हमारे स्वर्गीय मित्र अरुण पांडेय ने किताब लिखी थी ‘जानने का अधिकार’ आज प्रश्न जानने के प्रदूषण पर है। संतोष भारतीय और अभय दुबे संवाद में इस बार इसी प्रश्न पर चर्चा हुई । आखिर सत्य क्या है, कहां है। और इसका भी जवाब वहीं से निकला 2014 के बाद से। दरअसल 2014 के बाद से जिस तरह मीडिया बंटा है उसी अनुपात में दर्शकों और श्रोताओं में भी विभाजन हुआ है। मीडिया को मैनेज करने की तमन्ना मोदी जी की उसी दिन से रही जिस दिन से उनकी प्रधानमंत्री के रूप में घोषणा हुई। यों तो वे 2002 के दंगों के बाद से अपनी इस चूक पर आहत थे। बीबीसी की एक पत्रकार को उन्होंने इस चूक के विषय में बेहिचक बताया भी था कि मीडिया को मैनेज नहीं कर पाया। वह गलती उन्होंने सत्ता पाने के बाद नहीं की ।जिसका लाभ उन्हें निसंदेह मिला। इसके परिणामस्वरूप जो स्थितियां बनीं उसे अभय दुबे ‘ध्रुवीकृत जनमत प्रक्रिया’ नाम से संबोधित करते हैं। सही है कि आज राजनीतिक खेमों में बंटा हर शख्स अपने अपने मन की बात सुनना चाहता है। या तो मोदी के पक्ष में, या मोदी के विरोध में। यह विभाजन हम देख रहे हैं मुख्य चैनलों के मीडिया में और डिजिटल मीडिया में। लेकिन डिजिटल मीडिया में भी मोदी समर्थक लोग या पत्रकार अपने अपने यूट्यूब चैनल बना कर विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं और उनके भी लाखों देखने वाले हैं। इसे संतोष भारतीय ‘जानने का प्रदूषण’ कहते हैं। हालत यह हो चली है कि पत्रकारों को बांट दिया गया है। अभय दुबे को मोदी विरोधी लेकिन ‘आप’ समर्थक घोषित कर दिया जाता है आसानी से। यह प्रदूषण दिलों को भी बांट रहा है। यह तो एक सच्चाई है ही कि देश भर में परिवारों में ही विभाजन हो गया है 2014 से। यहां तक कि पति-पत्नी के बीच भी खाई बन गई है । कई घर टूटे , कई बरबाद हुए। इससे यह भी साबित हुआ कि हमारे वैचारिक अहंकार कितने बढ़ चुके हैं। एक व्यक्ति आकर कितनी आसानी से दस लोगों के एक परिवार को विखंडित कर सकता है। अभय दुबे शो के इस विडियो को देखिए। इस विषय पर और जातीय जनगणना पर अभय जी की बातें पसंद आएंगी।
लाउड इंडिया टीवी पर ही कुछ दिन पहले संतोष भारतीय ने शीबा असलम फहमी से संवाद किया। विषय सामाजिक था। युवाओं की आत्महत्याएं, कारण और सामाजिक ताना बाना। संतोष जी को हाल ही में एक सुझाव मैंने दिया था कि अभय दुबे से सामाजिक विषयों पर भी बात करें बल्कि राजनीतिक विषयों पर यदा कदा और सामाजिक विषयों पर ज्यादा। दिन भर हम राजनीतिक खबरें और विश्लेषण सुनते ही रहते हैं। लेकिन सामाजिक प्रदूषण पर कभी खुल कर बात नहीं होती। अब समाजशास्त्री भी दिखाई नहीं देते। जबकि आज का समाज कहीं ज्यादा प्रदूषित हो रहा है और उसमें सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। सड़कों की लड़ाई सोशल मीडिया पर सिमट कर रह गई है। अभय जी से उनका व्यक्तिगत संवाद हुआ या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन उन्होंने शीबा असलम फहमी से इस विषय पर बात की । मैं समझ नहीं पाता कि हमारे चैनलों के पत्रकार या एंकर लोगों को सीमा में बांध कर क्यों रख देते हैं। अब जैसे शीबा को ही अक्सर तब बुलाया जाता है जब हिंदू मुस्लिम विवाद पर चर्चा होती है। या इन दिनों उन्हें इज़राइल फिलीस्तीन के विषय पर बुलाया जा रहा है जबकि शीबा असलम फहमी सामाजिक विषयों पर भी सुलझी हुई पत्रकार हैं। संतोष जी को चाहिए कि वे शीबा को विभिन्न विषयों पर बात करने के लिए आमंत्रित करें। उनके प्रेम जैसे विषय पर भी मैंने वीडियो देखे हैं। संतोष जी से एक आग्रह और है कि वे कार्यक्रम के शुरु में और अंत में अतिरिक्त समय लेते हैं। कार्यक्रम के अंत में श्रोताओं से संवाद कतई जरूरी नहीं लगता। श्रोताओं ने सुन ही लिया है। जिनको जो प्रतिक्रिया देनी होगी, जो टिप्पणी करनी होगी वे करेंगे ही । और कुछ लोगों ने तो मुझसे यहां तक कहा है कि संतोष जी कभी कभी तो मेहमान की तारीफ में हद ही कर देते हैं। आग्रह सिर्फ इतना है कि कार्यक्रम स्वागत के साथ शुरु हो धन्यवाद के साथ समाप्त हो जाए। बाकी स्वयं श्रोताओं पर छोड़ दें। इधर अखिलेंद्र प्रताप सिंह से बातचीत के उनके दो तीन वीडियो आए। अखिलेंद्र जी को सुनना भी बहुत अच्छा लगता है। अखिलेंद्र जी ने राहुल गांधी के विषय में एक वरिष्ठ वामपंथी नेता की टिप्पणी का जिक्र किया जो एकदम सटीक लगी हमें। उनका कहना था कि राहुल गांधी नेचुरल पॉलिटिशियन नहीं हैं। यह सच भी है यदि वे नेचुरल पॉलिटिशियन होते तो इस कदर मुखर नहीं होते। इतनी बेबाकी से मोदी को चैलेंज नहीं कर पाते। इसीलिए वे मुद्दों को बड़ी शिद्दत से बिना खौफ के उठाते हैं और कहते हैं मेरा जो चाहे कर लो मुझे फर्क नहीं पड़ता। राहुल गांधी ने यात्रा करके जो लंबी लकीर खींची है उससे न केवल उनकी छवि रातोंरात सुधरी है बल्कि कांग्रेस का भी पुनर्जन्म हुआ है, ऐसा समझिए। यह कम बड़ी बात नहीं है। लेकिन कांग्रेसी तो कांग्रेसी हैं। जब सिर पर चढ़ाते हैं तो कोई सीमा ही नहीं रहती । कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत तो राहुल गांधी को अपना गुरु ही बता देती हैं। जो व्यक्ति अभी राजनीति की पाठशाला में है उसे राजनीतिक पंडित की तरह समझा जा रहा है। यही हाल आरफा खानम शेरवानी जैसी दिग्गज मानी जाने वाली पत्रकार का भी है। ये सब राहुल गांधी से शुरु करके राहुल गांधी पर ही खतम करते हैं। ऐसे में उन वामपंथी नेता की टिप्पणी को गौर से सुनना चाहिए। उन्होंने संक्षेप में लेकिन बेहद सटीक टिप्पणी की है।
पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और तरह तरह के विश्लेषण आ रहे हैं सब जगह। लेकिन मुझको बड़ी ऊब हो रही है इन सबसे। वोटर अपना मन बहुत पहले से बना चुका होता है। मोदी समर्थन और मोदी विरोध की खाईयां बहुत गहरी हैं। या तो समर्थन में वोट जाएगा या विरोध में। पहले की भांति नहीं कि गम्भीर नेताओं की बातों पर विचार करके और उनके कामकाज को देख कर लोग वोट देते थे। इंदिरा गांधी के समय भी समर्थन और विरोध की बातें नहीं थीं। लेकिन आज जब सब कुछ बंट चुका है तो वोट भी वैसे ही बंट कर डाले जाते हैं। इसलिए फूहड़ पत्रकारों के फूहड़ विश्लेषणों को क्या सुनना। ‘सत्य हिंदी’ पर आजकल यह सब खूब चल रहा है। नीलू, शरत, मुकेश, आशुतोष सब इसी में लगे हुए हैं। मुकेश कुमार के कार्यक्रम तो उनके कार्यक्रमों में आ रहे व्यवधानों की वजह से भी देखने बंद कर दिये हैं। मजबूरी है।
हम तो इधर अच्छी वेबसीरीज ज्यादा देख रहे हैं। हंसल मेहता ने ‘तेलगी स्कैम 2003’ बनायी है। लाजवाब। इससे पहले उन्होंने ‘स्कूप’ बनाई थी मुंबई में पत्रकार जे के डे मर्डर केस पर। गजब थी । हर्षद मेहता पर वेबसीरीज वे बना ही चुके हैं। ’12वीं फेल’ फिल्म देखने लायक है। मेरी सिफारिश है कि तेलगी वेबसीरीज और बारहवीं फेल फिल्म जरूर देखें। आलोक जी आजकल कहां हैं। हर कोई एक ही बात कहता है व्यस्त हैं, व्यस्त हैं। व्यस्त तो हैं ही पर क्या ऐसा कि बताने लायक भी नहीं। आखिर हम उनके श्रोता और दर्शक हैं भाई । आजकल ‘लल्लन टॉप’ जैसा हल्का फुल्का प्लेटफार्म भी गम्भीर और विविध विषयों और दिग्गज लोगों के इंटरव्यू आदि के साथ विविध कार्यक्रम ला रहा है। सत्य हिंदी से ज्यादा देखा जा रहा है।
इंडिया गठबंधन के नेताओं का कुछ समझ नहीं आ रहा। लेकिन नीतीश कुमार का ‘फ्रस्टेशन’ समझ आ रहा है। नीतीश ने विधानसभा और विधानपरिषद में सेक्स एजुकेशन के बहाने जो कुछ कहा वह खुद को ही कलंकित करने जैसा था। अब नीतीश के चाहने वाले (जिनमें अभय दुबे भी शामिल हैं) उनकी फूहड़ बातों को जातीय जनगणना की आड़ में छुपाना चाह रहे हैं। जबकि दोनों बातें अलग हैं। अब न तो उन्हें कोई संयोजक मानेगा और इंडिया गठबंधन का प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का तो सवाल ही नहीं। वे सठिया गए ज्यादा लगते हैं। गठबंधन में अपनी उपेक्षा से आहत लगते हैं। जो भी हो हम तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि गठबंधन के नेताओं को सद्बुद्धि आये और मोदी सत्ता से देश को निजात मिले। वरना क्या होगा इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल हो जाएगा।