IMG_8514जनता परिवार के दलों को नए नेतृत्व और नए स्वरूप में एक करने की प्रक्रिया अपने मुकाम के नज़दीक पहुंच गई है. अगले कुछ दिनों में समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव इस प्रक्रिया की ठोस रूपरेखा पेश कर सकते हैं. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले 1989 के जनता दल के बिखरे टुकड़ों को एक दल और एक झंडे के नीचे लाने की चर्चा एक-दो साल से कभी-कभार सुनाई देती थी, पर नरेंद्र मोदी के देश की राजनीति के शिखर पर पहुंच जाने और मंडल राजनीति के पोषक वोट बैंक में उनकी सीधी सेंधमारी के चलते ये सभी दल अपनी भावी राजनीति पर नए सिरे से सोचने के लिए विवश हो गए. बीते तीन-चार महीनों के दौरान यह प्रक्रिया खुली चर्चा में आ गई और अब आकार ग्रहण करने लगी है. समाजवादी पार्टी के साथ-साथ जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, इंडियन नेशनल लोकदल, जनता दल (सेक्युलर) और समाजवादी जनता पार्टी आदि विलय पर सहमत हो गए हैं.
जनता परिवार के विभिन्न दलों की इस प्रस्तावित एकीकृत पार्टी के नाम, संविधान और अन्य औपचारिकताओं के बारे में सभी से विचार करके निर्णय मुलायम सिंह यादव लेंगे. यह काम जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा. राष्ट्रीय स्तर पर मुलायम सिंह यादव और शरद यादव का एक ही राजनीतिक संगठन में आना जितनी बड़ी घटना है, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का एक छतरी के नीचे आना भी उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है. 1990 के शुरुआती वर्षों में राम और श्याम जैसी जोड़ी के तौर पर पहचान बनाने वाले लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की राहें मई 1994 में अलग हो गईं तथा दोनों एक-दूसरे के कट्टर विरोधी हो गए. लेकिन, नरेंद्र मोदी की छत्रछाया में भाजपा के नए अवतार ने बिहार में मंडल राजनीति के इन दोनों नायकों को एक ही दल में और एक झंडे के नीचे आने के लिए मजबूर कर दिया.
जनता परिवार के एकीकरण की इस पहल की शुरुआत बिहार से ही हुई और इस लिहाज से भारत की भाजपा विरोधी राजनीति को इसने नई राह दिखाई है. सूबे की विधानसभा की दस सीटों के उपचुनाव में जद (यू) व राजद साथ आए और कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन हुआ. यह गठबंधन भाजपा को पछाड़ने में कामयाब भी रहा. गठबंधन को दस में से छह सीटों पर जीत हासिल हुई, भाजपा अपनी पुरानी सीटें बचाने में भी विफल रही. इससे पहले राज्यसभा के उपचुनाव में भी राजद और कांग्रेस की मदद से जद (यू) ने भाजपा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों को पराजित किया था. अगले साल नवंबर तक बिहार विधानसभा का चुनाव होना तय है. उस चुनाव में इस प्रस्तावित एकीकृत दल की अग्नि परीक्षा तो होनी ही है, उससे पहले भी इसे कई चुनौतियों का सामना करना है. दोनों दलों के नेता-कार्यकर्ता तो इसे स्थानीय राजनीतिक समीकरणों की अपनी तराजू पर तौलेंगे ही, इन दलों के समर्थक सामाजिक समूह या दल-निरपेक्ष मतदाता भी इसे अपने पैमाने पर कसेंगे.
गत संसदीय चुनाव में बिहार में भाजपा के वोट प्रतिशत में अप्रत्याशित उछाल आया, उसे बिहार के अधिकांश सामाजिक समूहों, आर्थिक तबकों और आयु-वर्गों का समर्थन मिला. इसके विपरीत जद (यू) और राजद की हालत दयनीय हो गई. उनके वोट प्रतिशत में गिरावट आई, साथ ही समर्थक सामाजिक समूहों के वोट भी बड़े पैमाने पर भाजपा के पाले में चले गए. फिर भी, राजद और जद (यू) को यदि एक करके देखा जाए, तो भाजपा को उनसे कम वोट मिले. जनता परिवार के इन दलों को 44 प्रतिशत से अधिक वोट मिले, जबकि भाजपा को लगभग 38 प्रतिशत. हालांकि, विजयी राजनीतिक दल-गठबंधन जीती हुई सीटें देखता है, तो पराजित दल वोट प्रतिशत. लेकिन, विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने सबको नए सिरे से विचार करने का आधार प्रदान कर दिया. प्रस्तावित एकीकृत दल को यह राजनीतिक परिदृश्य आशांवित कर रहा है.
बिहार में इस प्रस्तावित एकीकरण को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है. राज्य विधानसभा चुनाव के ठीक पहले इस विलय प्रक्रिया को अंजाम दिया जा रहा है. इसे बिहार का मतदाता स्वीकार करता है या खारिज, यह तो चुनाव में ही पता चलेगा, लेकिन इतना तो तय है कि बिहार में सत्ता पर काबिज होने के लिए हरचंद कोशिश में लगी भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौती काफी गंभीर हो जाएगी. बिहार के मतदाता समूहों में पिछले कई चुनावों से तीखी गोलबंदी रही है. 2009 के पहले तक सामाजिक न्याय के दायरे के सामाजिक समूहों का आम समर्थन लालू प्रसाद और राजद को हासिल रहा. लालू-विरोध के नाम पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को ऊंची जातियों के साथ-साथ कुछ पिछड़ी जातियों का आक्रामक समर्थन मिला और वह सत्ता में आ गया. एनडीए-1 के सकारात्मक राजनीतिक-प्रशासनिक निर्णयों, महिलाओं-अति पिछड़ा वर्ग-महादलित सशक्तिकरण की नीतीश सरकार की पहल ने अपना असर दिखाया और लालू प्रसाद के आधार का बड़ा हिस्सा उधर खिसक गया. ऊंची जातियों और इन तबकों के राजनीतिक गठबंधन ने एनडीए को मजबूत ज़मीन दी, लेकिन बाद में राजनीति बदली और एनडीए विघटित हो गया.
इस विघटन के बाद बिहार का अगड़ा समाज नीतीश से नाराज़ हो गया और लालू प्रसाद से उनके मिलने से वह पूरी तरह भाजपा के पाले में चला गया. मौजूदा बिहार में अगड़ी जातियों के साथ-साथ वैश्यों, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का स्पष्ट झुकाव भाजपा की तरफ़ है. इसी तरह यादवों और मुसलमानों के एकजुट समर्थन के साथ-साथ कुछ पिछड़ी जातियां लालू-नीतीश के पाले में हैं. पासवान को छोड़कर दलित-महादलित समुदाय और अधिकांश पिछड़ी जातियों में नीतीश-लालू की पकड़ तो गहरी है, पर बदले राजनीतिक माहौल में इन मतदाता वर्गों के एकनिष्ठ समर्थन का दावा ये नहीं कर सकते. हाल के दिनों में इन मतदाता समूहों पर नए सिरे से जीतन राम मांझी का असर दिख रहा है. मतदाताओं की तीखी गोलबंदी के बीच इन सामाजिक समूहों की महत्ता काफी बढ़ गई है. प्रस्तावित एकीकृत दल राजनीतिक सूझ-बूझ से इन मतदाता समूहों को अपनी ओर खींच सकता है. इसके लिए मंडल के नायकों को फिलहाल तो कुर्बानी देनी होगी. बिहार की जीतन राम मांझी सरकार औपचारिक तौर पर अल्पमत की सरकार है, जिसे लालू प्रसाद के राजद और कांग्रेस के विधायकों का समर्थन हासिल है. कांग्रेस में तो नहीं, पर राजद विधायकों में सरकार में शामिल होने की आवाज़ बीते कुछ दिनों से उठने लगी है. विलय के बाद शायद ऐसी चर्चा को विराम लग जाए. हालांकि, राज्य मंत्रि परिषद में अब भी तीन-चार लोगों को शामिल किया जा सकता है. यदि ऐसा हुआ, तो यह मौक़ा राजद खेमे के विधायकों को मिल सकता है, पर अब इसकी उम्मीद धूमिल दिख रही है. वैसे, कहा जा रहा है कि लालू प्रसाद अपने किसी परिजन के लिए दबाव बना सकते हैं, लेकिन यदि राजद के कुछ विशिष्ट लालू भक्तों पर भरोसा करें, तो चुनाव के ठीक पहले ऐसे किसी निर्णय के राजनीतिक दुष्परिणाम को भांपकर वह शायद ऐसा नहीं करेंगे. इस प्रस्तावित विलय का महत्वपूर्ण राजनीतिक असर विधानसभा चुनाव के दौरान जद (यू) और राजद खेमों में सीटों को लेकर हो सकता है. दोनों दलों का गठबंधन होने पर उनमें सीटों के बंटवारे को लेकर गहरा मतभेद अभी से (चुनाव के कोई साल भर पहले ही) सामने आने लगा था, लेकिन विलय के बाद सभी एक ही दल के हो जाएंगे, तो सीटों को लेकर किसी विवाद की संभावना सीमित हो जाएगी, ऐसा एकीकरण के शुभचिंतकों का मानना है. लेकिन, ऐसी समझ ज़मीनी राजनीति से भिन्न और नेताओं के फीलगुड भाव का द्योतक है. यह सारा कुछ इस पर निर्भर करता है कि कोई बीस साल की कटुतापूर्ण राजनीति के बाद एक राजनीतिक दल-झंडे के नीचे आए लालू प्रसाद और नीतीश कुमार अपना राजनीतिक वर्चस्व किस हद तक पीछे छोड़ते हैं. दोनों नेताओं की अब तक की राजनीतिक शैली इस संदर्भ में कोई विशेष आशा नहीं जगाती है. तब क्या होगा? यह लाख टके का सवाल है. इसका जवाब जद (यू) या राजद के नेता नहीं देना चाहते. हालांकि, इस सवाल से वे जूझ रहे हैं और भावी राजनीति की दिशा का अनुमान लगा रहे हैं.
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि विधानसभा चुनाव में वर्चस्व के सवाल पर मंडल राजनीति के बिहारी नायकों (लालू प्रसाद और नीतीश कुमार) में ठन जाने की पूरी आशंका है. इन दोनों की राजनीति की शैली में भिन्नता जो हो, पर दोनों की राजनीति का डीएनए एक ही है और दोनों में अब तक के टकराव का मूल कारण भी वर्चस्व ही रहा है. सो, अहम भाव का त्याग कर पाना दोनों के लिए मुश्किल जैसा है. ऐसे में प्रस्तावित एकीकृत दल का भविष्य कैसा होगा, इसका अनुमान किसी के लिए मुश्किल नहीं है. और, तब घाटे में कौन रहेगा? यह दूसरा यक्ष प्रश्‍न है, जिसका उत्तर बिहार की राजनीति खोज रही है. उम्मीद है, यह उत्तर भी जल्द ही मिल जाएगा, लेकिन तब तक प्रतीक्षा तो करनी ही होगी.

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