तो क्या यह संसद अपनी साख खोने के रास्ते पर चल पड़ी है? डर लगता है कहने में, लेकिन कहना पड़ता है कि हां, चल पड़ी है. संसद भारत में लोकतंत्र का चेहरा और पहचान है. अगर इसमें बैठने वाले, किसानों, अल्पसंख्यकों, बेरोज़गारों, दलितों और कमज़ोर वर्गों के बारे में न सोचें तो वे मिलजुल कर लोकतंत्र के खात्मे के रास्ते पर संसद को ले जाएंगे. यह केवल डर नहीं है, बल्कि सच्चाई है.
ज के राजनेता किस तरह के उदाहरण बनेंगे, और आगे आने वाले इनके पदचिह्नों पर कैसे चल कर किस तरह का व्यक्तित्व विकसित करेंगे, इसे देखना-समझना और फिर अपना सिर पीटना चाहिए. लेकिन एक उदाहरण पहले के नेताओं का आपके सामने रखना चाहते हैं.
आचार्य नरेंद्र देव और उनके साथियों ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई थी. नेहरू जी प्रधानमंत्री थे. आचार्य नरेंद्र देव बीमार थे और नई पार्टी का घोषणापत्र लिखा जाना था. आचार्य जी ने घोषणापत्र लिखने के लिए संपूर्णानंद जी से अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. पं. संपूर्णानंद उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. जब संपूर्णानंद जी द्वारा लिखित घोषणापत्र आया तो आचार्य नरेंद्र देव ने कहा कि इसे प्रेस में भेज दो. वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि एक बार देख तो लीजिए, संपूर्णानंद जी कांग्रेस में हैं और मुख्यमंत्री हैं. आचार्य जी मुस्कुराए और बोले कि कुछ देखने की ज़रूरत नहीं है, जब संपूर्णानंद ने लिखा है तो कॉमा बदलने की भी आवश्यकता नहीं होगी. यह था विश्वास. कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने अपनी विरोधी पार्टी का घोषणापत्र लिखा और विरोधी दल का सर्वोच्च नेता उस घोषणापत्र में कॉमा भी बदलना नहीं चाहता. यह गुप्त भी नहीं था, सभी को इस बात का पता था. पंडित नेहरू से लोगों ने कहा कि वह पंडित संपूर्णानंद को मना करें कि वह न लिखें, पर पंडित जी ने कहा कि आचार्य जी ने कहा है तो मैं कैसे संपूर्णानंद जी को मना कर सकता हूं.
ऐसा ही एक और उदाहरण है. प्रजा समाजवादी पार्टी ने लखनऊ में विधानसभा के सामने सरकार विरोधी प्रदर्शन आयोजित किया. चंद्रभानु गुप्त उस समय मुख्यमंत्री थे. लगभग दस हज़ार लोग प्रदर्शन में आए थे. शाम को उनके खाने की समस्या आ गई. पार्टी के पास पैसा ही नहीं था. चंद्रशेखर ने साथियों से कहा कि चलते हैं गुप्ता जी से कहते हैं कि वह खाने के लिए कुछ करेंे. चंद्रशेखर गुप्ता जी के पास गए और इससे पहले कि चंद्रशेखर उनसे कहते, उन्होंने कहा कि उन्होंने दरबारी लाल से दस हज़ार लोगों के खाने के इंतज़ाम के लिए कह दिया है. सबने रात में खाना खाया. ऐसे होते हैं नेता. मुख्यमंत्री अपने ही ख़िला़फप्रदर्शन करने वाले हर प्रदर्शनकारी के लिए खाने का इंतज़ाम कर रहा है. इस क्रम की आख़िरी कड़ी चंद्रशेखर जी थे. कल्पनाथ राय जेल भेज दिए गए, चंद्रशेखर सबसे पहले उनसे मिलने गए और जजों के ख़िला़फ कड़ा बयान दिया. लालू यादव चारा घोटाले में पकड़े गए, चंद्रशेखर उनसे मिलने जेल गए. मुलायम सिंह की हर मुसीबत में खड़े रहे.
जब नरसिंह राव से कोई मिलने नहीं जाता था, तब वह अक्सर उनके पास जाते थे. अब आज के नेताओं को देखें. लगता है इनमें राजनीतिक संस्कार हैं ही नहीं. इनकी भाषा सुनिए तो लगेगा कि संस्कार पाया ही नहीं है. विरोधी दल के साथी की इज्ज़त तो छोड़ दीजिए, अपने ही दल के नेता को कब कहां बेइज्ज़त कर देंगे, कहा नहीं जा सकता. इन चुनावों में तो सभी ने शालीनता की सीमाएं तोड़ दीं. आलोचना कब गाली बन जाती है और कब सभ्यता की सीमा लांघ जाती है, इसका किसी ने न ध्यान रखा और यह भी बता दिया कि उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं है.
अब गठबंधन बनाने का वक्त आ गया है तो आप देखेंगे कि जिन्होंने एक-दूसरे को आलोचना से आगे डॉ. राममनोहर लोहिया बहुत थोड़े समय के लिए लोकसभा में रहे, लेकिन उनके भाषण आज भी याद किए जाते हैं. आज कितने सांसद हैं जिनका नाम ज़ुबान पर लें और अच्छा लगे या कितने नेता ऐसे हैं जिनका भाषण दूसरों को सुनाने में गर्व महसूस हो. जाकर कोसा है, उन्हें हराने में अपनी सारी ताक़त लगाई है, अब उन्हीं के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करेंगे. ऐसा लगेगा जैसे पहले कुछ हुआ ही न हो. पर
ये लोग भूल जाते हैं कि इनकी साख देश के मतदाताओं में लगभग शून्य के आसपास पहुंचती जा रही है. ऐसे नेता आज हैं तो इनके अनुयाई इनसे आगे ही जाएंगे. पंद्रहवीं लोकसभा में आप सांसदों की मार-पिटाई देखने लिए तैयार हो जाइए, क्योंकि कोई किसी की वहां इज्ज़त नहीं करता. अगर ज़्यादा योग्य शिष्य आ गए तो रिवाल्वर भी लहराई जा सकती है.
पच्चीस साल पहले सांसदों का नाम लेने में गर्व अनुभव होता था. नाथ पाई, एच वी कामथ, मधु लिमए, किशन पटनायक, भूपेश गुप्त, ज्योतिर्मय बसु, चंद्रशेखर, कृष्णकांत, मोहन धारिया जैसे नामों की लंबी कतार है. डॉ. राममनोहर लोहिया बहुत थोड़े समय के लिए लोकसभा में रहे, लेकिन उनके भाषण आज भी याद किए जाते हैं. आज कितने सांसद हैं जिनका नाम ज़ुबान पर लें और अच्छा लगे या कितने नेता ऐसे हैं जिनका भाषण दूसरों को सुनाने में गर्व महसूस हो.
ऐसे ही नेताओं का ज़माना आ गया है, जिनका नाम लेने में खुशी महसूस न हो और लगता है कि ऐसे ही लोगों से आने वाली लोकसभा सुशोभित भी होगी. क़ानून बनेंगे पर उन्हें कोई सांसद पढ़ेगा नहीं, तो जो सेक्शन अफसर लिखकर भेजेगा वही पास हो जाएगा. किसानों के गुस्सैल आंदोलन होंगे, बेरोज़गारी का बुरा असर होगा, महंगाई परेशान करेगी, आतंकवाद घेरे में लेगा लेकिन संसद में इन पर ठोस बहस नहीं हो पाएगी. बहस होगी, पर एक-दूसरे पर वार करने के लिए, अपमानित करने के लिए. क्या कभी जनता की समस्याएं भी संसद की चिंता का विषय बन पाएंगी?
तो क्या यह संसद अपनी साख खोने के रास्ते पर चल पड़ी है? डर लगता है कहने में, लेकिन कहना पड़ता है कि हां, चल पड़ी है. संसद भारत में लोकतंत्र का चेहरा और पहचान है. अगर इसमें बैठने वाले, किसानों, अल्पसंख्यकों, बेरोज़गारों, दलितों और कमज़ोर वर्गों के बारे में न सोचें तो वे मिलजुल कर लोकतंत्र के खात्मे के रास्ते पर संसद को ले जाएंगे. यह केवल डर नहीं है, बल्कि सच्चाई है.
तो क्या उन्हें आगे आना पड़ेगा, जो नेता नहीं माने जाते या जो संसद में नहीं जाना चाहते? ऐसे लोग होंगे अवश्य, लेकिन वे दुनिया के सामने हम मीडिया वालों की मेहरबानी से आगे नहीं आ पाते. सौ करोड़ से ज़्यादा की आबादी वाला मुल्क अच्छे लोगों के लिए तरसता रहे, जो नेतृत्व कर सकें, जो उदाहरण बन सकें, तो यह लानत है. आने वाले महीने बहुत ख़तरनाक हैं, क्योंकि ये तय करेंगे कि हमारे देश में लोकतंत्र का भविष्य कैसा है. यही महीने तय करेंगे कि राजनीतिक दल अपनी साख बिगाड़ने के लिए और कौन-कौन से काम करते हैं.
जनता को जागना चाहिए, जागना ही होगा, नहीं तो उसकी किस्मत किसी तानाशाह की  मुट्ठी में क़ैद हो जाएगी. तानाशाही कैसी होती है और उसमें क्या होता है, क्या किसी को बताने की ज़रूरत है?

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