संसद अपने आप में लोकतंत्र का न केवल चेहरा है, बल्कि लोकतंत्र का पैमाना भी है और जिस तरह से हमारी संसद देश के हितों के प्रति असंवेदनशील हो गई है, उसे देखकर लगता है कि देश की चिंता से ज़्यादा सांसदों को अपनी चिंताएं हैं. हम उदाहरण के लिए भूमि अधिग्रहण बिल या किसानों की समस्याओं पर इन दिनों होने वाली बहसों को देख सकते हैं. संसद में कहीं यह चर्चा मजबूती के साथ नहीं हो रही है कि किसान क्यों अर्थव्यवस्था का अंग नहीं है? किसान को केंद्र में रखकर क्यों नीतियां नहीं बनाई जाती हैं? 

Santosh-Sirसंसद के सत्र में और सरकार के चलाने के तरीके को लेकर, खासकर सरकार के अंगों के भीतर उसकी साख को लेकर ऐसे चिन्ह नज़र आने लगे हैं, जो चिंताएं पैदा करते हैं. सबसे पहले हम लोकसभा और राज्यसभा को लेते हैं. आम तौर पर लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य स़िर्फ और स़िर्फ टेलीविजन के समाचारों पर ही निर्भर रहते हैं. उनके सारे सवाल या ज़्यादातर सवाल या ज़्यादातर भाषण टेलीविजन के समाचारों या टेलीविजन पर होने वाली बहसों के तर्कों से प्रभावित रहते हैं. उनका खुद का पढ़ना-लिखना या उनका खुद का समाचार-पत्रों को भी पढ़ना कितना सार्थक होता है, यह पता नहीं, क्योंकि लोकसभा और राज्यसभा के अंदर होने वाली बहसों में या सवालों में इसकी झलक नहीं दिखाई देती.
पहले के नेताओं को याद करें, जो इन्हीं दोनों सदनों के सदस्य रहे हैं, तो उनके मुकाबले आज के दोनों सदनों के सदस्य काफी बौने नज़र आते हैं. एक संदेह पैदा हो रहा है कि राज्यसभा ऐसे लोगों का चेहरा ज़्यादा देख रही है, जिनका काम स़िर्फ और स़िर्फ मंत्रियों और सत्ता से मिलकर स्वयं से जुड़े निहित स्वार्थों की पूर्ति करना है. दूसरी तऱफ लोकसभा में ऐसे लोग हैं, जिनका देश की समस्याओं से संबंध है ही नहीं, उनका अपने क्षेत्र की समस्याओं से भी संबंध नहीं है. हमें नहीं याद कि पिछले दस से पंद्रह वर्षों में किसी ऐसी बहस की शुरुआत किसी सांसद ने की हो, जिसका रिश्ता देश की समस्याओं से हो. शायद ये सांसद पुस्तकालय में जाकर मधु लिमये, नाथ पाई, अटल बिहारी वाजपेयी, भूपेश गुप्ता, राज नारायण, चंद्रशेखर जैसों के संसद में दिए भाषणों को पढ़ते भी हैं या नहीं पढ़ते. यह संदेह इसलिए पैदा होता है, क्योंकि हमारी संसद के दोनों सदनों के सदस्य देश की समस्याओं से सर्वथा विपरीत दिशा की तऱफ सोचते हैं और बोलते भी हैं. उन्हें नहीं लगता कि संसद देश में समस्याओं की जड़ और समस्याओं की तलाश पर बहस करने की जगह है, न कि राजनीतिक पैंतरेबाजी की. अपना चेहरा भले काला हो, लेकिन दूसरे का चेहरा भी काला करो, इसकी जगह तो संसद नहीं है, पर संसद का इस्तेमाल ज़्यादातर इसी के लिए हो रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों देश के प्रशासनिक अधिकारियों के सम्मेलन को संबोधित किया. उनके संबोधन के बाद दोपहर के खाने पर जब उक्त अधिकारी मिले, तो जो अधिकारी जैसी भाषा जानता था, उस भाषा में उसने प्रधानमंत्री के कार्यकलापों की आलोचना की. मैंने इसे कम से कम चार अधिकारियों से चेक किया. और, चारों ने एक ही बात कही कि नौकरशाही में नरेंद्र मोदी के काम करने के तरीके को लेकर गुस्सा भी है, असंतोष भी है. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने यह तरीका अपनाया हुआ है कि वह राजनीतिक ज़िम्मेदारी देने की जगह प्रशासनिक अधिकारियों को टारगेट दे रहे हैं और उन्हें वे चीजें समझाते हैं, जिन्हें सुनना ये अधिकारी पसंद नहीं करते. इन अधिकारियों को लगता है कि अगर प्रशासन को उनके तरीके से नहीं चलाया गया, तो एक कयास, एक अंतर्विरोध पैदा हो जाएगा और जिसका परिणाम पॉलिसी पैरालाइज के रूप में निकलेगा. एक वरिष्ठ अधिकारी ने तो मुझसे कहा कि मनमोहन सिंह के समय जिस पॉलिसी पैरालाइज की बात होती थी, वह उस समय तो नज़र नहीं आता था, स़िर्फ आरोप था, लेकिन आज पॉलिसी पैरालाइज दिखाई दे रहा है. मैं उस वरिष्ठ अधिकारी की बात से सहमत नहीं हूं, क्योंकि मुझे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं है, लेकिन उस वर्ग में, जिस पर पॉलिसीज को इंप्लीमेंट करने या प्रशासनिक दस्ते में, जिसके ऊपर नीतियों को लागू करने की ज़िम्मेदारी हो, जब यह भावना घर करने लगे, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सोचने का वक्त खड़ा हो जाता है.

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों देश के प्रशासनिक अधिकारियों के सम्मेलन को संबोधित किया. उनके संबोधन के बाद दोपहर के खाने पर जब उक्त अधिकारी मिले, तो जो अधिकारी जैसी भाषा जानता था, उस भाषा में उसने प्रधानमंत्री के कार्यकलापों की आलोचना की. मैंने इसे कम से कम चार अधिकारियों से चेक किया. और, चारों ने एक ही बात कही कि नौकरशाही में नरेंद्र मोदी के काम करने के तरीके को लेकर गुस्सा भी है, असंतोष भी है. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने यह तरीका अपनाया हुआ है कि वह राजनीतिक ज़िम्मेदारी देने की जगह प्रशासनिक अधिकारियों को टारगेट दे रहे हैं और उन्हें वे चीजें समझाते हैं, जिन्हें सुनना ये अधिकारी पसंद नहीं करते. इन अधिकारियों को लगता है कि अगर प्रशासन को उनके तरीके से नहीं चलाया गया, तो एक कयास, एक अंतर्विरोध पैदा हो जाएगा और जिसका परिणाम पॉलिसी पैरालाइज के रूप में निकलेगा.

संसद अपने आप में लोकतंत्र का न केवल चेहरा है, बल्कि लोकतंत्र का पैमाना भी है और जिस तरह से हमारी संसद देश के हितों के प्रति असंवेदनशील हो गई है, उसे देखकर लगता है कि देश की चिंता से ज़्यादा सांसदों को अपनी चिंताएं हैं. हम उदाहरण के लिए भूमि अधिग्रहण बिल या किसानों की समस्याओं पर इन दिनों होने वाली बहसों को देख सकते हैं. संसद में कहीं यह चर्चा मजबूती के साथ नहीं हो रही है कि किसान क्यों अर्थव्यवस्था का अंग नहीं है? किसान को केंद्र में रखकर क्यों नीतियां नहीं बनाई जाती हैं? बल्कि, किसान को कैसे थोड़ी-सी सुविधाएं दे दी जाएं, ताकि वह अगले दो वर्षों के लिए चुप हो जाए, अपनी तकलीफों को भूल जाए, इस पर बात होती है. और, इस बात को लेकर किसी भी सांसद के मन में न कोई चिंता होती है, न गुस्सा आता है.
दरअसल, हमारे देश के केंद्र में किसान है ही नहीं. हालांकि, ज़्यादातर सांसद गांवों से आते हैं, जिनका रिश्ता खेती से है, पर उन्हें शायद किसानों की बात करना अपने स्तर के अनुकूल नहीं लगता. उन्हें लगता होगा कि वे अगर इस बात को उठाएंगे, तो लोग उन्हें प्रगतिशील नहीं समझेंगे और आज प्रगतिशीलता की निशानी बड़े-बड़े उद्योगों, बड़े-बड़े पूंजीपतियों, बड़े-बड़े सम्मान समारोहों में जाकर मौजूदा अर्थव्यवस्था के पक्ष में बोलना है. पर यह अर्थव्यवस्था किसानों के प्रति कितनी संवेदनशील है, इसकी बहस इस संसद में नहीं होती और मुझे लगता है, शायद भविष्य में होगी भी नहीं.
आ़िखर में जो सबसे बड़ा दु:ख का सवाल है, वह यह है कि जब हम राज्यसभा और लोकसभा टीवी के ऊपर संसद में बैठी उपस्थिति को देखते हैं, तो हमें मुश्किल से दोपहर के बाद यानी एक बजे के बाद, जब सबसे महत्वपूर्ण विधेयक पेश होते हैं या सबसे महत्वपूर्ण चर्चाएं होती हैं, तो स़िर्फ 20 या 25 सांसद, चाहे इस सदन में हों या उस सदन में, बैठे हुए नज़र आते हैं. लोकसभा और राज्यसभा के अधिकारियों ने टेलीविजन कैमरामैनों को यह हिदायत दे रखी है कि वे कभी भी वाइड एंगल से पूरी लोकसभा या पूरी राज्यसभा का चित्र न दिखाएं, जब तक बहुत आवश्यक न हो. उनके कैमरे का केंद्र स़िर्फ वह व्यक्ति होना चाहिए, जो किसी भी सदन में भाषण दे रहा है, अपनी बात कह रहा है. परिणाम स्वरूप आप जब भी लोकसभा या राज्यसभा टेलीविजन देखेंगे, कैमरा आपको बाकी लोगों की तऱफ नहीं दिखाएगा, क्योंकि बाकी सीटें खाली रहती हैं. कैमरा स़िर्फ बोलने वाले व्यक्ति पर केंद्रित होता है. लोकसभा और राज्यसभा केवल स़िर्फ शून्यकाल में भरी दिखाई देती हैं और शून्यकाल के बाद दोपहर का भोजनावकाश होता है, लंच होता है. उसके बाद लोग सदन में आने की जगह अपने घर जाना पसंद करते हैं.
क्या यह भारत जैसे समस्याओं से घिरे लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर का प्रतिनिधितत्व करने वाली संसद है? बहस हो सकती है, पर मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं कि शायद ऐसा नहीं है. यह भावना स़िर्फ मेरी नहीं है, यह भावना इस देश के अधिकांश वर्गों की है, जिनकी तकलीफों, जिनके दर्द और जिनके दु:ख का कोई बयान इस संसद में नहीं होता. हल तो कभी नहीं निकलता. क्या हमारे राजनीतिक दलों के लिए यह सोचने का विषय नहीं है कि क्यों उनके प्रति लोगों में अनादर बढ़ रहा है, क्यों उनकी बेरुखी बढ़ रही है और क्यों वे उनकी इज्जत नहीं करते, जिन्हें वोट देकर संसद में भेजते हैं?
मत सोचिए माननीय सांसदों, माननीय लोकसभा और माननीय राज्यसभा, मत सोचिए. कोई फर्क़ नहीं पड़ता. लेकिन, इतिहास आपके ऊपर व्यंग्य से लिखेगा कि आप उस लोकतांत्रिक देश के प्रतिनिधि हैं, जिसे लोकतंत्र में पूरी आस्था नहीं है, स़िर्फ आंशिक आस्था है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here