स्वर्गीय प्रभाष जोशी के जीते जी उनकी नैतिकता, सादगी और दक्षता पर किसी ने उंगली नहीं उठाई. उनकी मौत के बाद उन पर कीचड़ उछालना एक तो शर्मनाक है और यह काम घिनौना हो जाता है, जब कोई शख्स इसके लिए झूठ बोलता हो. अगर कीचड़ उछालने वाला सहयोगी और सहकर्मी रहा हो तो यह नीचता की श्रेणी में आ जाता है. वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने स्वर्गीय प्रभाष जोशी की नैतिकता और सादगी का माखौल उड़ाया है. चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात से यह साबित होता है कि शेखर गुप्ता द्वारा उद्धृत घटना झूठी है. शेखर गुप्ता द्वारा अंकित सारे गवाहों ने उनकी रिपोर्ट को झूठा और बकवास बताया है.

page-3स्वर्गीय प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सिरमौर थे. उनकी मौत के बाद उन्हें राजनीतिक दलों का दलाल साबित करने की साजिश हो रही है. इंडिया टुडे जैसी विश्‍वसनीय पत्रिका ने प्रभाष जोशी को नेताओं के बीच रुपये से भरा सूटकेस ले जाने वाला घोषित कर दिया है. यह कोई भूल नहीं है. यह किसी अनुभवहीन पत्रकार की करतूत नहीं है. यह काम अंग्रेजी के वरिष्ठ संपादक शेखर गुप्ता की कलम से हुआ है. प्रभाष जोशी पर आरोप यह है कि उन्होंने हरियाणा के किसान नेता स्वर्गीय चौधरी देवी लाल का रुपये से भरा सूटकेस लेकर देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय वी.पी. सिंह के पास पहुंचाया था. शेखर गुप्ता ने अपने लेख के जरिए प्रभाष जोशी और वी. पी. सिंह के व्यक्तित्व पर कालिख पोता है. समस्या ये है कि इस कहानी के तीन किरदार हैं. प्रभाष जोशी, वी.पी. सिंह और चौधरी देवी लाल. तीनों के तीनों स्वर्गीय हैं. इंडिया टुडे में छपे झूठ को चैलेंज करने वाले आज जिंदा नहीं है. हो सकता है कि शेखर गुप्ता ने शायद ये सोचा होगा कि चूंकि तीनों अपने आप को डिफेंड करने के लिए जिंदा नहीं है इसलिए कुछ भी कहानी बना कर सनसनी फैलाकर नाम कमाया जा सकता है. प्रभाष जोशी को कलंकित कर दिया गया लेकिन पत्रकारिता-जगत चुप है. किसी ने इस झूठ पर सवाल नहीं उठाया. क्या पत्रकारों, खासकर हिंदी पत्रकारों, ने इंडिया टुडे पढ़ना बंद कर दिया है या फिर इस ग्रुप और शेखर गुप्ता जैसे ताकतवर पत्रकार के झूठ के ख़िलाफ आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं बची. विचित्र स्थिति है. पत्रकारिता के शीर्ष पर रहने वाले महान-महान संपादक ही अगर सनसनी फैलाने के लिए झूठी रिपोर्ट लिखने लगें तो यह मान लेना चाहिए कि देश की पत्रकारिता आधारभूत रूप से कलंकित हो चुकी है.
पहले ये देखते हैं कि शेखऱ गुप्ता ने लिखा क्या? शेखर गुप्ता इंडिया टुडे राष्ट्र हित नामक कॉलम लिखते हैं. 18 फरवरी के अंक में उन्होंने इस घटना का वर्णन किया है. लेख के आख़िरी हिस्से पुनश्‍च में वो लिखते हैं कि 27 साल ग़़ुजर चुके हैं. मैं इलाहाबाद की अपनी रिपोर्टर डायरी से एक अंश ज़ाहिर कर ही सकता हूं. वीपी सिंह ने चुनावों में साफ-सुथरी फंडिंग और कम से कम ख़र्च करने पर ज़ोर दिया था. मोटरसाइकल पर प्रचार करना उनका प्रिय शगल था. एक सुबह, जब वे रणनीति बनाने में लगे थे तो खादी पहने, जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी अंदर आए. उनके पास एक सूटकेस था जिसमें साढ़े सात लाख रुपये नगद थे. उन्होंने कहा कि चौधरी देवीलाल ने प्रचार अभियान के लिए यह योगदान भेजा है. वीपी सिंह गुस्से से बौखला गए, यह पैसा मैं कैसे ले सकता हूं. मेरा पूरा प्रचार इस तरह की राजनीति के खिलाफ है. जोशी हंसे और वीपी सिंह को वह कहा जो देवीलाल ने कहा था-राजा साहब (वीपी सिंह) को कह देना कि प्रचार के लिए पेट्रोल पर चलने वाले वाहनों की जरूरत होती है, जो पैसे से आते हैं. वह वाहन हवा-पानी पर चलना शुरू कर देंगे तो पैसे की जरूरत नहीं रहेगी. तब तक चुप रहें और जो मिल रहा है, उससे काम चलाएं.
इसके बाद, शेखर गुप्ता आगे लिखते हैं संयत व खामोश वीपी सिंह ने फिर वही किया. इसलिए हास्यास्पद दो करोड़ रुपये के योगदान पर आम आदमी पार्टी की मौजूदा शर्मिंदगी से तुलना कोई संयोगवश नहीं है. उस 1988 की कहानी का कोई गवाह है? कई अन्य रिपोर्टर (मेरे अलावा यानि शेखर गुप्ता के अलावा) लेकिन उनका नाम लेना मेरे लिए ठीक न होगा. उनके कुछ पत्रकार-रणनीतिकारों के बारे में भी मैं ज्यादा से ज्यादा केवल इतना कहूंगा कि उनमें से एक इस साल के पद्म पुरस्कारों की सूची में शामिल है.
इस कहानी को अगर ध्यान से समझने की कोशिश करें तो शेखर गुप्ता जो कह रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि जब ये घटना हुई उस वक्त वीपी सिंह के साथ शेखर गुप्ता के साथ-साथ कई और पत्रकार मौजूद थे. वो उन्हें वीपी सिंह के पत्रकार-रणनीतिकार बताते हैं. सबके सामने खादी के कपड़े पहने प्रभाष जोशी वहां आते हैं और सबके सामने ही वीपी सिंह को सूटकेस देते हैं व बिना किसी झिझक के कहते हैं कि ये सूटकेस चौधरी देवी लाल ने भिजवाया है. मतलब यह कि प्रभाष जोशी ने सबके सामने सूटकेस दिया और वहां बैठे सारे लोगों को बताया भी कि इस सूटकेस में साढ़े सात लाख रुपये हैं. राजनीतिक दलों के नोटों से भरे सूटकेस को पहुंचाने का काम कोई अच्छी बात तो है नहीं. यह एक अनैतिक काम है.

अब तो बस यही बच गया है कि शेखर गुप्ता को वीपी सिंह के पत्रकार-रणनीतिकारों का नाम बताना चाहिए जो इस घटना के गवाह थे. अगर शेखर गुप्ता इस घटना के गवाहों को पेश नहीं कर सकते तो इसका मतलब साफ है कि उन्होंने न सिर्फ पत्रकारिकता को कलंकित किया बल्कि स्वर्गीय प्रभाष जोशी और स्वर्गीय वीपी सिंह की छवि पर कीच़ड उछालने का काम किया है. अगर गवाह या सुबूत पेश नहीं किया जाता है तो इंडिया टुडे को माफी मांगनी चाहिए. शेखर गुप्ता से तो यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. पिछले कुछ सालों में शेखर गुप्ता संपादक के रूप में कई गूफ-अप कर चुके हैं.

साधारण सा व्यक्ति भी यह काम सार्वजनिक नहीं करेगा. सार्वजनिक रूप से सूटकेस को देना और पूरी डायलॉगबाजी तो कोई पेशेवर दलाल ही कर सकता है. पत्रकारों की मौजूदगी में तो पेशेवर राजनीतिक दलाल भी एक ठिठक जाएगा. ऐसा करने की हिम्मत नहीं होगी. यह काम तो वही कर सकता है जिसके लिए यह काम आम बात है. इस बिंदू को समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि जिस अंदाज में शेखर गुप्ता ने इस घटना का सजीव वर्णन किया है, उसमें यह नहीं बताया गया है कि जब वो आए तो लोगों को देखकर थोड़ा ठिठके या परेशान हुए. इसलिए यह कहा जा सकता है कि अपने लेख में शेखर गुप्ता ने इसे ऐसा रंग देने की कोशिश की है कि जैसे प्रभाष जोशी राजनीतिक दलों के लिए पैसे लेने-देने का काम करते थे. यह बात इसलिए भी कहा जा सकती है क्योंकि शेखर गुप्ता ने लिखा कि सूटकेस में सा़ढे सात लाख रुपये नगद थे. क्या सबके सामने प्रभाष जोशी ने सूटकेस खोल कर दिखाया या गिनती की या फिर एक पेशेवर की तरह सबके सामने सूटकेस के अंदर की सारी डिटेल सबके सामने दे दी और जब वीपी सिंह गुस्से से बौखला गए तब प्रभाष जोशी हंसकर उन्हें समझाने लग गए. पूरी घटना को हास्यास्पद रूप में पेश करने के लिए शेखर गुप्ता ने बताया कि वीपी सिंह ने पहले गुस्सा दिखाया लेकिन फिर भी पैसे रख लिए. ये तो व्यवहारिक बुद्धि की बात है कि क्या प्रभाष जोशी जैसी शख्सियत का व्यक्ति किसी नेता का नोटों से भरा सूटकेस किसी दूसरे नेता के पास ले जाने का काम कर सकता है? हक़ीक़त यह है कि दुराभाव से ग्रसित होकर इस लेख के जरिए शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी जी पर कीचड़ उछाला है साथ ही वीपी सिंह को भी बदनाम करने की कोशिश की.
इस घटना की सच्चाई का पता कभी नहीं चलेगा. इस कहानी के सारे किरदार अब हमारे साथ नहीं है. लेकिन शेखर गुप्ता ने अपने लेख में एक गलती कर दी. एक काल्पनिक घटना को विश्‍वसनीय बनाने के लिए शेखऱ गुप्ता ने सुबूत के तौर पर कुछ लोगों की ओर इशारा कर दिया. उन्होंने लिखा कि उस वक्त उनके अलावा कई अन्य रिपोर्टर भी मौजूद थे. हालांकि उनका नाम तो शेखर गुप्ता ने नहीं बताया लेकिन उन्हें वीपी सिंह का पत्रकार-सलाहकार की संज्ञा देकर एक परोक्ष संकेत जरूर दिया. उन्होंने लिखा कि इस घटना के गवाह में से एक इस साल के पद्म पुरस्कारों की सूची में शामिल है.
यहीं से इस लेख की सच्चाई की तहक़ीक़ात शुरू होती है. इस साल के पद्म पुरस्कारों में तीन पत्रकारों के नाम हैं: राम बहादुर राय, रजत शर्मा और स्वपनदास गुप्ता. मतलब यह कि शेखर गुप्ता के लेख के मुताबिक इन्हीं तीनों नामों में से कोई एक उस घटना के दौरान मौजूद था. चौथी दुनिया ने इंडिया टीवी के एडिटर इन चीफ रजत शर्मा से संपर्क साधा. उनसे यह पूछा कि क्या आप 1988 के चुनाव के दौरान इलाहाबाद में मौजूद थे और क्या आपके सामने प्रभाष जोशी जी ने वीपी सिंह को रुपये से भरा एक सूटकेस दिया था. उनका कहना साफ था कि उन्हें इस घटना के बारे कोई जानकारी नहीं है क्योंकि 1988 के समय तक तो वो वीपी सिंह से कभी मिले ही नहीं थे. शेखर गुप्ता के पहले गवाह ने इस घटना की गवाही नहीं दी. चौथी दुनिया ने पद्म पुरस्कार की लिस्ट में दर्ज दूसरे पत्रकार स्वपनदास गुप्ता से बात की. इस घटना के संदर्भ में उनसे भी यही सवाल पूछा गया. सवाल खत्म होते ही उन्होंने इस पूरी कहानी को बकवास बता दिया.
शेखर गुप्ता के गवाहों की लिस्ट में बचा एक नाम राम बहादुर राय का है. चौथी दुनिया ने जब उनसे संपर्क साधा. उन्होंने भी इस घटना को ही नकार दिया. उन्होंने बताया कि वो तो इलाहाबाद में थे ही नहीं. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा शेखर गुप्ता के लिखे को मुझसे जोड़ दिया गया है. कई पत्रकार मित्रों ने यही समझा. उन्होंने बताया कि लगता है, आपका ही परोक्ष उल्लेख है. शेखर गुप्ता के कॉलम को पढ़ इससे पहले ही मुझे यह बात बताई गई. जिनका-जिनका फोन आया, उनसे मैंने कहा कि मैं 1988 के उस इलाहाबाद उपचुनाव में नहीं जा सका था. दो कारण थे. पहला यह कि नवभारत टाइम्स के प्रबंधन का मुझे न भेजने का निर्णय था. दूसरा कारण पारिवारिक था. जब मुझे प्रबंधन के निर्णय की सूचना दी गई तो मैंने सोचा और फिर वहां न जाने का विचार पक्का किया. मेरी सोच जो तब थी वही आज भी है. राजनीतिक काम-काज छोड़कर पत्रकारिता में आया था. अख़बार के निर्णय को न मानकर अगर इलाहाबाद जाता तो वह पत्रकारिता के विपरीत होता और राजनीतिक कार्यकर्ता के अनुरूप मेरा वह आचरण माना जाता. जो मैं नहीं चाहता था. विश्‍वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति का मैं प्रशंसक था और आज भी हूं. मैं मानता हूं कि विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी राजनीति से समाज सुधार को जो अंजाम दिया वैसा उदाहरण खोजना मुश्किल है. लेकिन उनका प्रशंसक होना एक बात है और पत्रकारिता का फ़र्ज निभाना बिल्कुल दूसरी बात है. मैं नवभारत टाइम्स में तब विशेष संवाददाता था. अख़बार ने जो फैसला किया, उसे मानकर इलाहाबाद नहीं गया. लेकिन बनारस के कई मित्र वहां पहुंचे थे जो प्रोफेसर थे. उनसे चुनाव के उतार-चढ़ाव की जानकारी मिलती रहती थी.
मतलब यह कि अगर राम बहादुर राय इलाहाबाद में मौजूद ही नहीं थे तो वो इस घटना का साक्ष्य नहीं हो सकते. दरअसल, यहां मामला ही दूसरा है. हमारी तहक़ीक़ात से पता चला कि इस चुनाव के दौरान प्रभाष जोशी जी इलाहाबाद गए ही नहीं. उस वक्त हेमंत शर्मा जी को जनसत्ता के संवाददाता के रूप में इलाहाबाद भेजा गया. हेमंत जी इस वक्त इंडिया टीवी से जुड़े हैं. वो चुनाव के दौरान 25 दिनों तक इलाहाबाद में रहे. उनका कहना है कि 1988 के चुनाव के दौरान जनसत्ता के संपादक स्वर्गीय प्रभाष जोशी जी इलाहाबाद आए ही नहीं. सूटकेस और रुपये की बात ही दूर है. शेखर गुप्ता इलाहाबाद में थे. वो खुद को इस घटना का साक्ष्य भी बता रहे हैं. वो ये भी कह रहे हैं जब यह घटना घटी तो वहां पत्रकार भी मौजूद थे. शेखर गुप्ता की मानें तो इलाहाबाद में मौजूद दूसरे सभी पत्रकारों को प्रभाष जोशी के बारे में पता था सिर्फ जनसत्ता के संवाददता को छोड़ कर. यह कैसे हो सकता है कि संपादक शहर में हों और संवाददाता को पता न हो. जबकि जो लोग जनसत्ता या प्रभाष जी को नजदीक से जानते हैं वो इस बात को जानते हैं प्रभाष जी के साथ हेमंत जी की घनिष्टता आखिरी वक्त तक रही. इंडिया टुडे में छपा शेखर गुप्ता का लेख हर हिसाब से झूठा साबित हो रहा है.
अब तो बस यही बच गया है कि शेखर गुप्ता को वीपी सिंह के पत्रकार-रणनीतिकारों का नाम बताना चाहिए जो इस घटना के गवाह थे. अगर शेखर गुप्ता इस घटना के गवाहों को पेश नहीं कर सकते तो इसका मतलब साफ है कि उन्होंने न सिर्फ पत्रकारिकता को कलंकित किया बल्कि स्वर्गीय प्रभाष जोशी और स्वर्गीय वीपी सिंह की छवि पर कीच़ड उछालने का काम किया है. अगर गवाह या सुबूत पेश नहीं किया जाता है तो इंडिया टुडे को माफी मांगनी चाहिए. शेखर गुप्ता से तो यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. पिछले कुछ सालों में शेखर गुप्ता संपादक के रूप में कई गूफ-अप कर चुके हैं. भारतीय सेना और थलसेना अध्यक्ष के खिलाफ मुहिम चलाई थी. हथियार के सौदागरों और यूपीए सरकार के मंत्रियों के पक्ष में कहानियां गढ़ने का भी आरोप लगा. बाबा रामदेव के हवाले से इबोला वायरस का इलाज भी ढूंढ निकाला. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सार्वजनिक रूप से विरोध किया. टीवी चैनलों पर वो किसी कांग्रेसी कैंपेनर की तरह अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कैंपेन करते नजर आए. वैसे, हर पत्रकार को यह आजादी है कि वो अपने हिसाब से किसी भी विचार या संगठन का विरोध या समर्थन कर सकता है लेकिन उसका आधार झूठ या मिथ्या नहीं होना चाहिए. पत्रकारिता जगत में शेखर गुप्ता की करतूतों पर खामोशी इस बात का संकेत है कि अगर आप बड़े बड़े उद्योगपतियों और नेताओं के नजदीकी पत्रकार हैं तो आपको झूठ बोलने और सनसनी फैलानी की खुली आजादी है.

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