शराब खराब थी, हर युग, हर दौर में इसको बुरा ही कहा गया, माना गया, पाया गया…! कई बर्बाद हुए, कितने ही तबाह हुए, अनगिनत परिवार मिटे और लाखों ताल्लुक बिगड़े…! पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए, इसलिए शराब की खराबी को हमेशा इग्नोर किया जाता रहा…!

दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब की तर्ज पर इसको बेहतर बताने वाले इसकी अच्छाईयां गिनाने से भी नहीं चूकते…! कहने को तो सरकार भी इसको खराब करार देने में गुरेज न करे, लेकिन उसकी आमदनी जनित मजबूरियां हमेशा उसके पैरों की बेड़ियां बन जाती हैं…! जहां शराब खुली है, वहां सरकार की आय का स्त्रोत, जहां शराब बंदी है, वहां माफियाओं की कमाई का जरिया…!

कमाई के हर रास्ते को अपने साथ लेकर चलने वाली इस शराब को लालच की भट्टी ने इतना खराब कर दिया कि किसी के गले से जहर का घूंट उतारने में भी कोताही नहीं की जा रही है…! दुनिया-देश की बात न की जाए, इकलौते अपने प्रदेश की ही बात करें तो शराब को खराब करने के मामले बारम्बार टपकते ही जाते हैं…! उज्जैन से लेकर मुरैना तक जहर का घूंट पीने वाले लाश बन चुके लोगों के बीच कई और भी मामले पसर चुके हैंं…!

इससे पहले भी हो चुके थे और आगे ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई उम्मीद जगाना निरर्थक है…! सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने की कवायदें फिर चल पड़ी हैं, ये सस्पेंड, वह तबादला, इस पर कार्यवाही और उसके खिलाफ मामला…! करने को बहुत कुछ किया जा सकता है, बहुत कुछ कर दिया जाएगा, लेकिन जो भी होगा, वह उन जानों की कीमत से बहुत कम ही होगा, जो इस जहर के घूंट से अपनों को बिलखता छोड़ गए हैं…!

लालच की भट्टी पर जहर की बूंदें तैयार करने वालों के लिए सजा-ए-मौत के प्रावधान किए जाएं, असल-नकल और जान के लिए बायस-ए-नुकसान न होने का कोई पैमाना तय हो सके…! हर मौसम पीने का बहाना तलाशने वालों को बस इतना खौफ तो हो ही जाए कि उनका अगला घूंट परिवार से, अपनों से, जान से, जिंदगी से दूर करने वाला हो सकता है, इसके लिए कोई संगठन आगे आकर पुख्ता मुहीम क्यों नहीं चला सकता…?

पुछल्ला

हलवाई की दुकान पर दादा जी की फातेहा

नीयत हमारी भी थी, सियासत की लेकिन बीमारी थी। मंदिर हम भी बनाना चाहते थे, लेकिन कुछ वोट भी भुनाना चाहते थे। हाशिये पर आ चुकी पुरानी पार्टी को अब पकी-पकाई कढ़ाई में अपने पकवान भी तलाशने की हवस जाग उठी है। प्रदेश के पूर्व मंत्री ने इसके लिए बाकायदा ऐलान किया है, हमारी कोशिशों का नतीजा है मंदिर, पिछले सीएम रह चुके दो महानुभव भी खुद को कम हिन्दू होने की तोहमत से नाराज नजर आने लगे हैं।

हालात यही रहे तो ऐसा भी हो सकता है कि पूरी की चाह में आधी भी हाथ से छिटक सकती है। कारण यह है कि जिन्हें धर्म का परचम उठाना है, वह छिपे और दबे हुए लोगों के हाथों का सहारा नहीं लेंगे, क्योंकि उनके पास पूरी तरह से धर्म समर्पित लोग आसान मौजूदगी के साथ खड़े हुए हैं।

खान अशु

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