संघ और विश्व हिंदू परिषद के सहायक संगठनों द्वारा एक अलग तरह का फ्रंट खोल दिया गया है, जो सांप्रदायिक एजेंडे से तो अलग है, लेकिन अक्सर इसे लेकर लोग भ्रमित हो जाते हैं. यह संघ परिवार की सांस्कृतिक पहचान का एजेंडा है. यहां पर भी दो धड़े हैं. एक धड़ा वीर सावरकर के उस तर्क की पुनरावृत्ति कर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि एक राष्ट्र का निर्धारण उसकी सामुदायिक शर्तों पर ही होता है.
सरकार गठन के सौ दिनों के भीतर प्रदर्शन मापने का फैशन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डीलानो रूजवेल्ट ने शुरू किया था, क्योंकि उस समय अमेरिका आर्थिक महामंदी की चपेट में था और मार्च 1933 में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए तेज क़दम उठाने थे. अगर भारत की बात जाए, तो नरेंद्र मोदी को किसी महामंदी का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन उनके सामने एक हताश देश था, जो बदलाव के लिए छटपटा रहा था. मोदी से आशाएं काफी ऊंची थीं, जबकि उन्होंने किसी 100 दिनी एजेंडे का वादा नहीं किया था. अभी तक तो सब ठीक ही चल रहा है. साधारण राजनीति के फ्रंट पर नई सरकार ने काम किया है, जिसमें आर्थिक एवं विदेश नीति और ऊर्जा एवं पर्यावरण के मामले शामिल हैं. हालांकि इस दौरान सरकार सहमति बनाकर ही चली है, न कि आमने-सामने आने के नज़रिये से. स्टॉक मार्केट अच्छा चल रहा है और यह आशा व्यक्त की जा रही है कि आगामी तिमाही में विकास दर शुरुआती तिमाही में तय की गई विकास दर से ज़्यादा रहेगी. आगामी सौ दिन शायद पिछले सौ दिनों से और बेहतर साबित हो सकते हैं.
सरकार में उच्चस्तरीय स्तर पर काम ठीक रहा है. हालांकि अभी आम आदमी के सवाल वहीं बने हुए हैं और कुछ मामले संस्कृति एवं पहचान को भी लेकर बने हुए हैं. हालांकि मोदी बीते दिनों में सभी को साथ लेकर चलने की बात करते रहे हैं, लेकिन अभी यह संभव नहीं लगता कि भाजपा में ग्रास रूट लेवल पर भी विचारधारा में कोई परिवर्तन होने वाला है. चुनाव के पहले डराने वाली ऐसी ख़बरें चल रही थीं कि मोदी सत्ता में आते ही सांप्रदायिक एजेंडा लागू करेंगे. जबकि वह जबसे आए हैं, सभी के विकास की बात कर रहे हैं, लेकिन पार्टी में निचले स्तर पर कुछ ऐसा मूड नहीं है. बहुत सारे कार्यकर्ताओं के अनुसार यह ऐसा क्षण है, जिसकी वे काफी दिनों से प्रतीक्षा कर रहे थे. उनके अनुसार यह हिसाब बराबर करने का समय है. हिंदू-मुस्लिम विवाद के कई छोटे मामले अभी प्रकाश में आए हैंङ्क्ष. बहुत सारे लोगों का मानना है कि मोदी को तुरंत ऐसी बातों के लिए क़दम उठाने चाहिए, लेकिन वह सिवाय बड़े अवसरों के इस पर कुछ भी नहीं बोलते, जैसा कि उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर बोला था.
यहां तक कि बहुत संगठित राजनीतिक पार्टियां भी इतने छोटे स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को मैनेज नहीं कर सकतीं. देखिए, डेविड कैमरन किस तरह की समस्या का सामना कर रहे हैं. भारतीय राजनीतिक पार्टियां पुरानी राजशाही सेनाओं की तरह हो गई हैं, जिनमें छोटे सरदारों के पास अपनी सेनाएं होती थीं और वे भी ताकतवर होते थे. उत्तर प्रदेश में मायावती के सत्ता से जाने के बाद से ही एक तरह का सांप्रदायिक युद्ध जारी है. समाजवादी पार्टी ने अपने कमजोर होते मुस्लिम-यादव वोट बैंक को महसूस किया और अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के जाटों को अपनी तरफ़ लुभाना शुरू कर दिया. भाजपा ने भी उसी जगह काम करना शुरू कर दिया और जिसके नतीजे के रूप में मुजफ्फरनगर एवं कई अन्य जगहों जैसे परिणाम सामने आए. वर्तमान में उत्तर प्रदेश क़ानून विहीन राज्य बन गया है और वहां की महिलाएं इसके बारे में बेहतर बता सकती हैं.
संघ और विश्व हिंदू परिषद के सहायक संगठनों द्वारा एक अलग तरह का फ्रंट खोल दिया गया है, जो सांप्रदायिक एजेंडे से तो अलग है, लेकिन अक्सर इसे लेकर लोग भ्रमित हो जाते हैं. यह संघ परिवार की सांस्कृतिक पहचान का एजेंडा है. यहां पर भी दो धड़े हैं. एक धड़ा वीर सावरकर के उस तर्क की पुनरावृत्ति कर रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि एक राष्ट्र का निर्धारण उसकी सामुदायिक शर्तों पर ही होता है. उन्होंने यह तर्क यूरोप के हिसाब से उठाया था, जिसमें एक राष्ट्र बहु-सामुदायिक नहीं हो सकता. इसलिए उनके लिए हिंदुत्व एक धार्मिक पहचान न होकर एक क्षेत्रीय पहचान थी. 1871 में हुई जनगणना के दौरान हिंदुत्ववाद शब्द का इस्तेमाल सनातन धर्म मानने वालों के लिए किया गया था. हिंदुत्व पर लिखे गए अपने लेख में सावरकर ने काफी लंबी व्याख्या देकर समझाया है कि हिंदू शब्द फारसी नहीं है. ऐसा संभव है, सिंधु के जरिये यह फारसी से ही निकला हो. मुस्लिम इतिहासकार इसे अल-हिंद कहते हैं. सत्रहवीं शताब्दी में पुर्तगाली उपमहाद्वीप को जेंटू कहते थे, जिसमें ज का उच्चारण ह होता था.
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत तब उसी भाषा में बात कर रहे थे, जब उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान हिंदुओं का देश है. इस दौरान सभी ने, यहां तक कि वामपंथियों ने भी, कहा कि यह भारत था, हिंदुस्तान नहीं. मुझे याद है कि पचास के दशक में किस तरह वामपंथी नेता कहते थे कि इंडिया के साथ भारत का नाम एक रियायत के तौर पर जोड़ा गया था, जिसके लिए कांगे्रस के दक्षिणपंथी मिजाज के नेताओं का विशेष आग्रह था, जिसमें पुरुषोत्तम दास टंडन और राजेंद्र प्रसाद शामिल थे. वामपंथी नेताओं ने हिंदुस्तान शब्द को ही तरजीह दी थी. इसलिए नहीं कि अल्लामा इकबाल इसे प्रयोग में लाए थे, बल्कि इसलिए कि वे राष्ट्र भाषा के तौर पर हिंदुस्तानी को ज़्यादा तरजीह देते थे हिंदी पर.
अब फिर से उस बहस में जाने के लिए काफी देर हो चुकी है, लेकिन धर्मनिरपेक्षवादियों के लिए ज़रूरी हो गया है कि वे इतिहास पर चल रहे रण को गंभीरता से लें. वैसे भी उनके आइडिया ऑफ इंडिया बनाने के लिए सारे स्रोतों पर उनका एकाधिकार ही रहा है. संघ के विद्वानों को चाहिए कि वे एक अध्ययनशील इतिहास लिखें, जो धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों से मेल खा सके. यह स़िर्फ दीनानाथ बत्रा की किताबों से संभव नहीं हो सकेगा. गंभीर इतिहास लेखन में सालों का कठिन परिश्रम लगता है. अब संघ परिवार से जुड़े इतिहासकारों के लिए क़ीमती समय आ गया है.
इतिहास पर माथापच्ची
Adv from Sponsors