटी राष्ट्रवादी बताया था. मोतीलाल ने कहा था- जिन्ना अपने समुदाय को हिंदू-मुस्लिम एकता का रास्ता दिखा रहे हैं. इलाहाबाद की इस मीटिंग के बाद ही जिन्ना छुट्टियां बिताने अपने दोस्त सर दिनशॉ मानेकजी पेटिट (फ्रांसीसी व्यापारियों ने दिनशॉ के दुबले-पतले दादा को पेटिट उपनाम दिया था) के गर्मियों वाले घर दार्जीलिंग गए थे. वहीं उनकी मुलाक़ात 16 वर्ष की रुट्टी से हुई थी. मेरा अनुमान है कि एवरेस्ट की महाकाय मौजूदगी रोमांस को हवा देने में सहायक रही होगी. रुट्टी जब 18 वर्ष की हुईं, तो घर से भाग गईं और 19 अप्रैल 1918 को जिन्ना से उनकी शादी हो गई. रुट्टी के परिवार ने उनको अपना मानने से इंकार कर दिया. हालांकि, एक दशक के बाद रुट्टी ने जिन्ना को भी छोड़ दिया. (उनकी शादी की अंगूठी महमूदाबाद के राजा की तऱफसे एक उपहार थी).
लीग के सदर के तौर पर जिन्ना ने कांग्रेस के अध्यक्ष ए सी मजूमदार के साथ मशहूर लखनऊ पैक्ट को अंजाम दिया. सदर के तौर पर दिए गए अपने भाषण में जिन्ना ने देशभक्ति की नई भावना को ही व्यक्त किया, जो एक साझा लक्ष्य के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को साथ लाती थी. मजूमदार ने घोषणा की कि हरेक मतभेद सुलझा लिया गया है और हिंदू व मुसलमान मिलकर भारत में एक प्रतिनिधि सरकार की मांग रखेंगे.
यहीं गांधी का आगमन होता है, जो कभी भी काउंसिल में नहीं बैठे थे. जो पूरे यक़ीन से मानते थे कि आज़ादी केवल अहिंसक आंदोलन से जीती जा सकती है, जिसके लिए आम जनता को तैयार करना होगा.
1915 में गोखले ने गांधी को सलाह दी कि वह मुंह बंदकर और आंखें खोलकर पूरे भारत को देखें. गांधी रंगून जाते हुए कलकत्ता में रुके और छात्रों से बात की. उन्होंने कहा कि राजनीति को धर्म से कभी तलाक़नहीं मिलना चाहिए. गांधी की बात से उन मुसलमानों ने आवश्यक संकेत ले लिए, जो धर्म का गठजोड़ राजनीति से कर ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िला़फ आंदोलन चलाना चाहते थे- ख़िला़फत के माध्यम से.
अगले तीन वर्षों तक गांधी ने स्वाधीनता की लड़ाई के अपने तरीक़े के लिए ज़मीन तैयार की. उन्होंने लड़ाई को काउंसिल से हटाकर गलियों की ओर मोड़ दिया. गांधी ने अशिक्षित तबकों को जोड़ने के लिए जानबूझकर उनके परिचित धार्मिक प्रतीकों (हिंदुओं के लिए रामराज्य, मुसलमानों के लिए ख़िला़फत) का इस्तेमाल किया और ग़रीब किसानों के लिए अपनी हद से बाहर जाकर काम किया, जिनके लिए चंपारण एक चमत्कार बन गया. जालियांवाला बाग में 1919 में हुए नरसंहार ने एक बेहद शानदार मौक़ा उपलब्ध करा दिया. भारतीय जनता का गुस्सा ऐतिहासिक स्तर तक पहुंच गया था. गांधी ने पहले जन-सत्याग्रह में कांग्रेस का नेतृत्व किया. इस तरह 1921 का असहयोग आंदोलन शुरू हुआ.
जिन्ना के अंदर बैठे संविधानवादी ने जन संघर्ष को ख़ासा महत्वाकांक्षी पाया और उनके अंदर के उदारवादी ने राजनीति में धर्म के घालमेल को नकार दिया. जिन्ना जब 1920 में नागपुर सत्र में बोलने के लिए खड़े हुए-जहां गांधी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा था-तो वह एकमात्र प्रतिनिधि थे, जो 50,000 की उस भीड़ (हिंदुओं और मुसलमानों) में अंत तक विरोध करते रहे. उनके विरोध के दो मुख्य आधार थे. उन्होंने कहा कि प्रस्ताव स्वराज या पूर्ण स्वाधीनता की अनधिकारिक घोषणा है और हालांकि वह लाला लाजपत राय द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की भर्त्सना से पूरी तरह सहमत हैं, लेकिन उनकी नज़र में कांग्रेस के पास लक्ष्य पाने लायक़ ताक़त नहीं है. जिन्ना के शब्द थे- यह इस व़क्त उठाया जाने लायक़सही क़दम नहीं है. आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक ऐसे लक्ष्य के साथ बांध दे रहे हैं, जिसे आप पूरा नहीं कर पाएंगे. (एक साल में स्वराज दिलाने का वादा कर गांधी ने असहयोग आंदोलन को केरल के सांप्रदायिक दंगों और चौरी-चौरा कांड के बाद 1922 में वापस ले लिया था. कांग्रेस ने औपचारिक तौर पर पूर्ण स्वराज को अपने लक्ष्य के तौर पर 1931 में ही स्वीकार किया था). जिन्ना की दूसरी आपत्ति यह थी कि अहिंसा सफल नहीं होगी. इस मसले पर जिन्ना ग़लत थे.
इस भाषण में एक ध्यान देने लायक़ अनुच्छेद है, जिस पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की गई, कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं ही. जिन्ना ने जब पहली बार गांधी का संदर्भ दिया, तो उन्होंने गांधी को महाशय कह कर पुकारा. तुरंत ही भीड़ ने महात्मा गांधी की आवाज़ बुलंद कर दी. पल भर भी झिझके बिना, जिन्ना ने महात्मा गांधी कहना शुरू कर दिया. बाद में उन्होंने मुहम्मद अली (मशहूर अली बंधुओं में अधिक अदा वाले) को भी महाशय कह कर संबोधित किया. भीड़ से आवाज़ आई, मौलाना, मौलाना. जिन्ना ने कोई तवज्जो नहीं दी. उन्होंने कम से कम पांच बार और अली साहब को संबोधित किया, लेकिन हर बार बस महाशय अली ही कहते रह गए.
आइए, इस मसले पर हम आख़िरी राय गांधी के ऊपर ही छोड़ दें. 1940 में गांधी ने हरिजन में लिखा- क़ायद-ए-आज़म ख़ुद एक महान कांग्रेसी थे. वह तो केवल असहयोग आंदोलन के बाद, कई और कांग्रेसियों की तरह-जो अलग समुदायों से थे- कांग्रेस छोड़कर चले गए. उनका जाना पूरी तरह राजनीतिक था. दूसरे शब्दों में कारण सांप्रदायिक नहीं थे. यह हो भी नहीं सकता था, क्योंकि लगभग हरेक मुसलमान गांधी के साथ था, जब जिन्ना कांग्रेस छोड़कर गए थे.
इतिहास की बेहतर समझ हो सकती है, यदि हम इसे किसी नायक-ख़लनायक की फिल्म की तरह न देखें. जीवन सिनेमा से अधिक जटिल है. हमारी आज़ादी की लड़ाई के नायक भी हालत के हिसाब से बदले हैं. मैं कोई तुलना नहीं कर रहा, लेकिन बस यह देखने की कोशिश कर रहा हूं कि नेता अपना तरीका बदलते हैं. अहिंसक गांधी-जिन्होंने तीन दशकों बाद…..
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