अन्ना की एक व्यक्तिगत कमजोरी जरूर है कि अगर उनके सामने भीड़ नहीं होती है, तो वो बहुत ज्यादा जोश में नहीं आते हैं. मुंबई में जब उन्होंने अनशन किया था, तब मैदान खाली पड़ा था, इसलिए अन्ना ने बीमार होने की बात कह कर चौथे दिन ही अनशन समाप्त कर दिया था. इस बार भी रामलीला मैदान खाली था. इसका अनशन समाप्ति के निर्णय पर कितना असर रहा, मैं नहीं जानता. लेेकिन, अन्ना ये अनशन न करते तो ज्यादा अच्छा होता. अन्ना की मुट्‌ठी बंद रहती.


anna hazareअन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चल रहा अनशन 29 मार्च को खत्म हो गया. अनशन की समाप्ति का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि अन्ना की उम्र 81 वर्ष है और वे अब लंबा अनशन सहन करने की स्थिति में नहीं हैं. अन्ना देश के ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो अकेले हैं. उनके जैसा व्यक्तित्व देश में दिखाई नहीं देता, जितने भी हैं, सब राजनैतिक हैं और लोगों की तकलीफों से उनका कोई रिश्ता नहीं है. अन्ना कम से कम ऐसे व्यक्ति हैं, जो सरकार या विपक्ष से सवाल पूछ सकते हैं और उनके सवालों को देश के लोग गंभीरता से लेते हैं.

मोदी जी के कार्यालय ने पिछले 4 साल में अन्ना जी के खत का जवाब देना तो दूर, पावती तक नहीं भेजी. अन्ना लगातार प्रधानमंत्री मोदी को जनलोकपाल, किसान समस्या और मोदी जी के वादों को लेकर खत लिखते रहे, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन खतों का कोई जवाब नहीं दिया. अब 29 मार्च को कृषि राज्यमंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस अन्ना के पास आए. उन्होंने अन्ना से अनशन तोड़ने की अपील की और अन्ना ने उस अपील को मान लिया. कृषि राज्यमंत्री ने पीएमओ के राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह का लिखा हुआ एक जवाब पढ़ा. दुर्भाग्य की बात है, यदि ये जवाब प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से आया होता तो ज्यादा अच्छा होता. शायद प्रधानमंत्री मोदी अन्ना हजारे को कोई भी माइलेज देने के पक्ष में नहीं हैं. मोदी जी का ये स्वभाव भी नहीं है कि कोई उनके सामने खड़ा होकर, आंखों में आंखें डालकर बात करे. जो पत्र राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने लिखा है, उसे आज से साल, दो साल, तीन साल पहले भी अन्ना को लिखा जा सकता था. अन्ना ने जब अनशन करने की बात की, तब भी ये खत लिखा जा सकता था. इसके बाद अन्ना को अनशन करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. शायद महाराष्ट्र के नेताओं ने प्रधानमंत्री कार्यालय को समझाया होगा कि अन्ना 80 साल से ऊपर के हैं, इनको अगर कुछ हो गया तो भले देश में कोई फर्क न पड़े, लेकिन महाराष्ट्र में इसका असर होगा और मुख्यमंत्री के ऊपर एक कलंक लग जाएगा. इसीलिए, प्रधानमंत्री कार्यालय ने अन्ना की बातें मानीं.

सरकार की तरफ से भेजा गया खत ये बताता है कि कितना सतही जवाब है, जिसमें सरकार किसी चीज का वादा नहीं कर रही है और अन्ना भी शायद अनशन से उबरने का कोई रास्ता देख रहे थे. इसीलिए, फौरन उन्होंने इस खत को स्वीकृति दे दी और अनशन समाप्त कर दिया. अन्ना के इस अनशन का किसी राजनीतिक दल ने समर्थन तो नहीं ही किया, पिछले अनशन में साथ रहे लोग भी इस बार अन्ना से दूर रहे. पिछली बार जब अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन किया था, तब पूरा मैदान भरा रहता था. अन्ना की आंखों के सामने हमेशा रामलीला मैदान का वही दृश्य सामने आता है कि पूरा मैदान भरा हुआ है और मैं वहां पर अनशन कर रहा हूं. इस बार जनता भी नहीं आई. जिन किसानों के लिए अन्ना ने अनशन किया था, उन किसान संगठनों के प्रतिनिधि भी नहीं आए. कुल मिला कर, लोग आए जरूर, अब चाहे वो 1 हजार लोग हों या 2 हजार या 5 हजार हों, पर वे लोग अन्ना को देखने आए, अन्ना का साथ देने नहीं आए.

अन्ना की एक व्यक्तिगत कमजोरी जरूर है कि अगर उनके सामने भीड़ नहीं होती है, तो वो बहुत ज्यादा जोश में नहीं आते हैं. मुंबई में जब उन्होंने अनशन किया था, तब मैदान खाली पड़ा था, इसलिए अन्ना ने बीमार होने की बात कह कर चौथे दिन ही अनशन समाप्त कर दिया था. इस बार भी रामलीला मैदान खाली था. इसका अनशन समाप्ति के निर्णय पर कितना असर रहा, मैं नहीं जानता. लेेकिन, अन्ना ये अनशन न करते तो ज्यादा अच्छा होता. अन्ना की मुट्‌ठी बंद रहती.

इस अनशन ने एक बड़े अंतर्विरोध को उजागर किया. दिन-रात बेकार के मुद्दों पर बहस करने वाले मीडिया ने अन्ना के इस अनशन को तरजीह नहीं दी. एक समाचार की तरह, थोड़ा कम, थोड़ा ज्यादा दिखाया. लेकिन, जब 2011 में अन्ना ने अनशन किया था, तब देश के लोगों और मीडिया ने भी बहुत समर्थन किया था. अब, इस बार मीडिया से समर्थन न मिलना और कुछ सामाजिक संगठन, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी नाम आता है, द्वारा अन्ना के अनशन का समर्थन नहीं करना ये बताता है कि अन्ना के अनशन का अपना समाजशास्त्र लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है और अन्ना कम लोगों की उपस्थिति से उत्साहित नहीं होते. लोेगों और मीडिया का समर्थन न मिलना, ये बता रहा है कि अगर जिंदगी से जुड़े सवालों पर कुछ करना हो तो आपको लोगों का साथ नहीं मिलेगा. अन्ना के अनशन में लोगों के शामिल न होने से ये सबसे दुखद संदेश निकला है. राजनीतिक दल कभी भी अन्ना को पसंद नहीं करते थे. शरद यादव ने तो संसद में बहस के दौरान भी 2011 में अन्ना पर हमला बोला था. तब अन्ना का साथ कौन देता? अन्ना का साथ दलित, आदिवासी, पिछड़े और देश के लोग देते. लेकिन अन्ना का साथ न देना या भीड़ न जुटना, इसका मतलब यह नहीं मानना चाहिए कि लोग जनलोकपाल का समर्थन नहीं करते या वे किसानों को उनकी उपज का डेढ़ गुना मूल्य देने का समर्थन नहीं करते. लोग चाहते हैं, लेकिन लोगों का विश्वास अब धरना, आंदोलनों और प्रदर्शन से शायद उठ रहा है, क्योंकि जनता ने पिछले कुछ सालों में इतने लोगों को ये सब करते हुए देखा है कि शायद अब इस सब का साथ देने की इच्छा जनता की नहीं होती. उनके मन में ये भावना है कि उनके सवालों को लेकर लोग उन्हें शामिल तो करना चाहते हैं, लेकिन अगर उसका परिणाम पूरी तरह नहीं आता है, तो उसके बाद वे लोग जनता के बीच में नहीं जाते हैं.

अपने बीच में नेताओं का न आना, नेताओं के प्रति जनता का अविश्वास दर्शाता है. मैं ये नहीं मानता कि अन्ना के प्रति जनता का अविश्वास है, क्योंकि इस तैयारी के लिए अन्ना जब देश में घूम रहे थे तब देश भर में अन्ना की बड़ी-बड़ी बैठकें हुईं. चाहे वो कर्नाटक में हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई हो या मध्य प्रदेश में हुई हो या कहीं और हुई हो. लोगों के पास दिल्ली आने के साधन नहीं हैं. अच्छा होता कि अन्ना आंदोलन का कोई ऐसा तरीका निकाल लेते, जिससे लोग अपने-अपने इलाकों में ही आंदोलन कर लेते. पर ऐसा हुआ नहीं.

अन्ना के इस अनशन की दुखद समाप्ति ने जहां एक तरफ लोगों के हिलते विश्वास को दर्शाया है, वहीं दूसरी तरफ खुद अमित शाह कर्नाटक में इतने ज्यादा तनाव में हैं कि उनके मुंह से कुछ से कुछ निकल रहा है. अपनी पहली मीटिंग में उन्होंने येदियुरप्पा को कर्नाटक का सबसे भ्रष्ट व्यक्ति घोषित कर दिया. वे कहना चाहते थे कि मुख्यमंत्री सबसे भ्रष्ट हैं, लेकिन येदियुरप्पा जी को कह दिया. उनकी दूसरी जनसभा में मोदी जी को सबसे भ्रष्ट और बेईमान साबित कर दिया. मैं कन्नड़ नहीं जानता. उन्हीं के एक सांसद अमित शाह के भाषण का अनुवाद कर रहे थे और अमित शाह के भाषण का अनुवाद करते-करते उन्होंने मोदी जी के बारे में ऐसा बोल दिया. ये बताता है कि अमित शाह बहुत अधिक तनाव में हैं. एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष को इतने तनाव में नहीं होना चाहिए.

चुनाव में हार-जीत होती रहती है. लेकिन, चुनाव में हर हालत में जीतना है, अगर ये संकल्प ले लिया गया है तो फिर उसमें साम-दाम-दंड-भेद सब इस्तेमाल करने पड़ते हैं. लोकतंत्र में साम-दाम-दंड-भेद सब इस्तेमाल होने लगे तो फिर लोकतंत्र नहीं बचता. इसकी जगह भीड़तंत्र और झूठतंत्र बचता है. इसलिए, अमित शाह का जैसा तनाव भरा चेहरा सामने आता है, वो थोड़ा डराता है. अमित शाह ने प्रधानमंत्री मोदी का बहुत साथ दिया है और भारती जनता पार्टी में बहुत काम भी किया है. लेकिन, इतना तनाव अच्छा नहीं है. तनाव में राजनीति करना हमेशा नुकसानदेह रहा है. कर्नाटक का चुनाव देश के लोगों के लिए वैसा ही संदेश लेकर आने वाला है, जैसा संदेश अन्ना हजारे के अनशन को देश के लोगों ने दिया है.

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