आज जब पत्रकारिता पैसे लेकर लोगों के हितों को साध रही है. जर्नलिज़्म ऑफ करेज का लेबल देकर जर्नलिज़्म ऑफ़ दलाली चल रही है. इस बीच अपने साथियों में ऐसे लोग नहीं हैं जो ऐसी पत्रकारिता का विरोध करें तो लगने लगता है कि यह पत्रकारिता का राक्षस है जो हमें खा जाएगा. हमें लगता है कि हम इस सत्यता को भी भूल गए कि चींटी बड़ी आसानी से हाथी को मार सकती है. ऐसी पत्रकारिता का विरोध होना चाहिए. आज अगर निराशा का बादल नहीं हटाया तो कल यह निराशा के तूफ़ान में बदल जाएगा.
हम अपनी कुछ रिपोर्टों के बारे में कहना चाहते हैं, जिनमें सबसे पहली रिपोर्ट कोयला घोटाले को लेकर थी. हमने इसे देश में सबसे पहले छापा. इससे पहले हमने रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट अपने अख़बार में छापी थी और चुनौती दी थी कि सरकार कहे कि यह रिपोर्ट झूठी है. इस रिपोर्ट को लेकर राज्यसभा और लोकसभा में काफ़ी हंगामा हुआ. अंतत: लोकसभा के इतिहास में पहली बार 45 से 50 सांसद चौथी दुनिया अख़बार लेकर ख़डे हुए और उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री इसके ऊपर जवाब दें. प्रधानमंत्री को रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखने का आश्वासन देना प़डा और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट देश के सामने आई. ये अलग बात है कि सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट की सिफ़ारिशों के ऊपर कुछ भी नहीं किया है. इसी तरह सबसे पहले हमने कोयला घोटाले को उजागर किया और हमने कहा कि ये 26 लाख करो़ड का घोटाला है. जब हमने यह रिपोर्ट छापी, तब राजनीतिक पार्टियों की नज़र इस पर गई. लोकलेखा समिति ने इसके ऊपर जांच शुरू की. सुप्रीम कोर्ट ने इसे बहुत गंभीरता से लिया और आज कोयला घोटाला देश में सबसे ब़डे भ्रष्टाचार का सवाल बनकर ख़डा हुआ है, जिस पर सरकार झूठ पर झूठ बोल रही है. सरकार के कब्ज़े से फ़ाइलें गायब हो जाती हैं, सरकार को पता नहीं चलता. मानो कोई टहलता हुआ आया और फ़ाइलें उठाकर चला गया. ये उस सरकार का हाल है, जो सरकार पाकिस्तान के, चीन के भेदियों से घिरी हुई है और ये पता नहीं लगा पा रही है कि सरकार के भीतर कौन पाकिस्तान का भेदिया है और कौन चीन का भेदिया. हमारे देश में कई ख़ुफ़िया एजेंसियां काम कर रही हैं, जिनमें मोसाद, आईएसआई, सीआईए और सबसे कमज़ोर रूस की केजीबी भी है. इनमें से किसके पास कौन अफसर है और किसके पास कौन मंत्री, पता नहीं चलता, लेकिन नतीजा सामने है कि मंत्रालय से फ़ाइलें गायब हो जाती हैं. ये तो संयोग की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके ऊपर स़ख्त रुख़ अपनाया और इसके ऊपर एफआईआर दर्ज हुई, नहीं तो कितने केसों के कितने संवेदनशील विषयों की फ़ाइलें विदेशी ताक़तों के पास, हमारे दुश्मनों के पास पहुंच जाती हैं, कहा नहीं जा सकता.
हमने सबसे पहले यह उजागर किया कि तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह को 14 करो़ड के घूस की पेशकश की गई. ये मज़े की बात है कि शोर-शराबा हुआ, लोगों की भौंहें तनीं, सीबीआई को जांच सौंपी गई और सीबीआई ये कहती है कि क्योंकि उन्हें जो सीडी सौंपी गई, वो सीडी करप्ट थी, इसलिए उनके हाथ में कोई सबूत नहीं है. ये तर्क समझ में नहीं आता, क्योंकि आजकल इतनी टेक्नोलॉजी है कि कोई भी चीज अगर हार्डडिस्क में है, रिकॉर्ड हुई है, तो रिकवरी की जा सकती है. ऐसा सीबीआई ने क्यों नहीं किया. अंदाजा यही लगाया जा सकता है कि हथियारों के दलाल, जो साउथ ब्लॉक में घूमते हुए देखे जा सकते हैं, जिनके फाइव स्टार होटलों में सुईट हैं, जो ब़डी-ब़डी पार्टियां देते हैं, जिनमें से कुछ अंदर हैं, तो कुछ बाहर हैं. जिनके संपर्क में मंत्रियों के बेटे और बेटियां हैं, दामाद हैं, वो सारे लोग शायद ज़्यादा भारी हैं, बनिस्बत भारत सरकार की ख़ुफ़िया एजेंसियों के और भारत सरकार की इज़्ज़त के. हमने ये सूची भी अपने अख़बार में छापी है कि नक्सलवादी संगठनों को कौन-कौन से उद्योगपति नियमित रूप से पैसा देते हैं. सरकार इस रिपोर्ट पर आंख बंद कर के बैठी है. विपक्ष भी इस रिपोर्ट पर चुप्पी साधे हुए है.
हमने यूआईडी यानी आधार कार्ड को लेकर सबसे पहले रिपोर्ट छापी, जिसमें हमने ये कहा कि आधार कार्ड को बनाने का फैसला विदेशी कंपनियों के लिए लिया गया. विदेशी जासूसी एजेंसियों के लिए लिया गया और ख़र्चा हमारे ख़ून-पसीने की कमाई से भारत सरकार ने किया. 60 हज़ार करो़ड का बजट यूआईडी के लिए रखा गया, जिसका फैसला संसद में नहीं हुआ, यह फैसला एक्जीक्यूटिव ऑर्डर से हुआ. एक झटके में 60 हज़ार करो़ड पानी में चले गए और आधार कार्ड की आवश्यकता को लेकर ब़डे-ब़डे विज्ञापन, ब़डे-ब़डे कैंपेन चलाए गए. हमने हर बार कहा कि ये पैसा खाया जा रहा है और जिन लोगों की मदद से ये आधार कार्ड बनाए जा रहे हैं, उनकी कोई विश्वसनीयता नहीं है. ग़लत पते, ग़लत नाम, ग़लत जगहों से आधार कार्ड बने. अविश्वसनीय आधार कार्ड बने, लेकिन सही-ग़लत डाटा विदेशी मार्केटिंग कंपनियों और विदेशी जासूसी एजेंसियों के पास पहुंच गया. हमने ये भी शक ज़ाहिर किया कि जब कभी इस देश में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नरसंहार का फैसला होगा, तब ये आधार कार्ड का डाटा उनके लिए मार्गदर्शक नक्शे का काम करेगा. हमें ख़ुशी है कि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले को अपनी स़ख्त निगरानी में रखा है, वैसे ही उसने एक अहम फैसला दिया है कि आधार कार्ड लाज़िमी नहीं है. इसने हमें एक बार फिर सही साबित किया. भारत सरकार आधार कार्ड को लाज़िमी बनाना चाहती थी. नंदन नीलेकणी ने इस आधार कार्ड के सारे बजट को दाएं-बाएं करके बर्बाद किया और उन्होंने पिछले चार साल सरकार के दामाद की तरह वक्त काटा. अब वो राज्यसभा के ज़रिये संसद में आना चाहते हैं. ज़ाहिर है नंदन नीलेकणी कि वजह के कुछ लोगों को हज़ार या दो हज़ार करोड़ का फ़ायदा हुआ है. वे ज़रूर नंदन नीलेकणी को राज्य सभा में लाना चाहेंगे.
हम इन रिपोर्टों का ज़िक्र इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि हमने इसके पहले देश में तकरीबन 80 रिपोर्ट ऐसी छापीं जो न केवल देश में पहले आईं, बल्कि उन्होंने उन लोगों को चौंकाया जो सचमुच समाचार और समाचार के पीछे के कारणों को जानना चाहते हैं. आज जबकि पत्रकारिता पैसे लेकर लोगों के हितों को साध रही है. जर्नलिज़्म ऑफ करेज का लेबल देकर जर्नलिज़्म ऑफ़ दलाली चल रही है. इस बीच अपने साथियों में ऐसे लोग नहीं हैं जो ऐसी पत्रकारिता का विरोध करें तो लगने लगता है कि यह पत्रकारिता का राक्षस है, जो हमें खा जाएगा. तब हमें लगता है कि हम इस कहानी को भूल गए और इस सत्यता को भी भूल गए कि चींटी बड़ी आसानी से हाथी को मार सकती है. ऐसी पत्रकारिता का विरोध होना चाहिए और जो लोग इसका विरोध नहीं कर रहे हैं, वे लोग कायर हैं ऐसा तो मैं नहीं मानता, लेकिन वे लोग पत्रकारिता की इस स्थिति से निराश ज़रूर हैं. ऐसे सभी निराश साथियों से हमारा अनुरोध है कि आज अगर निराशा का बादल नहीं हटाया तो कल यह निराशा का बादल निराशा के तूफ़ान में बदल जाएगा.
सबसे ज़्यादा अफ़सोस इस बात का है कि जिस अख़बार को श्री रामनाथ गोयनका ने पत्रकारिता के सर्वोच्च आदर्शों के लिए अलंकृत कर रखा था, जो अख़बार सत्ता की चापलूसी से कोसों दूर था और जिन रामनाथ गोयनका ने सत्ता को कभी अपना आदर्श नहीं माना, उन्हीं रामनाथ गोयनका के बेटे विवेक गोयनका के नेतृत्व में चलने वाला यह अख़बार इस समय न केवल सत्ता की चापलूसी में लिप्त है, बल्कि उसकी सारी रिपोर्ट पत्रकारिता के मानदंड़ों के विपरीत भ्रष्टाचार के पक्ष में छपती दिखाई दे रही हैं. जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बोलने की कोशिश भी करते हैं, उनके ख़िलाफ़ यह अख़बार मुहिम चलाता दिख रहा है. अब इस अख़बार को जनता की तकलीफ़ों से कोई वास्ता नहीं. अब इस अख़बार को रामनाथ गोयनका के आदर्शों से कुछ लेना-देना नहीं, अब यह अख़बार ऐसी पत्रकारिता के साथ चल रहा है जिसमें पैसा है. वह पैसा चाहे दलाली से आए, हथियारों के सौदागरों की दलाली से आए या फिर विदेशी ताकतों के पक्ष में रिपोर्ट लिखकर आए.
अच्छी बात यह है कि इस अख़बार के पत्रकारों का बहुमत अपने अख़बार की इस नीति के ख़िलाफ़ है. इस अख़बार के बहुत सारे लोग जब हमें मिलते हैं तो बताते हैं कि वे इस जर्नलिज़्म से कोई सरोकार नहीं रखते, कोई वास्ता नहीं रखते, वे स़िर्फ नौकरी कर रहे हैं. यह बात सही है कि आज के बाज़ारवाद और महंगाई के इस दौर में नौकरी एक बड़ी चीज़ है. लेकिन अंतरात्मा या पत्रकारिता के आदर्श भी जीवन में कुछ स्थान तो रखते ही हैं. जो लोग पत्रकारिता में शुद्धि चाहते हैं, उन्हें किसी न किसी तरह यह आवाज़ बुलंद करनी चाहिए, ताकि दलाली और देशद्रोह की पत्रकारिता के ऊपर लगाम लग सके.