[तीन साल पहले राजशेखर रेड्डी की हवाईजहाज ने गिद्दलुर में घने बादलों के बीच उड़ान भरी और श्रीसैलम में लगातार बारिश हो रही थी. उनके पायलट ने प्लेन की ऊंचाई कम की, मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने मानचित्रों के ज़रिए पता लगाया कि किस जगह प्लेन उतर सकता है. लेकिन यह एंजल दोबारा धोख़ा नहीं दे पाया.]
वृद्धावस्था शायद ही अचानक ख़त्म होती है. वैसे, इसे हमेशा के लिए सच नहीं माना जा सकता. युवा जब सफलताओं से लैस होता है, वह ख़तरों पर हमेशा मुस्कुराता है, जब तक कि वह उसकी आख़िरी हंसी न बन जाए. युवा उम्र की संख्या भर ही नहीं है. वाई एस आर रेड्डी की उम्र 60 साल थी. एक ऐसी उम्र जब इंसान थक कर रिटायर होने की दहलीज पर होता है. लेकिन रेड्डी अभी भी एक ऊर्जावान और युवाजोश से लबरेज शख़्स थे, जिन्होंने मरने से पहले ज़िंदगी के कई पहलुओं को देखा. ऐसी युवा सोच वाले इंसान के लिए मौत की परिभाषा एक जोख़िम से बढ़कर कुछ नहीं. माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट की तरह वाई एस आर भी ख़ुद को युवा सोच वाले शख़्स मानते थे और उन्होंने युवा की तरह अपनी पूरी ज़िदगी जी भी. एक हवाई यात्रा के दौरान सिंधिया ने भी इस जोख़िम का सामना किया. पायलट ने अपने पैरों से पैडल को काफी तेज़ी से दबाया, बस वो भी मौत से बाज़ी हार गए. जब वाई एस आर को बताया गया कि मौसम ख़राब होने की संभावना है, ऐसे में उनके चेहरे पर मौसम को उपेक्षित भाव से देखने वाली मुस्कुराहट ज़रूर आई होगी. युवा का दूसरा नाम ही उम्मीद है. निराशा या इसकी भाव-भंगिमा या इसका एहसास तो कुंठित और टूटे दिल वालों के लिए ही हैं.
चुनावों में जीत एक राजनेता के मूल्यों की अविश्वसनीय पहचान का पैमाना होता हैं. यह तर्क दिया जा सकता है कि 2004 का चुनाव राजशेखर रेड्डी की जीत की अपेक्षा चंद्रबाबू नायडू की हार ज़्यादा थी. लेकिन राजशेखर रेड्डी की जीत उनकी अथक मेहनत के बग़ैर मुमकिन भी नहीं हो सकता था. लोकतंत्र का एक अघोषित नियम यह भी है कि हर अच्छे विपक्ष को जीत हासिल करने के लिए एक घटिया सरकार की भी ज़रूरत होती है. एक नेता की सही पहचान उसके द्वारा प्रशासन को अच्छे तरीक़े से व्यवस्थित करने से ही होती है. और अच्छे प्रशासन के लिए ढिंढोरा पीटने की ज़रूरत नहीं होती, यह तो पांच साल बाद ख़ुद ही सामने आ जाता है. दूसरी बार चुनाव के दौरान राजशेखर रेड्डी न केवल विवादों में फंसे बल्कि उन्हें विपक्षी पार्टियों द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों का भी सामना करना पड़ा. इसके बावजूद उन्होंने 2009 का चुनाव जीता, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनका काम समाज के सबसे निचले तबके तक पहुंच रहा है. हर राजनेता को अपनी क़ामयाबी साबित करने के लिए विश्व बैंक के सर्टिफीकेट की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन रेड्डी को इन सबकी कोई ज़रूरत नहीं थी. ज़ाहिर है, उनका जाना उनकी सरकार के लिए बहुत बड़ा दुख तो है ही, लेकिन उनकी पार्टी के लिए एक अपूर्णीय क्षति भी है. उन्होंने कांग्रेस की लगातार दो लोकसभा चुनावों में जीत की इबारत लिखी. गुटबाज़ी की समस्या कांग्रेस में स़िर्फ आंधप्रदेश में ही नहीं है, लेकिन यह एक बहुत बड़ा मुद्दा था. यदि आपकी सहानुभूति सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति है, तो ये आप कतई नहीं जानना चाहेंगे कि रेड्डी या राव से ऊपर कौन है. एन टी रामा राव के हाथों नागरिकों जो हश्र हुआ, संभलने के बजाय उसने सिविल वॉर की शक्ल अख्तियार कर ली. पीवी नरसिम्हा राव का मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इस अस्थिर प्रवृति में कोई सुधार नहीं हुआ. राव ने जो कुछ भी किया उसका नतीजा यह निकला कि इससे आंध्र की राजनीति में एक और कांग्रेसी गुट बना. राजशेखर रेड्डी ने इन दोनों समस्याओं का हल निकाला. उन्होंने चुनाव जीता और यह बग़ैर गुटबाज़ी पर लगाम लगाए संभव नहीं था. उसके बाद सारी समस्याओं से निपटना शुरू किया. जो जीत का सारा श्रेय ख़ुद लेना चाहता है, वो एक मूर्ख विजेता होता है.
कांग्रेस के सामने ख़तरा बिल्कुल साफ था. भूकंप के बाद चीज़ें इतनी बिखर जाती हैं कि उसके बाद पुनर्निर्माण काफी मुश्किल हो जाता है. जब पार्टी में सभी समान हैसियत के हों तो ऐसे में किसी उत्तराधिकारी के मसले पर आंतरिक शांति बनाए रखना लगभग असंभव है. फिलहाल दावेदार कई हैं, चाहे वह सौम्य और वरिष्ठ एस जयपाल रेड्डी हों, 1978 से हर कांग्रेस सरकार में रहे के रोसैया या युवा और महत्वाकांक्षी रेड्डी के बेटे वाई एस जगन, और कई ऐसे हैं जिनके नाम सामने न आने से संतुष्ट हैं. जगन को लेकर जिस तरह की चर्चा मीडिया में है, वह किसी भी गुट पर अधिक हावी हो सकता है. इसके अलावा वह पिता की मौत के बाद सहानुभूति का भी लाभ उठा सकते हैं. कोई भी राजनेता अपने…..
पूरी ख़बर के लिए पढ़िए चौथी दुनिया…..
Adv from Sponsors