एक तऱफ कमलेश तिवारी के घृणित बयान को लेकर देश का मुस्लिम समुदाय गुस्से में है और देश के विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, तो वहीं दूसरी तऱफ राम मंदिर मुद्दे को हवा देकर माहौल विषाक्त करने की कोशिश हो रही है. जबकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बावजूद इसके, भगवान श्रीराम के नाम पर सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने की तैयारी शुरू हो गई है. वातावरण को दूषित करने में मीडिया भी भरपूर योगदान कर रहा है. टीवी चैनलों पर आएदिन ऐसी बहसें हो रही हैं, जिनसे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दूरियां बढ़ रही हैं.
कई लोगों का मानना है कि यह उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी है. कुछ लोग यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी द्वारा हिंदुत्व का एजेंडा सामने लाकर केंद्र सरकार की कमियां छिपाने की कोशिश हो रही है. वैसे देश में समस्याओं की कमी नहीं है. हक़ीक़त यह है कि देश के ग़रीबों, किसानों, मज़दूरों एवं युवाओं के सामने चुनौतियों का पहाड़ है, लेकिन देश की राजनीति उन मुद्दों पर केंद्रित होती जा रही है, जिनका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है.
यह देश का दुर्भाग्य है कि 21वीं सदी में भी हम मंदिर-मस्जिद विवाद में उलझे हुए हैं. बेशक, राम जन्मभूमि एक विवादित मुद्दा है, लेकिन यह राजनीतिक नहीं हो सकता. किसी राजनीतिक दल को इसमें उलझने का अधिकार नहीं है. अगर इस मुद्दे का चुनावी इस्तेमाल होता है, तो यह पूरे देश के लिए शर्म की बात होगी. पूरी दुनिया भारत पर हंसेगी.
इस बार राम मंदिर मुद्दे को सामने लाने का काम सुब्रमण्यम स्वामी ने किया है. सुब्रमण्यम स्वामी एक विवादित व्यक्तित्व हैं. उनके मुंह से निकला हुआ हर वाक्य मीडिया के लिए ़खबर है. सुब्रमण्यम स्वामी विद्वान व्यक्ति हैं, क़ानून एवं अर्थशास्त्र के ज्ञाता हैं. लेकिन, वह एक भविष्यवेत्ता भी हैं, इसका पता तब चला, जब उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर बनने की तारीख बता दी. उन्होंने कहा और मीडिया ने उसे सच मानकर खबर चला दी. देश भर में हंगामा खड़ा हो गया. भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयान से किनारा कर लिया.
ग़ौरतलब है कि बीती सात जनवरी को सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि दिसंबर, 2016 से राम मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा. मीडिया ने भी तुरंत ब्रेकिंग न्यूज चला दी कि राम मंदिर निर्माण की तारीख का ऐलान हो गया है. शाम ढलते-ढलते हर टीवी चैनल पर बहस की दुकान लग गई. कुछ मौलवियों को बुलाया गया और उनके साथ विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता को बैठाकर टीवी चैनलों ने हिंदू-मुस्लिम का खेल शुरू कर दिया. किसी ने भी दिमाग़ नहीं लगाया कि सुब्रमण्यम स्वामी ने जो कहा, उसमें कितनी सच्चाई है.
मतलब यह कि एक तो सुब्रमण्यम स्वामी ने मुसलमानों को भड़काने का काम किया और मीडिया ने उसे हवा देकर राई का पहाड़ बना दिया. देश भर के अ़खबारों में खबरें छप गईं, विद्वानों ने लेख भी लिख डाले और सोशल मीडिया पर तो जंग ही छिड़ गई. ऐसा लगा कि बस अब जादू की छड़ी घूमेगी और अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर बन जाएगा.
समझने वाली बात यह है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. यह भी तय हो चुका है कि बातचीत से यह मामला खत्म नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ही पक्ष इस पर राजी नहीं हैं. देश में क़ानून का राज है और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बिना अयोध्या में मंदिर बनना तो दूर, परिंदा भी पर नहीं मार सकता. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सारा हंगामा बिना किसी वजह खड़ा हो गया या फिर इसके पीछे कोई गहरी चाल है?
राम मंदिर को लेकर बीते 21 दिसंबर को एक ऐसी खबर आई, जिससे सनसनी फैल गई. खबर यह थी कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माणार्थ राजस्थान से पत्थर लाए जा रहे हैं. इसके बाद राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास ने एक ऐसा बयान दिया, जिससे मामला गंभीर हो गया. गोपाल दास जी ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संकेत मिलने के बाद ही पत्थर लाए गए हैं, क्योंकि जल्द से जल्द मंदिर बनाने का यह सबसे उचित वक्त है. इस मामले ने भी मीडिया में खासा तूल पकड़ा.
उस वक्त विश्व हिंदू परिषद या फिर न्यास के वक्तव्य ऐसे थे, जैसे वे अब अपनी मनमर्जी से मंदिर बनाना शुरू कर देंगे. उनके बयानों से लग रहा था कि जैसे वे मुस्लिम समुदाय को भड़काना चाहते हैं. पत्थर लाने की घटना की हक़ीक़त यह है कि इससे पहले भी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पत्थर आते रहे हैं. 2007 तक पत्थर लगातार आ रहे थे. बीच में राजस्थान सरकार द्वारा खदानों के नियम बदलने के कारण पत्थर आना बंद हो गए. अब फिर से यह शुरू हुआ, तो पता चला कि राजस्थान में कुछ खदानें बंद होने वाली हैं, इसलिए जल्दबाजी में पत्थर मंगाने का काम किया गया. विश्व हिंदू परिषद और न्यास के लोगों ने यह सच्चाई क्यों छिपाई?
अगर यह बात शुरू में बता दी गई होती, तो विवाद न होता. तो क्या जानबूझ कर चिढ़ाने के लिए सच्चाई छिपाई गई? लेकिन, सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील ज़फरयाब जिलानी ने ऐसा बयान दिया, जिससे मामला बिल्कुल ़खत्म हो गया. उन्होंने कहा कि अयोध्या में पत्थर लाने की घटना का मुस्लिम समाज कोई जवाब नहीं देगा और इस मामले पर मुसलमान सड़क पर नहीं उतरेंगे. यह बयान आते ही मामला शांत पड़ गया. लेकिन, कुछ दिनों के बाद फिर सुब्रमण्यम स्वामी ने इस मामले को नया मोड़ देकर हंगामा खड़ा कर दिया.
ग़ौर करने वाली बात यह है कि सुब्रमण्यम स्वामी ने जिस स्थान से राम मंदिर निर्माण की तारीख घोषित की, वह दिल्ली के रामकृष्ण पुरम स्थित विश्व हिंदू परिषद का केंद्रीय कार्यालय था. वहां एक उच्चस्तरीय बैठक हुई, जिसके बाद उन्होंने मीडिया को तारीख बताई. इस बैठक में विश्व हिंदू परिषद ने कई ़फैसले लिए, जिनका जिक्र करना ज़रूरी है. इस बैठक में फैसला लिया गया कि देश के हर गांव में विश्व हिंदू परिषद एक राम मंदिर बनाएगी. आगामी 15 अप्रैल से विश्व हिंदू परिषद सात दिवसीय राम महोत्सव का आयोजन करेगी.
इस दौरान हर गांव में श्रीराम की पूजा-आराधना होगी. राम महोत्सव के लिए देश के 75 हज़ार गांवों में काम चल रहा है. विश्व हिंदू परिषद की योजना के मुताबिक, उसका लक्ष्य देश भर के सवा लाख गांवों में मंदिर बनाना और भगवान श्रीराम की प्रतिमा स्थापित करना है. जिन गांवों में मंदिर नहीं बन पाएगा या मूर्ति स्थापित नहीं हो पाएगी, वहां भगवान श्रीराम की तस्वीर को लेकर पूजा-आराधना की जाएगी. मतलब यह कि हर गांव में भगवान श्रीराम की पूजा के बहाने लोगों को लामबंद करने की यह नई पहल हुई है.
सात दिनों तक सुबह-शाम पूजा-पाठ के ज़रिये अयोध्या में राम मंदिर बनाने की मांग को लेकर दबाव बनाया जाएगा. लगता है कि यही उद्देश्य पूरा करने के लिए सुब्रमण्यम स्वामी ने ऐसा बयान दिया, जिससे मीडिया में यह मामला फिर से उछल जाए और विवाद खड़ा हो. यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया बयान था.
इस बयान से बवाल मचा, टीवी चैनलों पर बहसें हुईं. सुब्रमण्यम स्वामी स्वयं कई चैनलों पर बहस करते नज़र आए. बहस के दौरान जब उनसे पूछा गया कि आपने तारीख किस आधार पर बताई, तो उनका जवाब था कि राम मंदिर का निर्माण किसी आंदोलन के ज़रिये नहीं कराया जाएगा. उन्हें लगता है कि अगस्त-सितंबर तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाएगा और सुप्रीम कोर्ट का ़फैसला उनके पक्ष में आएगा.
अब सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या आएगा, यह स्वामी जी को कैसे पता चल गया? जो लोग अदालत की प्रक्रिया को जानते हैं, वे भलीभांति समझ सकते हैं कि सुब्रमण्यम स्वामी बरगला रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में अभी तक जिरह भी शुरू नहीं हुई है. फिलहाल, वह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से जुड़े सारे कागजातों और सुबूत के तौर पर पेश किए सभी ऐतिहासिक दस्तावेजों का अनुवाद करा रहा है. अनुवाद में ही छह-सात महीने से ज़्यादा समय लग जाएगा. फिर जिरह शुरू होगी. यह भी एक लंबी प्रक्रिया होगी, जिसमें काफी वक्त लगेगा.
सुब्रमण्यम स्वामी को सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने का बहुत अनुभव है. फिर वह ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं? मजेदार बात यह है कि आजतक चैनल पर जब उनका सामना ओवैसी से हुआ, तो ओवैसी ने स्वामी से कहा कि छह-सात महीने में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ सकता. इस पर स्वामी ने पहले यह स्वीकार किया कि सितंबर तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आएगा. फिर यह भी कह दिया कि वह प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध करेंगे कि इस मामले की सुनवाई प्रतिदिन हो, ताकि जल्द से जल्द फैसला हो सके.
ऐसा कहकर सुब्रमण्यम स्वामी ने मामले को नया मोड़ दे दिया. अब वह चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी उनके मन-मुताबिक काम करे. सुप्रीम कोर्ट के पास कई सारे महत्वपूर्ण मामले आते हैं, जिनमें ज़रूरत के मुताबिक अलग-अलग पीठ या कभी-कभी संविधान पीठ भी गठित करनी पड़ती है. क्या सुप्रीम कोर्ट हर मामले की सुनवाई प्रतिदिन करना शुरू कर देगा? इस बहस के अगले दिन सुब्रमण्यम स्वामी ने लगे हाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिख दी और वह फिर से राम मंदिर मुद्दे को गरमाने में सफल हो गए.
राजनीति इंसान को क्या से क्या बना देती है. सुब्रमण्यम स्वामी वही शख्स हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और जमकर विरोध किया था. सुब्रमण्यम स्वामी किसी वक्त ऐसे-ऐसे काम करते थे, जिनके चलते देश के मुसलमानों का उन पर विश्वास मजबूत हुआ था. वह पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने मेरठ दंगे के दौरान मलियाना में हुई मौतों का मामला दिल्ली तक उठाया था.
वह कभी मुस्लिम हितों के पैरोकार थे. लेकिन, आज देश के मुसलमानों को लगता है कि सुब्रमण्यम स्वामी जब भी बोलते हैं, उन्हें चिढ़ाने के लिए बोलते हैं, ताने मारते हैं और नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. आज सुब्रमण्यम स्वामी विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन का चेहरा बन चुके हैं. जब तक अशोक सिंघल ज़िंदा थे, तब तक वह इस आंदोलन का चेहरा बने रहे. सिंघल की मौत के बाद उनका स्थान सुब्रमण्यम स्वामी को दे दिया गया है.
जो लोग राजनीति की बारीकियां समझते हैं, उन्हें अक्टूबर 2015 में यह बात उसी समय मालूम हो गई थी, जब स्वामी पहली बार अशोक सिंघल के साथ एक प्रेस कांफ्रेंस में सामने आए थे. उन्होंने उस प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिये मोदी सरकार से राम मंदिर बनाने में मदद मांगी थी. जब अशोक सिंघल का स्वर्गवास हो गया, तो सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर आंदोलन से जुड़ी प्रेस कांफ्रेंस करने लगे. अशोक सिंघल के स्वर्गवास के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने सुब्रमण्यम स्वामी को राम मंदिर आंदोलन का चेहरा बनाया.
बीती 12 जनवरी को वह इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता के रूप में मीडिया से मुखातिब हुए और उन्होंने एक ही झटके में देश के मुसलमानों को कौरवों की संज्ञा दे दी. उन्होंने कहा कि जिस तरह श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पांच गांव मांगे थे, उसी तरह वह मुसलमानों से अयोध्या, काशी और मथुरा यानी तीन मंदिर मांग रहे हैं. कहने का मतलब यह कि अगर इन तीनों जगहों से मस्जिद नहीं हटाई गई, तो एक बार फिर महाभारत होगा. यह सरासर एक धमकी है.
सुब्रमण्यम स्वामी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं. उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि राम मंदिर का मामला अब देश के हिंदुओं के लिए भावनात्मक मुद्दा नहीं है. अगर भाजपा समझती है कि इसे हवा देकर वह चुनाव जीत जाएगी, तो यह खुद को भ्रमित करना होगा. भाजपा लोकसभा चुनाव राम मंदिर के नाम पर नहीं जीती. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने विकास को मुख्य मुद्दा बनाया था और उन्होंने राम मंदिर का नाम तक नहीं लिया था. इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी को हर जाति, वर्ग और समुदाय का समर्थन मिला था.
लेकिन, जिस तरह फिर से राम मंदिर को लेकर विवाद को जन्म दिया जा रहा है, उससे भारतीय जनता पार्टी को काफी नुक़सान होगा. दूसरी बात यह कि भारतीय जनता पार्टी अतीत से कोई सीख नहीं ले सकी. धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल कर भारतीय जनता पार्टी आज तक एक भी चुनाव नहीं जीत सकी. जब कभी चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उसके सहयोगी संगठनों द्वारा धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश होती है, तो उसका सीधा ऩुकसान भारतीय जनता पार्टी को होता है.
कई चुनाव इसके उदाहरण हैं, जैसे 2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले विश्व हिंदू परिषद के शिला पूजन अभियान, 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या चलो अभियान, 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राम प्रतिमा पूजन अभियान, 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अयोध्या में राष्ट्रीय संत सम्मेलन, सितंबर 2014 के उत्तर प्रदेश उपचुनाव से पहले लव जिहाद एवं घर वापसी और फिर बिहार चुनाव के समय गोमांस मुद्दे को हवा दी गई.
नतीजा सबके सामने है. इन सारे चुनावों में भारतीय जनता पार्टी हार गई. कई जगहों पर तो जीती हुई बाजी हार गई. भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में इन तमाम विवादित मुद्दों को दरकिनार कर विकास को मुद्दा बनाया, इसलिए वह जीत गई. इस सच्चाई को देखते हुए यह सवाल पूछना लाजिमी है कि सुब्रमण्यम स्वामी भारतीय जनता पार्टी के शुभचिंतक हैं या दुश्मन?
केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. सरकार चलाने का मतलब ज़िम्मेदारी का निर्वहन करना होता है. बहुमत का मतलब यह नहीं है कि सत्तारूढ़ पार्टी या उसके नेताओं को मनमानी करने की छूट मिल गई. भारतीय जनता पार्टी की ज़िम्मेदारी है कि वह हर जाति, वर्ग एवं समुदाय के हितों की रक्षा सुनिश्चित करे. वह ऐसी हर गतिविधि पर लगाम लगाए, जिससे अल्पसंख्यकों में अलग-थलग किए जाने की भावना पैदा होती हो. देश का क़ानून किसी भी वर्ग-समुदाय को डराने-धमकाने या उसका मज़ाक उड़ाने की इजाजत नहीं देता.
राम मंदिर का मामला वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. जितना भी वक्त लगे, लेकिन उसका फैसला ही आ़खिरी फैसला होगा. भारतीय जनता पार्टी की ज़िम्मेदारी है कि फैसले से पहले इस मुद्दे पर सामाजिक वातावरण दूषित न होने पाए. यह मोदी सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह उन तत्वों के खिला़फ सख्त कार्रवाई करे, जो अदालत में विचाराधीन मामले पर भावना भड़काने की कोशिश करते हैं.
भारतीय जनता पार्टी को याद रखना चाहिए कि अच्छी सरकार और बुरी सरकार में स़िर्फ इतना फर्क़ होता है कि जिस शासनकाल में अल्पसंख्यक वर्ग सुरक्षित और खुशहाल रहता है, उसे ही दुनिया अच्छी सरकार कहती है. और, जिस शासनकाल में देश में घृणा-शत्रुता की भावना भड़काने की खुली छूट हो, वह सरकार बुरी मानी जाती है. भले ही देश आर्थिक रूप से कितनी भी तरक्की कर ले.