जिस संस्था को नियम कानून बनाने का अधिकार है, जहां नीति नियम बनते हैं, उसी लोकतंत्र के मंदिर में सारे नियम कानून तोड़कर व्यापक पैमाने पर अवैध नियुक्तियां हुईं. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी एवं आलमगीर आलम के कार्यकाल में अवैध नियुक्तियों की झड़ी लग गई थी, लगभग 700 से ज्यादा लोगों की बहाली हुई. सांसदों, विधायकों, नेताओं, अधिकारी एवं रसूखदार लोगों के रिश्तेदार व करीबियों को चपरासी, सफाईकर्मी जैसे पदों पर बहाल किया गया, जो कभी इन पदों पर काम करते ही नहीं हैं. बिना ड्राइविंग लाइसेंस वाले लोगों को ड्राइवर पद पर नियुक्त किया गया, ऐसे लोगों को भी ड्राइवर पद पर नियुक्त किया गया, जो स्कूटर तक चलाना नहीं जानते थे. इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि झारखण्ड गठन के बाद झारखण्ड विधानसभा में नियुक्तियों में किस तरह से अनियमितताएं बरती गई. सारे नियम-कानून को ताक पर रख दिया गया.
चतुर्थवर्गीय पदों पर रसूखदारों के करीबियों की नियुक्ति तो हुई, पर वे इस पद पर काम कैसे करते. अवैध नियुक्ति के बाद इन लोगों की अवैध ढंग से प्रोन्नति भी कर दी गई. चपरासी विधानसभा के अवर सचिव तक के पद पर प्रोन्नति पा गए. जब बड़े पैमाने पर अवैध नियुक्ति और प्रोन्नति की बातें सामने आइर्ं और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरु हुआ तो तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम ने कांग्रेस विधायक राधाकृष्ण किशोर की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी का गठन किया, पर जांच में विधानसभा सचिवालय द्वारा सहयोग नहीं किए जाने से आहत होकर राधाकृष्ण किशोर ने इस्तीफा दे दिया और यह सिफारिश की कि किसी स्वतंत्र एजेंसी या रिटायर्ड जस्टिस से इस पूरे मामले की जांच कराई जाए.
जब इस मामले को लेकर विभिन्न दलों ने जन आंदोलन कर इस पूरे घोटाले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की तो तत्कालीन राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश लोकनाथ प्रसाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया, पर लोकनाथ प्रसाद ने यह कहते हुए आयोग से इस्तीफा दे दिया कि इस घोटाले को लेकर विधानसभा सचिवालय अपेक्षित सहयोग नहीं दे रहा है. उनके इस्तीफा देने के बाद अवकाश प्राप्त न्यायाधीश बिक्रमादित्य प्रसाद को जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. आयोग ने जांच में पाया कि विधानसभा में हुई नियुक्तियों में घोर अनियमितता बरती गई. रसूखदारों एवं बड़े लोगों की अवैध ढंग से नियुक्ति की गई. आयोग ने सात हजार पेजों का जांच रिपोर्ट राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को सौंप दिया है.
सूत्रों के अनुसार, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस अवैध नियुक्ति को लेकर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी एवं आलमगीर आलम को दोषी माना है, जबकि एक अन्य अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता को बिना नियम कानून के प्रोन्नति देने के मामले में दोषी मानते हुए अपराधिक धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज करने की अनुशंसा की है. आयोग ने यह माना है कि राज्यपाल से स्वीकृत झारखंड विधानसभा की नियुक्ति एवं प्रोन्नति नियमावली में भी छेड़छाड़ की गई है. नियमावली में कुछ शब्दों को जोड़कर अवैध नियुक्तियां एवं प्रोन्नति दे दी गई.
आयोग ने नियमावली में छेड़छाड़ को काफी गंभीर बताते हुए राज्यपाल से दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की है. आयोग ने कहा कि विधानसभा में कर्मचारियों की पदोन्नति विधानसभा नियमावली 2003 के प्रावधानों के अनुसार होती है पर वर्ष 2014 में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने इसमें अपने स्तर से संशोधन कर दिया, जबकि संशोधन करने का अधिकार केवल राज्यपाल को ही है. अध्यक्ष ने संशोधन में यह नियम बना दिया कि सहायक से प्रशाखा पदाधिकारी के पद पर 50 प्रतिशत वरीयता एवं 50 प्रतिशत सीमित परीक्षा के आधार पर प्रोन्नत किया जाएगा. इसी संशोधन की आड़ में रेवड़ियों की तरह लोगों को प्रोन्नति दे दी गई है.
आयोग ने पूरी नियुक्ति को ही अवैध करार देते हुए कहा कि परीक्षा में सारे प्रश्न ऑब्जेक्टिव थे. एक ही प्रश्न का उत्तर ख और घ में लिखने वाले सभी को पूरे मार्क्स दे दिए गए, यानि मूल्यांकन पूरी तरह से मनमाने ढंग से हुआ. पंद्रह व्यक्ति अतिविशिष्ट व्यक्ति के करीबी थे, इनकी उत्तर पुस्तिका देखे बिना पूरे अंक देकर नियुक्त कर लिया गया. आरक्षण रोस्टर का पालन नहीं हुआ, बाहर के लोगों को भी आरक्षण दे दिया गया. आयोग ने जांच में यह भी पाया कि एक दिन में ही 200 से 600 लोगों का साक्षात्कार लिया गया, जबकि एक ही साक्षात्कार बोर्ड का गठन किया गया था. यही नहीं, साक्षात्कार बोर्ड में शामिल लोग व्यस्त रहे तो उनकी जगह टाईपिंग शाखा के दो लोगों ने साक्षात्कार लिया. राज्यपाल की ओर से इस पर सवाल भी उठाए गए थे.
इधर पूर्व अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता ने कहा कि उन्होंने कोई नियम विरुद्ध कार्य नहीं किया है. आयोग द्वारा जो नोटिस भेजा गया था, उसका जवाब दे दिया गया है. सारी कार्रवाई नियमसंगत की गई है. विधानसभा और राज्य सरकार में प्रोन्नति की नियमावली अलग-अलग है. तत्कालीन अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी वैसे तो इस मामले में कुछ बोलना नहीं चाहते थे. उनका कहना है कि अभी जिन माध्यमों से सूचनाएं आ रही है, वह अस्पष्ट है. पूरी रिपोर्ट आने के बाद ही इस पर कुछ कहना उचित होगा.
उन्होंने यह जरूर कहा कि हम पर जो आरोप लगे हैं, वे पूरी तरह से निराधार है. जबकि आलमगीर आलम ने साफ तौर एवं सपाट शब्दों में कहा कि हमने कुछ गलत नहीं किया है. जितनी नियुक्तियां उनके कार्यकाल में हुई, उसमें विधानसभा के मैनुअल 2003 का पूरी तरह से पालन किया गया है. आयोग के पत्र का जवाब लिखित रुप से दे चुके हैं. आयोग ने अगर जांच रिपोर्ट सौंपी है तो दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए. रिपोर्ट सार्वजनिक होने दीजिए, उसके बाद मैं सारी बातों का जवाब दूंगा, अभी किसी पर ऊंगली उठाना गलत होगा.
झारखंड विधानसभा में बड़े पैमाने पर अवैध नियुक्तियां हुई थी. नियम कानूनों को ताक पर रखकर नियुक्तियां की गई. विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष रहे इंदिर सिंह नामधारी एवं आलमगीर आलम सहित शशांक शेखर भोक्ता के समय हुई नियुक्तियों पर सवाल उठे. नामधारी ने 274 एवं आलमगीर आलम ने 324 नियुक्तियां की. शशांक शेखर भोक्ता के कार्यकाल में भी अवैध नियुक्तियां हुईं. इन नियुक्तियों में नेताओं के करीबियों को उपकृत किया गया, इतना ही नहीं, एक खास इलाके के लोगों को भी बहाल किया गया. राज्यपाल ने अनुसेवक के 75 पद स्वीकृत किए थे, पर विधानसभा के वरीय अधिकारी अमरकांत झा ने 75+75 बहुत ही चालाकी से कर 150 पदों पर नियुक्तियां कर दी. अमरकांत झा ने तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष का आशीर्वाद ले सारी अवैध नियुक्तियां की, जाहिर है कि इन अवैध नियुक्तियों में विधानसभा अध्यक्ष का सहयोग रहा होगा और उनके इशारे पर ही सारी नियुक्तियां हुईं होगीं. लेकिन हद तो तब हो गई जब राज्यपाल के आदेश में हेराफेरी कर वेतन निर्धारण, प्रोन्नतियों में भी घोटाला किया गया.
भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं रघुवर दास मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्री सरयू राय ने एक ऐसी सीडी जारी की, जिसमें पैसे लेकर नियुक्तियां करने एवं प्रोन्नति को लेकर बातचीत को टेप किया हुआ था. इस सीडी के जारी होते ही पूरे राज्य में इस घोटाले की चर्चा होने लगी. झारखण्ड विधानसभा में नियुक्तियों में बड़े पैमाने पर अनियमितता की खबरें सामने आइर्ं. इसके बाद राज्यपाल ने जस्टिस लोकनाथ प्रसाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया, लेकिन जांच के दौरान दस्तावेज एवं अन्य कागजातों को विधानसभा सचिवालय द्वारा दिए जाने में आनाकानी के बाद जस्टिस लोकनाथ प्रसाद ने जांच आयोग से अपना इस्तीफा दे दिया. इसके बाद जस्टिस बिक्रमादित्य प्रसाद की अध्यक्षता में दूसरी बार एक सदस्यीय आयोग का गठन किया गया. सरकार ने इस आयोग को विशेष अधिकार भी दिए.
जस्टिस प्रसाद ने जब जांच शुरु की तो नियुक्तियों में हुई व्यापक पैमाने पर धांधली का पता चला. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सबसे अधिक चतुर्थवर्गीय कर्मियों की नियुक्ति में नियमों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया. उत्तर पुस्तिका पूरी तरह से खाली रहने पर भी नियुक्ति कर ली गई. ड्राईवर की भी नियुक्ति बिना टेस्ट ड्राइव के की गई, जबकि ड्राईवर की नियुक्ति के समय एमवीआई या जिला परिवहन पदाधिकारी के समक्ष टेस्ट के बाद ही ड्राइवरों की नियुक्ति होनी चाहिए थी, बगैर ड्राईविंग लाईसेंस के भी ड्राईवर के पद पर नियुक्ति की गइर्ं. आयोग ने यह भी कहा कि ऐसे लोग भी हैं, जिनकी नियुक्ति तो हुई ही, उनके रिश्तेदारों को भी नियुक्त कर लिया गया है. रिपोर्ट में सभी 18 कर्मचारियों और उनके रिश्तेदारों की भी सूची दी गई है. कोई सहायक के पद पर नियुक्त हुआ तो उनके रिश्तेदारों की नियुक्ति चपरासी एवं सफाईकर्मी के पदों पर हुई. आयोग ने यह भी माना कि तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ने अपने गृहक्षेत्र पलामू के बारह लोगों की नियुक्ति अवैध ढंग से कर दी.
आयोग ने अपने रिपोर्ट में यह भी कहा कि पलामू के बारह लोगों को नियुक्ति-पत्र विधानसभा सचिवालय से रजिस्टर्ड डाक से भेजी गई और यह आश्चर्य की बात है कि महज बारह घंटे के भीतर डाक से नियुक्ति पत्र भी मिल गया और एक दिन के बाद सभी ने अपने-अपने पदों पर योगदान भी दे दिया. इस प्रकार अगर विधानसभा सचिवालय कार्रवाई करती है, तो लगभग तीन सौ कर्मियों की बहाली रद्द हो सकती है. वैसे आयोग ने मानवीय आधार का हवाला देते हुए यह भी कहा है कि नियुक्ति किए गए लोग दोषी नहीं हैं, नियुक्त करने वाले अधिकारी इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, यह आयोग का एक मानवीय पक्ष है.
विधानसभा नियुक्ति घोटाले की रिपोर्ट सार्वजनिक हो
झारखण्ड विधानसभा नियुक्ति घोटाला में रिटायर्ड जस्टिस विक्रमादित्य प्रसाद द्वारा राजभवन को सौंपी गई रिपोर्ट सावर्जनिक करने की मांग मंत्री सरयू राय ने की है. बकौल मंत्री, जांच आयोग ने राजभवन को पूरी रिपोर्ट सौंपी है. यह कई खंडों में है. यह देखा जाना चाहिए कि नियुक्तियों में प्रक्रिया का कितना पालन हुआ है और सरकार के स्तर से क्या पहल हो रहा है? बेहतर होगा कि रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर रखा जाए. रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होने की स्थिति में रिपोर्ट को लेकर अलग-अलग टकलें लगाई जाती रहेगी.
उन्होंने कहा कि भूख से मौत को परिभाषित करने के लिए खाद्य आपूर्ति विभाग ने एक रिपोर्ट तैयार की. उस रिपोर्ट को तत्काल सार्वजनिक भी किया गया. विधानसभा नियुक्ति घोटाले की रिपोर्ट में भी इस प्रक्रिया को अपनाया जा सकता है. इससे जांच कमेटी की अनुषंसा को लेकर स्थिति स्पष्ट होगी और राज्य सरकार के स्तर से की जाने वाली कार्रवाई के बारे में पता चल सकेगा. मंत्री सरयू राय द्वारा सौंपी गई ऑडियो सीडी के बाद ही तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम ने नियुक्ति घोटाले की जांच को लेकर विधानसभा की कमेटी का गठन किया था. उस कमेटी के सभापति राधाकृष्ण किशोेर थे. राधाकृष्ण किशोेर फिलहाल विधानसभा में सत्तारुढ़ दल के मुख्य सचेतक हैं. उन्होंने जांच कमेटी के रिपोर्ट में जिक्र किया था कि विधानसभा सचिवालय अपेक्षित सहयोग नहीं कर रहा है. ऐसे में नियुक्ति घोटाले की जांच संभव नहीं है. उनके नेतृत्व वाली कमेटी ने ही विधानसभा अध्यक्ष को सुझाव दिया था कि इसकी जांच राज्य अथवा केंद्र की किसी एजेंसी से करा ली जाए.