दस अप्रैल को दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनाव हुए. 6 सीटों पर बिहार में भी वोट पड़े. कुल मिलाकर लगभग 91 सीटों पर वोट पड़े. मतदान का प्रतिशत शानदार रहा. इसकी जड़ में चुनाव आयोग का प्रचार, उसकी कोशिश कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग वोट डालें, तो थी ही और पिछले कुछ चुनावों से नौजवान मतदाताओं में वोट डालने का ज़्यादा उत्साह दिखाई दे रहा है. 18 से 24 साल के युवा अचानक चुनाव को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानने लगे हैं. पहले चुनावों में कार्यकर्ता हुआ करते थे. उसके बाद पिछले 10-15 सालों में कार्यकर्ता की जगह दैनिक खर्चों पर काम करने वाले नौजवान चुनावों में इस्तेमाल होने लगे, पर दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद सारे देश में नए सिरे से नौजवान कार्यकर्ता पार्टियों को मिलने लगे. लोकसभा के इस चुनाव में तो नौजवान कार्यकर्ताओं ने भी अपने-अपने दलों में, चुनाव में हिस्सा लिया. मतदाताओं की युवा हिस्सेदारी ने बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका अदा की.
अब यह नौजवानों का वोट, जो कि बड़ी संख्या में दे रहे हैं, जिसने मतदान का प्रतिशत 65 से 70 और 70 से 73 कर दिया, यह किसके पक्ष में जाएगा, अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह प्रतिशत नरेंद्र मोदी की प्रचार टीम अपने पक्ष में आया हुआ बता रही है. 11 अप्रैल की सुबह लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रकारों के पास यह जानकारी पहुंचाई जा चुकी थी कि दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा सीटें भारतीय जनता पार्टी निर्विवाद रूप से जीत रही है और सभी लोगों ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में मतदान किया है. हो सकता है कि ऐसा हुआ हो, लेकिन महत्वपूर्ण यह नहीं है कि ऐसा हुआ हो, क्योंकि जो हुआ, वह तो 16 मई को ईवीएम में कैद आंकड़े सामने आने के बाद पता चलेगा. महत्वपूर्ण यह है कि 10 तारीख की शाम 6 बजे मतदान समाप्त हुआ और 11 तारीख की सुबह 9 बजे तक विभिन्न स्रोतों से सारे पत्रकारों, महत्वपूर्ण राजनेताओं और राय बनाने वालों के पास यह जानकारी किसी न किसी तरह पहुंचाई जा चुकी थी कि यह दौर नरेंद्र मोदी का है और तीसरे दौर की सीटें नरेंद्र मोदी के पक्ष में 95 प्रतिशत से ज़्यादा जा रही हैं.
कांग्रेस ने क्यों हथियार डाले, इसके कई कारण हो सकते हैं. पहला कारण है कि जब सोनिया गांधी ने यह तय किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के भावी नेता होंगे, तब सोनिया गांधी की टीम ने काम करना बंद कर दिया और राहुल गांधी की टीम ने काम कैसे करें, यही सोेचने में अपना सारा समय बर्बाद कर दिया. वे काम कर ही नहीं पाए. सत्ता हस्तांतरण की भी एक प्रक्रिया होती है, पर यह मानना कि राहुल गांधी में इतनी भी समझ नहीं है कि मिली हुई ताकत का इस्तेमाल कैसे करें, इस पर विश्वास नहीं होता. राहुल गांधी और सोनिया गांधी के पास सारे विकल्प खुले थे.
यही सफलता है. नरेंद्र मोदी ने 10 हज़ार करोड़ रुपये प्रचार में खर्च किए या नहीं खर्च किए, यह बहस का विषय है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने अगर 10 हज़ार करोड़ रुपये खर्च किए, तो वे दिमाग के साथ खर्च हुए. जबकि दूसरी तरफ़ अगर हज़ार करोड़ रुपये भी खर्च हुए, तो बेवकूफी से खर्च हुए, क्योंकि कांग्रेस के पक्ष में कोई प्रचार हुआ दिखाई ही नहीं दिया. कांग्रेस ने पिछले 10 साल में अच्छे काम किए, हालांकि उनके नतीजे अच्छे नहीं दिखाई दिए. एक सूचना के अधिकार को छोड़ दें, तो बाकी सारे क़ानून भ्रष्टाचार के पक्ष में मदद करते दिखाई दिए, लेकिन कांग्रेस ने चुनावी युद्ध को बिना लड़े ही छोड़ दिया और चुनाव के बीच में अपने सिपहसालारों को यह कहने दिया कि कांगे्रस तो धारणा के स्तर पर चुनाव हार गई है. जयराम रमेश, पी चिदंबरम और ए के एंटनी ऐसे लोगों में प्रमुख हैं, जिन्होंने कांग्रेस की संभावनाओं को समाप्त करने का उद्घोष किया और कांग्रेस ने उन्हें कोई सजा नहीं दी. ये तीनों लोग कांग्रेस की विभिन्न कमेटियों के सदस्य हैं और अभी भी पी चिदंबरम एवं ए के एंटनी सोनिया गांधी की और जयराम रमेश राहुल गांधी की नाक के बाल बने हुए हैं. ऐसे लगता है कि जैसे कांग्रेस के भीतर न राजनीतिक सोच बची है और न युद्ध लड़ने की जिजीविषा. कांग्रेस ने जिस जापानी कंपनी को प्रचार अभियान का ठेका सौंपा, ऐसा लगता है कि उसमें से 50 प्रतिशत धनराशि कमीशन के तौर पर वापस ले ली गई. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि इस कंपनी ने जिन भारतीय सहयोगियों को अपने साथ रखा, उन्हें यह समझ में ही नहीं आया कि इलेक्शन कैंपेन कैसे आर्गेनाइज करते हैं. शायद दूसरा कारण यह भी रहा हो कि राहुल गांधी ने किसी आदमी को यह ज़िम्मा नहीं सौंपा कि कैंपेन की बुनियादी शक्ल क्या हो. वह स़िर्फ और स़िर्फ नरेंद्र मोदी की बातों का भौंड़ा जवाब देने की कोशिश करते दिखाई दिए.
कांग्रेस ने क्यों हथियार डाले, इसके कई कारण हो सकते हैं. पहला कारण है कि जब सोनिया गांधी ने यह तय किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के भावी नेता होंगे, तब सोनिया गांधी की टीम ने काम करना बंद कर दिया और राहुल गांधी की टीम ने काम कैसे करें, यही सोेचने में अपना सारा समय बर्बाद कर दिया. वे काम कर ही नहीं पाए. सत्ता हस्तांतरण की भी एक प्रक्रिया होती है, पर यह मानना कि राहुल गांधी में इतनी भी समझ नहीं है कि मिली हुई ताकत का इस्तेमाल कैसे करें, इस पर विश्वास नहीं होता. राहुल गांधी और सोनिया गांधी के पास सारे विकल्प खुले थे. पार्टी के लोगों में उत्साह भरने का विकल्प था, पार्टी को मजबूत करने का विकल्प था, अपने प्रमुख लोगों को चुनाव में लगाने का विकल्प था जो चुनाव अभियान संयोजित करते, उन्हें राज्यसभा का वादा देकर पार्टी के काम में लगाने का विकल्प था, लेकिन कहीं कोई हलचल होती दिखाई नहीं दी.
दूसरी तरफ़ नरेंद्र मोदी पिछले तीन साल से चुनाव लड़ रहे हैं. तीन साल का मतलब, जबसे उन्होंने गुजरात टूरिज्म का ब्रांड अंबेसडर अमिताभ बच्चन को बनाया, जिन्होंने गुजरात-गुजरात-गुजरात-गुजरात और फिर नरेंद्र मोदी का गुजरात जैसे क्रमश: प्रचार अभियान की तीव्रता बढ़ाई. नरेंद्र मोदी ने अपने प्रथम श्रेणी के आईएएस अफसरों को पूरे चुनाव की देखरेख के लिए नियुक्त किया. नरेंद्र मोदी ने कहीं भी अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं किया. स़िर्फ एक अपवाद अमित शाह हैं, जिन्हें उन्होंने महीनों पहले उत्तर प्रदेश में भेज दिया था, क्योंकि वह जानते थे कि उत्तर प्रदेश में जिस तरह की गुटबंदी है और जिस तरह से पार्टी के भीतर अंतर्विरोध हैं, उसका मुकाबला वह उत्तर प्रदेश के ही किसी नेता के जरिये नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने अपने सबसे विश्वासपात्र अमित शाह को भेजा. नरेंद्र मोदी की रणनीति खासी सफल रही. कम से कम नरेंद्र मोदी का प्रचार अभियान कहीं पर भी कमजोरी से नहीं चला और उसने सारे देश में भारतीय जनता पार्टी को पार्टी के तौर पर इरिलेवेंट (अप्रासंंगिक) कर दिया.
पार्टी का कोई भी बड़ा नेता देश में चुनाव प्रचार नहीं कर रहा है. सारे लोग अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में घुसे हुए हैं. स़िर्फ एक शख्स सारे देश में प्रचार कर रहा है और कह रहा है कि तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें बदलाव दूंगा, सुशासन दूंगा, स्वराज दूंगा और वह शख्स नरेंद्र मोदी हैं. नरेंद्र मोदी ने पैसा खर्च करने में भी कोताही नहीं बरती. उन्होंने उन सारे वर्गों, जो हिंदू समाज के साथ नहीं आते हैं, को अपने साथ खड़ा करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाई और सफलतापूर्वक मुसलमानों में भी यह संदेश भेज दिया कि अगर वे नरेंद्र मोदी के साथ रहेंगे, तो ज़्यादा सुखी रहेंगे और कांग्रेस के साथ रहेंगे, तो दु:खी रहेंगे. मुसलमानों में भी कन्फ्यूजन बढ़ा है, लेकिन यह कन्फ्यूजन कांगे्रस को कोई फ़ायदा नहीं दे रहा है, बल्कि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग फ़ायदे दे रहा है. उत्तर प्रदेश में यह समाजवादी पार्टी की मदद कर रहा है और बिहार में अब यह लालू यादव एवं नीतीश कुमार के साथ जाएगा. कांग्रेस के साथ कम से कम इन दो प्रदेशों में ऐसा होता नहीं दिख रहा है.
अत: कांग्रेस ने जहां बिना लड़े चुनावी युद्ध की कमान छोड़ दी है, वहीं अब यह जनता के विवेक पर है कि वह वादों की असलियत पहचान कर नरेंद्र मोदी के साथ खड़ी होती है या वादों को ईमानदारी से न बोलने वाली कांग्रेस के साथ या फिर क्षेत्रीय दलों के साथ जाती है. चाहे जो जीते, लेकिन देश जीतेगा, यह मानना चाहिए और जो जीते, उसे देश के लिए काम करना चाहिए. इतनी छोटी सी अपेक्षा तो हमें जीतने वालों से करनी ही चाहिए.