Santosh-Sir

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री और अधिकारियों को स़ख्ती के साथ उन ताक़तों को रोकना चाहिए, जो उत्तर प्रदेश का अमन-चैन बर्बाद करने के लिए क़सम खाए बैठी हैं और उन्हें पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं है. शर्त स़िर्फ इतनी है कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाते एक्ट करें, न कि एक ग़ैर-ज़िम्मेदार नौजवान के नाते. लोग अब कहने लगे हैं कि अखिलेश नौजवान हों, समझदार हों, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे एक असफल मुख्यमंत्री हैं.

मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे काफ़ी कुछ सीख देते हैं. पहले यह कहा जा रहा था कि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे बिना किसी आर्थिक कारण के हो गए. यह भी कहा गया कि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे प्रशासनिक लापरवाही की वजह से इतने ज़्यादा फैले. और यह भी कहा गया कि यहां पर हिंदूवादी ताक़तें ज़्यादा प्रबल हैं, इसीलिए दंगे हुए. इस देश में दंगों की रिपोर्टिंग जिन लोगों ने सबसे ज़्यादा की, उनमें एम. जे. अकबर अभी जीवित हैं. उदयन शर्मा हमारे बीच से चले गए. उदयन शर्मा को दंगों की रिपोर्ट करने में महारत हासिल थी और वे दंगों को एक छिद्रान्वेषी नज़र से देखते थे और उसकी परतें-दर-परतें अलग कर देते थे. दंगों को रिपोर्ट करने का थोड़ा-बहुत अनुभव मुझे भी है. मेरा मानना है कि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे देश में सही तरह से रिपोर्ट नहीं हुए. हमारे मीडिया के लोग, मेरा मतलब प्रिंट या टेलीविज़न दोनों से है, मुज़फ़्फ़रनगर के एक होटल में जाकर रुक गए. सरकार ने उन्हें सुविधाएं दीं और उन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर शहर से बैठकर दंगों को रिपोर्ट किया. शहर में कर्फ़्यू था और मीडिया कर्फ़्यू को रिपोर्ट कर रहा था. वे शहर में सूनसान सड़कें दिखा रहे थे, बंद दुकानें दिखा रहे थे, लेकिन मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा शहर का दंगा नहीं था. मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा, तो गांव का दंगा था और हमारे माहिर साथी गांवों में गए ही नहीं. यही मेरे लिए सबसे बड़े अफ़सोस की बात है.
मुज़फ़्फ़रनगर के गांवों में दंगों की तहकीक़ात के बाद जो चीज़ें सामने आती हैं, वो यह कि यह पूरा इलाक़ा दो तरह के परस्पर विरोधी चरित्रों से भरा हुआ है. इस पूरे इला़के में भारतीय जनता पार्टी का कम, लेकिन आर्य समाज का ज़्यादा प्रभाव है. यहां आर्य समाज कब कट्टर हिंदुत्व में बदल गया, यह स्वयं आर्य समाज के लोगों को भी नहीं पता. पिछले तीन महीने में ऐसे मुसलमान जो ऊंचा पायजामा पहनते हैं, बड़ी दाढ़ी रखते हैं और टोपी लगाते हैं, ऐसे लोगों को चुन-चुनकर फ़ब्तियों का शिकार होना पड़ा और कुछ जगहों पर लोगों के हमलों का भी शिकार होना पड़ा. ट्रेन में या स्टेशनों पर ज़बरदस्ती दाढ़ी-टोपी वाले मुसलमानों को परेशान करने की कोशिशें काफ़ी बढ़ गई थीं. यह सारी जानकारी ज़िला प्रशासन को थी. ज़िला प्रशासन ने राज्य स्तर पर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को यह जानकारी भेजी या नहीं भेजी, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस इला़के में स़िर्फ मुज़फ़्फ़रनगर में ही नहीं, आसपास के कुछ और ज़िलों-सहारनपुर, मेरठ, शामली, बागपत में भी ये घटनाएं हो रही थीं. इन घटनाओं को रोकने की कोई कोशिश प्रशासन ने नहीं की. उत्तर प्रदेश सरकार के पास इतना व़क्त ही नहीं है कि ज़मीन पर क्या हो रहा है, उसके बारे में वो अधिकारियों की बैठक बुलाए और स़ख्त प्रशासनिक कार्रवाई का निर्देश दे.
यह पूरा इलाक़ा एक दूसरे चरित्र के लोगों से भी भरा हुआ है, जो निरामिष नहीं हैं, सामिष हैं. यहां पर मुसलमानों की एक बिरादरी के लोगों के पास पैसा आया और उन्होंने ज़मीनें ख़रीदनी शुरू कीं. हिंदुस्तान के गांवों में जिस तरह की समाज व्यवस्था है, उसमें पैसा हो न हो, लेकिन जाति का अभिमान यहां के लोगों के सिर पर पागलों की तरह नाचता है. जिन लोगों की ज़मीन कुरैश बिरादरी के लोगों ने ख़रीदनी शुरू कीं, उन लोगों ने पैसा तो ले लिया, लेकिन पैसा लेने के बाद अपनी जमीन के ऊपर बनते मकान या लहलहाती खेती को देखना इन लोगों के लिए चिढ़ का कारण बन गया. इस पूरे इला़के में तनाव का यह दूसरा कारण रहा. मज़े की बात कि गांवों में दंगे हुए, जिसमें ग़रीब मुसलमानों के घर ज़मींदोज कर दिए गए और कुछ जगहों पर कब्ज़ा करके वहां मकान बनाने शुरू हो गए, लेकिन उसी गांव में रहने वाले बड़ी जाति के मुसलमानों के ऊपर दंगों का एक छींटा तक नहीं पहुंचा. न किसी ने उन्हें गालियां दीं, न किसी ने उन्हें परेशान किया, न ही उनके ऊपर एक पत्थर फेंका, गोली की बात तो बहुत दूर. बड़ी जाति के मुसलमान जो गुर्जर और जाट मुसलमान हैं, वे अपने घरों में ही रहे. घर से निकले ही नहीं. उन्होंने छोटी जाति के मुसलमानों की मदद नहीं की. अगर सारे मुसलमान एक साथ खड़े हो जाते, तो यह दंगा नहीं फैलता. दंगाई गांव में नहीं आते, लेकिन बड़ी जाति के मुसलमानों ने छोटी जाति के मुसलमानों का साथ नहीं दिया.
दूसरी तरफ़ यह कहना कि हर जाति का आदमी इस दंगे में शामिल था, यह ग़लत है. इस दंगे में स़िर्फ और स़िर्फ 90 प्रतिशत से ज़्यादा जाट बिरादरी के लोग शामिल थे. जाट बिरादरी के लोगों को कुछ निहित स्वार्थी लोगों ने यह कहकर भड़काया कि तुम्हारी बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं. बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं, का मतलब ऐसा लगा कि मानो यहां पर जाटों की बहू-बेटियों पर ग़ैर-जाटों का हमला होने वाला है या हमला हो रहा है, जोकि निहायत ग़लत और असत्य की परिभाषा से भी परे अगर कोई असत्य हो सकता है, तो यह असत्य था. आजकल के नौजवान चाहे वे जाटों में हों, मुसलमानों में हों, दलितों में हों, वे धर्म का बंधन बहुत ज्यादा नहीं मानते. जाति का बंधन वे तोड़ रहे हैं. हालांकि बहुत सारी जगहों पर चाहे मुसलमानों की पंचायतें हों, जाटों की पंचायतें हों, ऐसे प्यार करने वाले लोगों की हत्या का आदेश तक दे रहे हैं. मैं फिर कह रहा हूं कि यह दोनों तरफ हो रहा है. मुसलमान भी अपने यहां प्यार करने वाले नौजवानों के ख़िलाफ़ पंचायतें करते हैं, दूसरी तरफ़ जाट भी ऐसी पंचायतें करते हैं. वे अपने नौजवानों को आज के टेलीविज़न और सूचना की दुनिया में फैलने वाली जानकारी से दूर रखना चाहते हैं. जब घर में टेलीविज़न से बाहरी दुनिया दिखाई देती है, तो नौजवान लड़के-ल़डकियों का मन आसमान में उड़ने के लिए बेक़रार हो जाता है. और जब वे उड़ना चाहते हैं, तो उनकी जान के दुश्मन उन्हीं के परिवार और उनके समाज के लोग हो जाते हैं. इस घटना में भी यही हुआ. एक घटना या दो घटना को पूरे जाट समाज की इज़्ज़त से जोड़ दिया गया. नतीजतन एक तरफ जाट संगठित हुए, उन्होंने मुसलमानों को जहां देखा मारा और दूसरी तरफ स़िर्फ शुरुआती दिनों में जहां पर मुसलमानों को अपने आस-पास जाता हुआ कोई हिंदू व्यक्ति दिखाई दिया, उन्होंने उनके ऊपर हमला किया. मैं फिर साफ़ कर दूं कि बड़ी जाति के मुसलमान इस दंगे की आंच से दूर भी रहे और उन्होंने इसमें हिस्सा भी नहीं लिया. उसी तरी़के से ग़ैर-मुसलमानों की 80 प्रतिशत आबादी इससे दूर रही. स़िर्फ जाट समुदाय के लोग इसमें शामिल हुए. वे भी इस बहकावे और भड़कावे में आकर कि उनकी बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं. देश में इस तरह से रिपोर्ट प्रसारित हुईं, मानो सारा दंगा मुज़फ़्फ़रनगर शहर में हो रहा है. आज़ादी के बाद पहली बार देश के गांवों में दंगा फैला. मैं इस दंगे के इस पहलू से ज़्यादा चिंतित हूं. हिंदुस्तान के गांवों में हिंदू बच्चे, जिनमें हम सब शामिल रहे हैं, जुम्मन चाचा, रहीम चाचा, गौहर अम्मा, इस तरह के संबोधनों से मुसलमानों को पुकारते थे. उसी तरह मुसलमान भी संजय ताऊ, बिट्टा खाला इस तरह इज़्ज़त के रिश्ते से एक-दूसरे को बुलाते थे. हमने यह देखा है कि जब भी कोई त्यौहार होता था, मुसलमानों के घरों में थालियां भेजी जाती थीं. ईद में मुसलमानों के घरों से सिवइयां आती थीं. यह सब हमारे देश में अभी तीस साल पहले तक होता था. तीस साल पहले तक हिंदुस्तान के गांवों में ज़्यादातर स्कूलों को मदरसा कहा जाता था और हम सब मदरसों में पढ़े हैं. मैं प्राइमरी स्कूल में नहीं गया हूं. मेरी उम्र के जितने लोग हैं, वे प्राइमरी स्कूल में नहीं, मदरसों में पढ़े हैं. जिसको आज प्राइमरी स्कूल कहते हैं, उसको पहले मदरसा ही कहते थे. हिंदुस्तान की अदालतों का सारा काम हिंदी या अंग्ऱेजी में नहीं, उर्दू में होता था. हमारी तहजीब गंगा-जमुनी तहजीब थी और अब भी है. एक दूसरे के सुख-दुख में आंसू बहाने का और खिलखिला कर हंसने का मौसम हमेशा हिंदुस्तान में रहा, लेकिन सद्भाव के इस माहौल पर जब से सांप्रदायिक ताक़तों की नज़र लगी, तब से उन्हें लग रहा है कि अगर किसी तरी़के से वैमनस्यता गहरी हो जाए और इस तहजीब को ख़त्म कर दिया जाए, तो हिंदुस्तान में आसानी से राज किया जा सकता है. मैं एक बात पर क़ायम हूं और मैं अपने साथी पत्रकारों से भी कहना चाहता हूं कि
ऐसे दंगे के समय, जिसमें नफ़रत फैलाने वाले खुलेआम घूमते हों, उस समय इस बात की ज़रूरत है कि रिपोर्ट सही और सेंसिटिव हो. साथ ही सही कारणों के साथ हो, ताकि लोगों को लगे कि सब लोग उसमें शामिल नहीं हैं. यह कुछ लोगों के भड़काने पर एक छोटी या बड़ी संख्या भड़क गई और उसने एक कारनामे को अंजाम दिया. इस घटना को शास्वत बनाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए, जोकि आज हमारे साथियों के द्वारा हो रही है. बहुत सारी ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिसमें हिंदू खड़े हो गए मुसलमानों की रक्षा में और मुसलमान खड़े हो गए हिंदुओं की रक्षा में. क्या यह घटनाएं हममें यह आशा नहीं जगातीं कि अभी भी हिंदुस्तान में रहने वाले लोग धर्म के आधार पर बंटेंगे नहीं और जो बांटने की कोशिश करेगा, वह आख़िर में मुंह की खाएगा. मैं अपने भारतीय जनता पार्टी के साथियों से स़िर्फ एक बात कहना चाहता हूं कि आपके जीवन में आपकी भाषा में बाबरी मस्जिद गिराए जाने से बड़ी ख़ुशी का क्षण नहीं आ सकता. बाबरी मस्जिद गिरने के बाद इस देश में चुनाव हुए, जब बाबरी मस्जिद गिरी नहीं थी, उस समय चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का शासन था, लेकिन बाबरी मस्जिद गिरने के बाद तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का शासन समाप्त हो गया. राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत जी आए, लेकिन वे अपने करिश्मे की वजह से आए, न कि भारतीय जनता पार्टी की वजह से. हिंदुस्तान का वोटर सांप्रदायिक आधार पर वोट नहीं देता और मैं अपने इस कॉलम के जरिये इसको अंडरलाइन करना चाहता हूं, ताकि वो लोग जो देश को बांटने के लिए दंगों की साज़िश करते हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि देश कभी भी सांप्रदायिक आधार पर बंटेगा नहीं. अगर बंट जाएगा, तो यह देश बदल जाएगा. मैं बार-बार भारतीय जनता पार्टी के मित्रों से कहता हूं कि इस चुनाव में इस दबी हुई इच्छा की परीक्षा हो जानी चाहिए. मुसलमानों से और हिंदुओं से भारतीय जनता पार्टी को कहना चाहिए कि हमारा एजेंडा है धारा 370 ख़त्म करना. हमारा एजेंडा है राम मंदिर बनाना. हमारा एजेंडा है कॉमन सिविल कोड लागू करना. हमारा एजेंडा है मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखना, जैसा हिंदू पाकिस्तान में है. यह बात खुलकर कहनी चाहिए और अगर भारतीय जनता पार्टी यह बात खुलकर नहीं कहती, तो यह मानना चाहिए कि इससे बड़ी हिप्पोक्रैट पार्टी देश में कोई हो ही नहीं सकती. जो बातें आप छुप-छुपकर कमरों में या अफ़वाहों के ज़रिये करते हैं, उसे आप अपने चुनावी घोषणा पत्र में क्यों नहीं डालते? अगर इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी यह सारी चीज़ें अपने घोषणा पत्र में डाले और यह वायदा करे कि यह देश के लिए आख़िरी मौक़ा है, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे और देश में कॉमन सिविल कोड लागू हो जाएगा, धारा 370 ख़त्म हो जाएगी. उर्दू का कोई स्थान नहीं रहेगा और राम मंदिर बनेगा. बाबरी मस्जिद कहीं बननी है तो बने, न बननी है तो न बने. इसके ऊपर अगर देश में चुनाव होता है और भारतीय जनता पार्टी जीत जाती है, तो हम भारतीय जनता पार्टी को सलाम करेंगे, लेकिन अगर भारतीय जनता पार्टी हार जाती है, तो भारतीय जनता पार्टी को यह ऐलान करना चाहिए कि फिर हम इन मुद्दों को नहीं उठाएंगे. यह मुद्दे समाप्त हो चुके हैं, क्योंकि हिंदुस्तान की जनता ने इन्हें नकार दिया है.
मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे बढ़ने नहीं चाहिए. हालांकि इस बात की पूरी तैयारी है कि इन दंगों को सीरीज़ की तरह आगे बढ़ाया जाए. हम इन चीज़ों को पिछले चार महीने से देख रहे थे, जिसे उत्तर प्रदेश सरकार आज तक नहीं देख पाई है. हमने अख़बार में हिम्मत के साथ लिखा था दंगे होने वाले हैं. यह अख़बार उत्तर प्रदेश के मंत्रियों और अधिकारियों के पास गया, उन्होंने हमारे इस आकलन का मज़ाक उड़ाया. सबने हमारे इन तथ्यों का मज़ाक उड़ाया. आज जब वे तथ्य और वे आकलन नंगे रूप में उनके सामने खड़े हैं, तो उन्हें बगलें झांकने के लिए भी जगह नहीं मिल रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री और अधिकारियों को स़ख्ती के साथ उन ताक़तों को रोकना चाहिए, जो उत्तर प्रदेश का अमन-चैन बर्बाद करने के लिए क़सम खाए बैठी हैं और उन्हें पहचानना कोई मुश्किल काम नहीं है. शर्त स़िर्फ इतनी है कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाते एक्ट करें, न कि एक ग़ैर-ज़िम्मेदार नौजवान के नाते. सारे देश में अखिलेश यादव सफल होंगे या असफल, इसके ऊपर चर्चाएं चल रही थीं. अब वे कहने लगे हैं कि अखिलेश यादव नौजवान हों, समझदार हों, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे एक असफल मुख्यमंत्री हैं. मेरा अखिलेश यादव से विनम्र निवेदन है. अभी भी व़क्त है. अपने को साबित करिए और देश में लोगों का विश्‍वास नौजवानों के प्रति, ख़ासकर नौजवान मुख्यमंत्री के प्रति दोबारा स्थापित कीजिए.

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