आंदोलनों और जनता के गुस्से ने कई बार नेताओं की सत्ता उखाड़ फेंकी है. जेपी आंदोलन के छात्र नायक लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव एवं नीतीश कुमार अब स्थापित नेता हो चुके हैं. यद्यपि किसी भी व्यक्ति को इन नेताओं के युवा आदर्शों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. आंदोलन लगातार दबावों के बीच फलते-फूलते हैं और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इसमें बहुत परेशानियां सहनी पड़ती हैं. आंदोलन एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे की ओर घूमते रहते हैं.  
साठ के दशक में ज़्यादातर विकसित देशों में छात्र आंदोलन फैल गया था. वर्षों तक तेज विकास और पूर्ण रोज़गार के बाद भी इन देशों में छात्रों ने सरकार के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया था. उम्रदराज लोग इन आंदोलनों से हैरान थे. शुरुआत में लोगों ने छात्र आंदोलन को ज़्यादा तरजीह नहीं दी और बाद में उन्होंने इसके लिए छात्रों की आलोचना की. आख़िरकार उन्होंने छात्रों के आगे हार स्वीकार कर ली. वहीं अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में हो रहे आंदोलनों की वजह से तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन अपना दूसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. फ्रांस में चार्ल्स डे गाउले को भी राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसी तरह पराग्वे में हुई क्रांति ने सोवियत संघ द्वारा एलेक्जेंडर ड्यूबेक पर लगाए गए झूठे आरोपों का मजाक बना दिया था.
हाल में उस तरह के कुछ नेताओं ने राजनीति में क़दम रखा है. कैलिफोर्निया के गवर्नर जेरी ब्राइन इनमें से एक हैं. सोरबोन के नायक डैनी कोहन बेंडिट इस समय एक यूरोपीय सांसद हैं. बड़ी-बड़ी सत्ताओं को उखाड़ फेंकने वाले आंदोलन अपने उद्देश्यों की पूर्ति के बाद समाप्त हो जाते हैं. भारत की राजनेता चुनने की अपनी एक प्रक्रिया है, जिसके तहत यहां के राजनीतिक दल अपने छात्र संगठन में युवा नेताओं को तैयार करते हैं, जो आगे चलकर पार्टी के शीर्ष स्थान पर पहुंचने का प्रयास करते हैं. मेरी याद में, ऐसे बहुत से बड़े नेता नहीं हैं, जिन्होंने छात्र राजनीति से शुरुआत की हो, लेकिन कुछ नाम लिए जा सकते हैं.
कांग्रेस की बात करें, तो वह एक ऐसी पार्टी है, जिसमें नेता बनने के लिए छात्रनेता होना ज़रूरी नहीं है. इसका उदाहरण राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड है, जिसमें सभी युवराज हैं, कोई भी आम आदमी नहीं है.
आंदोलनों और जनता के गुस्से ने कई बार नेताओं की सत्ता उखाड़ फेंकी है. जेपी आंदोलन के छात्र नायक लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव एवं नीतीश कुमार अब स्थापित नेता हो चुके हैं. यद्यपि किसी भी व्यक्ति को इन नेताओं के युवा आदर्शों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. आंदोलन लगातार दबावों के बीच फलते-फूलते हैं और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इसमें बहुत परेशानियां सहनी पड़ती हैं. आंदोलन एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे की ओर घूमते रहते हैं. उनके पास संतोष नामक कोई चीज नहीं होती है. 1968 में एलएसई संघर्ष के दौरान एक स्लोगन में यह लिखा भी गया था, जब तुम हमारी एक मांग पूरी कर दोगे, तो दूसरे दिन एक और नई तैयार कर देंगे. लेकिन आम आदमी पार्टी के बारे में क्या राय है? यहां एक ऐसा आंदोलन था, जो एक राजनीतिक पार्टी बनाने से इंकार कर रहा था. आश्‍चर्यजनक रूप से इसकी सरकार भी बन गई और इसने एक महीना भी पूरा कर लिया. कम समय के दौरान ही इस सरकार द्वारा लिए गए निर्णय काफी विवादित रहे. रेल भवन के बाहर दिए गए धरने ने दिल्लीवासियों के धैर्य की काफी परीक्षा ली.
यह दरअसल, एक धरना न होकर एक पलायनवादी काम था. केजरीवाल कभी भी अन्ना हजारे की तरह आमरण अनशन नहीं करेंगे. वह अपनी कमियां जानते हैं और यह भी जानते हैं कि कैसे अपनी शक्तियों का प्रयोग किया जाए. मुझे इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि जल्द ही वह अच्छी तरह से सरकार चलाना शुरू कर देंगे. लेकिन, उनकी वह जल्दबाजी कहां है, जो वह दूसरी सरकारों से चाहते थे? आगामी आम चुनावों तक का समय उनके लिए कठिन है, उन्हें तब तक लोगों की निगाहों में बने रहना चाहिए. उनके लिए यह दूसरी सरकारों की तरह नहीं होगा, जो अपने शुरुआती सौ दिनों की कामयाबी की चर्चा करती हैं अथवा यह बताती हैं कि शुरुआती साल में उन्होंने कैसा शासन किया, क्योंकि केजरीवाल की सरकार एक आंदोलन के बाद बनी है और उससे लोगों को ज़्यादा उम्मीदें हैं. मेट्रो के बंद हो जाने से लोगों को हुई परेशानियां देखकर स्थापित पार्टियों को खुशी मिली और उन्होंने सोचा कि अब लोग आम आदमी पार्टी को समर्थन देना बंद कर देंगे, लेकिन केजरीवाल के खेल को इस तरह समझना गलत होगा, क्योंकि लोगों का सरकारी तंत्र में विश्‍वास ख़त्म हो चुका है. इसके लिए यूपीए सरकार ज़िम्मेदार है. कोई भी केजरीवाल पर दोषारोपण नहीं करेगा, बल्कि लोगों की निगाह में नेता की यह आम छवि बन चुकी है कि वह अपने दर्जन भर सुरक्षाकर्मियों के साथ जनता के बीच आएगा. वह स़िर्फ अपने समर्थकों एवं फाइनेंसरों के लिए ही काम करेगा. केजरीवाल का यह नया व्यवहार अपने आप में अलग है, ऐसा पहले कभी भाजपा या कांगे्रस ने नहीं किया है.
भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार एक ऐसा बाहरी व्यक्ति है, जो कभी एक चाय वाला रहा है और उसकी तरफ़ कांग्रेसी अपनी प्राचीन ब्राह्मण विचारधारा की तिरछी निगाहों से ही देख रहे हैं. नरेंद्र मोदी के पास केजरीवाल से सीखने के लिए काफी कुछ है, अगर वह फिर से सरकारी तंत्र में लोगों का विश्‍वास एक बार फिर से पैदा करना चाहते हैं. उन्हें 1977 में जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत के बारे में ज़रूर याद करना चाहिए, जो देश में फासिस्ट शासन समाप्त करने का पहला प्रयोग था और यह प्रयास बेकार हो गया था, क्योंकि जीतने वाले लोग स़िर्फ खुशी में मग्न हो गए थे. अब वह समय आ गया है, जब एक बाहरी व्यक्ति जीत दर्ज करे और सड़े हुए तंत्र की गरिमा फिर से स्थापित करे.

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