आख़िरकार, इस सरकार को आए छह महीने बीत चुके हैं. भाजपा ने चुनाव के दौरान जो वादे किए थे, जैसे काला धन वापस लाना और रोज़गार देना आदि, सरकार उन्हें पूरा करने के आसपास भी पहुंचती नहीं दिख रही है. अब जाकर पता चल रहा है कि इन बड़े वादों को पूरा करना कितना कठिन है. अख़बारों में छपे आलेखों से पता चलता है कि स्विस बैंक से पैसा निकल कर पहले ही मॉरीशस और सिंगापुर के रास्ते भारत पहुंच चुका है. सत्ता के क़रीब रहने वाले लोगों द्वारा लिखे गए आलेखों का अर्थ है कि सत्ता को यह एहसास हो गया है कि इन वादों को पूरा नहीं किया जा सकता.
प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के सख्त ख़िलाफ़ हैं, प्रशासन में एक नई संस्कृति कायम करने के इच्छुक हैं, लेकिन उन्हें मंत्रियों द्वारा घोषित संपत्ति के ब्यौरे पर भी एक नज़र डालनी चाहिए. अख़बारों में ख़बर आई है कि मंत्रियों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया है. कांग्रेस का यह तरीका था कि किसी मामले की नोटिस उस वक्त तक न लो, जब तक कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में कोई केस दर्ज नहीं होता या आयकर विभाग की नींद नहीं खुल जाती. हालांकि, प्रधानमंत्री खुद इन जानकारियों की जांच करेंगे. आख़िरकार, अचानक कैसे कोई बहुत ज़्यादा पैसा कमा सकता है? यदि कोई आदमी अचानक बहुत अधिक पैसा कमा लेता है, तो प्रधानमंत्री को स्वयं इस मामले को देखना चाहिए कि क्या यह पैसा सही तरीके से कमाया गया है. अगर ऐसा नहीं होता है, तो फिर भूल जाइए कि ऐसे आदमी के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज होगा, उसे दंड दिया जाएगा या कोई कार्रवाई की जाएगी. ऐसे आदमी को कम से कम मंत्रिमंडल से तो ज़रूर बाहर कर देना चाहिए. एक मंत्री की छवि स्वच्छ होनी चाहिए.
अरुण जेटली के मामले में यह समझा जा सकता है कि वे एक कॉरपोरेट वकील रह चुके हैं, रोजाना की उनकी फीस ही लाखों रुपये की है. अगर उन्होंने यह पैसा कमाया है, तो टैक्स दिया है. एक बड़ी चल और अचल संपत्ति बनाई है. यह सब तर्कसंगत है, समझ में आता है. लेकिन ऐसे भी मंत्री हैं, जिनके पास न कोई ऐसी योग्यता है, न पूंजी है, तो फिर उनके पास इतना पैसा कहां से आया?
यदि प्रधानमंत्री की छवि स्वच्छ है, तो उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके सहकर्मियों की छवि भी साफ़-सुथरी हो. अगर किसी की छवि के बारे में संदेह भी हो, तो उसे तुरंत मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए. स़िर्फ यही एक रास्ता है, न कि पहले की तरह आप क़ानून द्वारा कार्रवाई शुरू किए जाने का इंतजार करते रहें और इस सबमें सालों साल लग जाएं. दरअसल, इस मामले में देश को क़ानूनी कार्रवाई और सजा मिलने का इंतजार करने की सालों पुरानी आदत एवं संस्कृति से बाहर निकलना होगा. क्रिकेट के बारे में भी मैंने कुछ ऐसा ही कहा था कि जब किसी खिलाड़ी पर मैच फिक्सिंग या बेटिंग का जरा भी शक हो, तो उसे फौरन टीम से निकाल दिया जाना चाहिए. एक खिलाड़ी के लिए टीम से निकाले जाने से बड़ी कोई सजा हो ही नहीं सकती.
लोग हमेशा सीबीआई और सजा की बात करते रहते हैं. इसका कोई मतलब नहीं है. सबसे अच्छी सजा है, क्रिकेटर को टीम से निकालना या मंत्री को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाना. आख़िरकार, केंद्रीय कैबिनेट मिनिस्टर का पद बहुत ही शक्तिशाली पद होता है और जैसे ही आप इस पद से बाहर किए जाते हैं, आप सचमुच बहुत कुछ खो देते हैं. प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह या तो किसी आईबी ऑफिसर या फिर पीएमओ के किसी वरिष्ठ सहयोगी को इनके रिकॉर्ड्स की जांच करने के लिए कहें और खुद भी इन मंत्रियों से पूछें कि दस सालों में उनके पास इतना अधिक पैसा यानी 70 करोड़ या 100 करोड़ कहां से आया? वह भी तब, जब न आपके पास पूंजी है, न प्रतिभा है, न कोई उद्योग है. आख़िर किस चीज से उन्होंने इतना पैसा कमाया?
अरुण जेटली के मामले में यह समझा जा सकता है कि वे एक कॉरपोरेट वकील रह चुके हैं, रोजाना की उनकी फीस ही लाखों रुपये की है. अगर उन्होंने यह पैसा कमाया है, तो टैक्स दिया है. एक बड़ी चल और अचल संपत्ति बनाई है. यह सब तर्कसंगत है, समझ में आता है. लेकिन ऐसे भी मंत्री हैं, जिनके पास न कोई ऐसी योग्यता है, न पूंजी है, तो फिर उनके पास इतना पैसा कहां से आया? अगर प्रधानमंत्री ऐसे मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल से बाहर नहीं करते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि क्लीन गवर्नमेंट की बात स़िर्फ बात भर ही है.
अब बात विपक्ष की. कांग्रेस हतोत्साहित हो गई है. उसके 44 सांसद हैं. पहले की 3 लोकसभा में जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब किसी एक विपक्षी पार्टी के पास इतनी भी संख्या नहीं थी कि उसे लीडर अपोजीशन यानी नेता विपक्ष का दर्जा मिल सके, फिर भी वे प्रभावशाली थे. क्योंकि, तब विपक्ष में ऐसे लोग थे, जो अच्छी बहस करते थे, उनके पास तर्क और आंकड़े होते थे सरकार को घेरने के लिए. कांग्रेस को न जाने क्या हो गया है? अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि राहुल गांधी पार्टी को नेतृत्व देना भी चाहते हैं या नहीं? हालांकि, यह पार्टी की आंतरिक समस्या है. कांग्रेस सौ साल पुरानी पार्टी है. पहुंच और कार्यकर्ताओं के मामले में वह अभी भी सबसे बड़ी पार्टी है. ठीक है कि भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पांच साल बाद कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगी. लेकिन वह कुछ भी अच्छा नहीं कर पाएगी, यदि वह अच्छा प्रयास नहीं करती है.
ऐसे में यह सराहनीय है कि मुलायम सिंह यादव ने जनता दल या जनता पार्टी को पुनर्जीवित करके एक सशक्त विपक्ष बनाने की पहल शुरू की है. जनता परिवार की एक बैठक हुई है, जो अच्छी रही. उन्हें आगे इस दिशा में काम करना चाहिए कि सबको मिलाकर एक पार्टी बने, एक सिंबल हो, एक झंडा हो. असल में ये सब लोग लोहिया के विचारों वाले हैं. अगर कांग्रेस नेहरू के विचारों वाली पार्टी है, भाजपा दीन दयाल उपाध्याय की विचारधारा वाली पार्टी है, तो समाजवादी लोग लोहिया की विचारधारा से संबंधित हैं. इसलिए मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार एवं शरद यादव में कोई वैचारिक मतभेद नहीं है. जितनी जल्दी ये सब खुद को मिलाकर एक सिंगल पार्टी बना लेते हैं, उतना ही यह मिशन खुद को एक प्रभावी विपक्ष बना पाएगा और अगले चुनाव में एक विकल्प बनकर उभर पाएगा.
आख़िरकार, इस सरकार को आए छह महीने बीत चुके हैं. भाजपा ने चुनाव के दौरान जो वादे किए थे, जैसे काला धन वापस लाना और रोज़गार देना आदि, सरकार उन्हें पूरा करने के आसपास भी पहुंचती नहीं दिख रही है. अब जाकर पता चल रहा है कि इन बड़े वादों को पूरा करना कितना कठिन है. अख़बारों में छपे आलेखों से पता चलता है कि स्विस बैंक से पैसा निकल कर पहले ही मॉरीशस और सिंगापुर के रास्ते भारत पहुंच चुका है. सत्ता के क़रीब रहने वाले लोगों द्वारा लिखे गए आलेखों का अर्थ है कि सत्ता को यह एहसास हो गया है कि इन वादों को पूरा नहीं किया जा सकता. ऐसे में, जनता परिवार उत्तर प्रदेश और बिहार में ज़मीन तैयार करने के लिए एक जगह इस मांग के साथ एकत्र हो रहा है कि कृषि क्षेत्र को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. मेक इन इंडिया तो ठीक है, लेकिन कृषि हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है. अगर वे ग्रामीण क्षेत्रों को समृद्ध करना और उत्तर के इन दो बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों में समृद्धि देखना चाहते हैं, तो उन्हें किसानों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.