[भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी का दौर खत्म हो चुका है और पता नहीं था कि इतनी जल्दी अटल बिहारी वाजपेयी अप्रासंगिक हो जाएंगे. उनकी अपील, उनकी फिल्म, उनका टेप,मतदाताओं के नाम उनका संदेश, यहां तक कि उनकी तस्वीर भी इन लोकसभा चुनावों से गायब है. राजनीति में इतना नाशुक्रापन पहले कभी देखने को नहीं मिला.]
भारतीय राजनीति के कई पहलुओं को उसके सबसे नंगे रूप में देखने के लिए तैयार हो जाइए. 22 मई तो बाद में आएगी, जब सचमुच सरकार बनेगी और प्रधानमंत्री के नाम पर फैसला होगा लेकिन उसके पहले के घात-प्रतिघात और उससे उपजी कटुता के परिणाम भारतीय राजनीति पर क्या असर डालेंगे, इसे देखना दिलचस्प होगा. ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीति में अनुशासन हीनता का महापर्व चल रहा है जिसमें सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. पूरी राजनीति परस्पर अविश्वास के आधार पर चल रही है. एक राजनैतिक दल है, एक विचारधारा है, एक साथ काम करने वाले लोग हैं लेकिन किसी का दूसरे में विश्वास नहीं है, जब मिलते हैं तो होठों पर मुस्कुराहट होती है लेकिन मन में शंका. जैसे ही मिल कर दूर जाते हैं, पता लगाने की कोशिश शुरू हो जाती है कि दूसरा आख़िर करने क्या जा रहा है और यह भी कि उसे रोका कैसे जा सकता है.
भारतीय जनता पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी का दौर खत्म हो चुका है और पता नहीं था कि इतनी जल्दी अटल बिहारी वाजपेयी अप्रासंगिक हो जाएंगे. उनकी अपील, उनकी फिल्म, उनका टेप, मतदाताओं के नाम उनका संदेश, यहां तक कि उनकी तस्वीर भी इन लोकसभा चुनावों से गायब है. राजनीति में इतना नाशुक्रापन पहले कभी देखने को नहीं मिला.
जब भाजपा ने तय किया कि श्री आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना है तब क्यों चुनाव के बीच में अरुण शौरी ने अगले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का नाम उछाल दिया, और क्यों जल्दी-जल्दी में अरुण जेटली ने उसका समर्थन कर दिया. दरअसल दोनों ने अनुशासनहीनता का महान उदाहरण प्रस्तुत कर दिया और पार्टी में संदेश दिया है कि अगर सहयोगियों ने कुछ भी सवाल खड़ा किया तो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में दोनों जी जान लगा देंगे. इन दोनों अरुण महानों ने सफलतापूर्वक आडवाणी के निर्विवाद नाम पर सवालिया निशान लगा दिया. सरसंघचालक मोहन भागवत की चुप्पी भी इशारा कर रही है कि वे इस विवाद को हटा देना चाहते हैं. सबसे खतरनाक नरेंद्र मोदी की मुद्रा है जो टी.वी. पर दिखाई जा रही है. वे प्रधानमंत्री बनाए जाने के सवाल का सवाल का उत्तर तो आडवाणी के नाम से देते हैं. दो दिन बाद वह जिस तरह से मुस्कुराते हैं वह कह जाता है कि वे सिर्फ कहने के लिए आडवाणी का नाम ले रहे हैं.
तो क्या भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री के नाम को लेकर कोई विवाद पैदा हो सकता है. और उस स्थिति में कौन-कौन नाम सामने आ सकते हैं. अगर संघ के सूत्रों पर विश्वास करें तो मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह का नाम ऐसा है जो विवाद की स्थिति में सर्वानुमति वाले नामों में शामिल हो सकता है. ऐसी स्थिति क्यों भाजपा के दो नेताओं ने पैदा कर दी कि आडवाणी के नाम के साथ ही दूसरे नामों पर भी भाजपा व संघ में बातचीत शुरू हो गई. इसे कहते हैं अनुशासनहीनता की गुगली.
कांग्रेस के भीतर प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई विवाद नहीं है क्योंकि सोनिया गांधी मनमोहन के नाम की खुद ही घोषणा कर चुकी हैं. लेकिन 27 अप्रैल को प्रणव मुखर्जी के चुनाव क्षेत्र में जब मंच से सोनिया गांधी ने पूछा कि हमारा प्रधानमंत्री कौन होगा तो भीड़ ने चिल्ला कर कहा कि राहुल गांधी, और सोनिया का ममता से भरा लेकिन शरमाया चेहरा बोला कि अभी तो हमारे पास एक प्रधानमंत्री है. इसका मतलब यह हुआ कि अगर मनमोहन सिंह स्वास्थ्य के कारणों से मना कर देते हैं या कांग्रेस का सर्मथन करने वाले दल वीटो लगा देते हैं तो फिर कौन प्रधानमंत्री होगा. कांग्रेस के साथ पांच साल सरकार चला चुके, शरद पवार, शरद यादव व राम विलास पासवान खुलेआम कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री वही बनेगा, जिसे वह चाहेंगे. प्रकाश कारत तो खुलकर कह चुके हैं कि कांग्रेस का प्रधानमंत्री होगा ही नहीं, बाहर का होगा, यानी या तो वह, या फिर मायावती.
अगर कांग्रेस के पुराने सहयोगियों को यूपीए मानें तो इस समय चुनाव में सभी एक दूसरे को, यानी कांग्रेस को लालू, राम विलास व महाराष्ट्र में शरद पवार छुपे तौर पर हराने की कोशिश कर रहे हैं. उड़ीसा में शरद पवार खुले आम कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं. पूरा यूपीए असंगठित और एक दूसरे के खिलाफ गर्दन काटने के लिए तैयार खड़ा है. वामपंथी कांग्रेस को और कांग्रेस वामपंथियों को बर्बाद करने में लगी है. देखना है कि दो हफ्तों बाद जब सरकार बनाने की कवायद शुरू होगी तो आज होने वाली विचारधारा की लड़ाई कैसे अपना मुखौटा बदल, सरकार बनाने की
विचारधारा में तब्दील हो जाएगी. पंडित जवाहर लाल नेहरू के दोनों नातियों के परिवारों में जुबानी सिर फुटौव्वल इन चुनावों में शुरू हो चुकी है और आपको अगले दो हफ्तों तक नए-नए जुमले सुनने को मिलेंगे. प्रियंका गांधी, राहुल गांधी और वरुण गांधी में समझौता था कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के यहां न प्रचार करने जाएंगे और न बयान देंगे. पिछले चुनाव में भाजपा ने काफी कोशिश की थी कि वरुण राहुल के चुनाव क्षेत्रों में उनके खिलाफ आवाज देने जाएं, लेकिन वरुण ने मना कर दिया था. इन चुनावों में वरुण के बयान पर प्रियंका की टिप्पणी कि लोग सबक सिखाएंगे, वरुण को खल गई और उन्होंने भी कह दिया कि मैं दादा-दादी के नाम पर राजनीति नहीं करता, अपने दम पर करता हूं. आशा करती चाहिए कि वरुण और प्रियंका, राहुल की अंत्याक्षरी अभी चलेगी.
डर है कि दोनों पक्ष एक दूसरे के चुनाव क्षेत्र में ललकारने न चले जाएं. इंदिरा गांधी के परिवार के बीच का झगड़ा अपने नंगे रूप में जनता के सामने आने वाला है अगर दोनों परिवारों ने समझदारी न दिखाई तो एनडीए में नीतीश कुमार ने पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया है तथा जार्ज फनार्ंडिस व दिग्विजय सिंह को दल से बाहर जाने और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने को विवश कर दिया है.
आडवाणी, राजनाथ सिंह व अरुण जेटली भी दोनों की कोई मदद नहीं कर पाए. अब नीतीश कुमार ने साफ कर दिया है कि यदि भाजपा को उनके सहयोग से सरकार बनानी है तो उसे धारा 370, राममंदिर बनाने व यूनिफार्म सिविल कोड की मांग छोड़नी होगी. भाजपा इस धमकी का जवाब देने की स्थिति में नहीं है. उधर कांग्रेस भी नीतीश कुमार के संपर्क में हैं. भाकपा महासचिव ए बी बर्धन ने कहा है कि उन्हें नीतीश कुमार से कोई परहेज नहीं है. ए बी बर्धन के बयान में भाजपा को चौकन्ना कर दिया है, वहीं नीतीश कुमार अपने बयानों व अपने चुनाव-प्रचार में काफी सावधानी बरत रहे हैं.
ये स्थितियां ऐसी हैं जो सीधी व साफ नहीं हैं. और न विचारधारा पर आधारित हैं. लंदन के लॉर्ड मेघनाद देसाई वकालत कर रहे हैं कि अगली सरकार कांग्रेस व भाजपा को मिल कर बनानी चाहिए. दोनों को
विचारधारा अलग रख आर्थिक और विकास के कामों का एजेंडा बनाना चाहिए और लागू करना चाहिए. क्या यह हो सकता है. अगर यह होता है तो वैचारिक अनुशासनहीनता के इतिहास का सबसे बड़ा उदाहरण होगा. कहते हैं कि हिंदुस्तानियों पर ईश्वर या अल्लाह बहुत मेहरबान है. इसलिए यहां कुछ भी हो सकता है. आप भी 22 मई की प्रतीक्षा कीजिए और किसी भी तरह की अनहोनी को देखने के लिए तैयार हो जाइए.
जब तोप मुकाबिल हो
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