भारतीय राजनीति में यह घटना इसलिए छोटी नहीं है, क्योंकि जितने नाम हम दलों के नेताओं के रूप में यहां लिख रहे हैं, ये सब कभी एक थे और वह सन् 89 था. लेकिन उसके बाद विभिन्न कारणों, विभिन्न अंतर्विरोधों और विभिन्न महत्वाकांक्षाओं के चलते ये सब अलग-अलग हो गए और इन्होंने अपनी अलग-अलग पार्टियां बना लीं. कोई कहीं सत्ता में आया, तो कोई कहीं सत्ता में आया और कोई कभी भी सत्ता में नहीं आया. इस स्थिति ने भारतीय राजनीति में एक ऐसा शून्य पैदा किया, जिसने एक तऱफ धीरे-धीरे कांग्रेस से विश्वास खत्म किया और दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी को इतना विश्वास दे दिया कि वह अपराजेय और अजेय लगने लगी. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह स्थिति सुखद थी.
जनता परिवार के इकट्ठा होने की घटना कोई सामान्य घटना नहीं है. इस घटना का स्वागत करना चाहिए. जो लोग इकट्ठा हो रहे हैं, वे एक नई आशा लेकर आ रहे हैं, भारतीय राजनीति में विपक्ष के नाम के विशाल शून्य को भरने की आशा. यह लोकतंत्र को ज़िंदा रखने वाली आशा है. इस समय कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो सरकार के सामने सवाल खड़ा कर सके, उसके द्वारा किए गए कामों का विश्लेषण कर सके और उन सारी बातों का, जिनका हिंदुस्तान की जनता के ऊपर ग़लत असर पड़ सकता है, विरोध कर सके. कांग्रेस को यह काम करना चाहिए था. संसद में वह भले ही विपक्षी दल न हो, लेकिन सबसे ज़्यादा सदस्य लोकसभा में उसी के पास हैं. पर कांग्रेस यह काम नहीं कर रही है. संसद में न सोनिया गांधी का भाषण हो रहा है और न राहुल गांधी का. मल्लिकार्जुन खड़गे को लोग अभी भी एक डमी विपक्षी नेता के रूप में देखते हैं.
जनता परिवार के लोग अगर इकट्ठे होते हैं, तो आने वाले चुनाव में यह दल पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला कर सकेगा, ऐसी आशा दिखाई दे रही है और लोकतंत्र में सशक्त माने जाने वाले दल का मुकाबला होना ही चाहिए. आने वाले चुनावों में पंजाब महत्वपूर्ण है, उसके बाद बिहार महत्वपूर्ण है. बल्कि यह कहें कि बिहार सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि बिहार की जीत और हार का असर उत्तर प्रदेश के चुुनाव पर पड़ने वाला है. इसलिए जनता परिवार में शामिल नेताओं के सारे अंतर्विरोध देखने के बाद भी यह दल स्वागत योग्य है. इस दल को बनाने में सभी का कुछ न कुछ योगदान है, जिनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, ओमप्रकाश चौटाला और एचडी देवेगौड़ा शामिल हैं. पर सबसे ज़्यादा श्रेय अगर किसी को देना चाहिए, तो वे हैं नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव और लालू यादव. श्री ओमप्रकाश चौटाला और एचडी देवेगौड़ा पहले से चाहते थे कि यह दल बने, लेकिन इनमें वह शक्ति नहीं थी कि सबको इकट्ठा कर सकें. नीतीश कुमार ने बार-बार मुलायम सिंह के दरवाजे जाकर न केवल उन्हें तैयार किया, बल्कि लालू प्रसाद के दरवाजे जाकर इस बात की आशा पैदा कर दी कि किसी जमाने में ये तीनों टूटे हुए मित्र आपस में मिलकर एक बड़े दल का आधार बन सकते हैं.
दिल्ली में 27 और 28 मार्च दो ऐसे दिन थे, जिनमें अंतिम रूप से इस दल की नींव पड़ी. सभी चाहते थे, लेकिन जब नीतीश मुख्यमंत्री बनकर दिल्ली आए, तो उन्होंने मुलायम सिंह से सा़फ कहा, लालू यादव से भी सा़फ कहा कि मोर्चा नहीं दल चाहिए. अगर दल नहीं बनता है, तो हम जनता को विश्वास नहीं दिला पाएंगे कि हम उसके सवालों पर लड़ रहे हैं. मुलायम सिंह जी के यहां कुछ ऊहापोह थी, लेकिन मुलायम सिंह ने आधे घंटे की बातचीत केे बाद एकतऱफा ़फैसला लिया कि एक दल बनना ही चाहिए. वहीं पर यह तय हो गया कि दल का नाम, दल का झंडा, दल का चुनाव चिन्ह क्या होगा और एक कागज सामने रखकर शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार और मुलायम सिंह जी ने अपनी सहमति व्यक्त कर दी.
भारतीय राजनीति में यह घटना इसलिए छोटी नहीं है, क्योंकि जितने नाम हम दलों के नेताओं के रूप में यहां लिख रहे हैं, ये सब कभी एक थे और वह सन् 1989 था. लेकिन उसके बाद विभिन्न कारणों, विभिन्न अंतर्विरोधों और विभिन्न महत्वाकांक्षाओं के चलते ये सब अलग-अलग हो गए और इन्होंने अपनी अलग-अलग पार्टियां बना लीं. कोई कहीं सत्ता में आया, तो कोई कहीं सत्ता में आया और कोई कभी भी सत्ता में नहीं आया. इस स्थिति ने भारतीय राजनीति में एक ऐसा शून्य पैदा किया, जिसने एक तऱफ धीरे-धीरे कांग्रेस से विश्वास खत्म किया और दूसरी तऱफ भारतीय जनता पार्टी को इतना विश्वास दे दिया कि वह अपराजेय और अजेय लगने लगी. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह स्थिति सुखद थी. उसने इन सभी नेताओं के अंतर्विरोधों और कांग्रेस की काहिली का फायदा उठाया तथा सालों बाद केंद्र में एकदलीय बहुमत की सरकार बना ली.
भारतीय जनता पार्टी के पास काम करने के लिए एक बड़ा वक्त था. भारतीय जनता पार्टी यह आभास अभी तक नहीं दे पाई है कि वह इस देश के 80 प्रतिशत लोगों के पक्ष में फैसला ले सकती है. उल्टे उसके क़दम यह बता रहे हैं कि जिन्होंने उसे वोट देकर जिताया, उनके पक्ष में वह फैसला नहीं ले सकती. बल्कि वह उन 20 प्रतिशत लोगों, जिनके पास धन, संपत्ति, गाड़ियां,अट्टालिकाएं हैं, लेकिन जिन्होंने वोट नहीं दिया, के पक्ष में फैसला लेने वाली है और इसका बुनियादी आधार उसने बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को बनाया है तथा बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पश्चिमी देशों के सर्वशक्तिमान अमेरिका तक पहुंचती है. अमेरिका भारत के वंचितों, ग़रीबों एवं दलितों के पक्ष की योजनाएं हिंदुस्तान में नहीं देखना चाहता. वह उतना ही देखना चाहता है, जब तक इस परिभाषा में आने वाले वर्ग ज़िंदा रहते हैं. उन्हें वह उतना ही दिलवाना चाहता है, जितने से वे ज़िंदा रहें और मशीन-पुर्जे की तरह काम कर सकें.
ऐसे समय में मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू यादव, एचडी देवगौड़ा और ओमप्रकाश चौटाला का मिलना सराहनीय माना जाएगा. ये सभी प्रत्यक्ष तौर पर किसानों, मज़दूरों और इस देश के 80 प्रतिशत लोगों के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं. ये लोग बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था का कभी न कभी सैद्धांतिक रूप से विरोध कर चुके हैं. इसलिए इनका खड़ा होना एक तरह से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के ़िखला़फ एक ताकत का खड़ा होना है. पर सवाल है कि जिन महत्वाकांक्षाओं और अंतर्विरोधों की वजह से ये सारे लोग अलग हुए थे, उन महत्वाकांक्षाओं और अंतर्विरोधों का सामना इन्हें फिर करना पड़ेगा. और ऐसे में, नया जनता परिवार पुरानी जनता पार्टी की तरह व्यवहार करेगा कि वह स़िर्फ अपने नज़दीकी लोगों को नए बने दल में हर जगह देखना चाहेगा और दूसरे लोगों को दूसरे घटक के रूप में देखेगा. तो फिर यह दल पुरानी जनता पार्टी के रास्ते पर चल निकलेगा. मुझे याद है कि जब जनता पार्टी बनी थी, तब कांग्रेस (ओ) के लोग अपने लोगों का हित देखते थे, समाजवादी लोग अपने लोगों का हित देखते थे, जनसंघ के लोग स़िर्फ और स़िर्फ अपने लोगों का हित देखते थे. वह चीज इस नए बनने वाले दल में न आए, यह अति आवश्यक है.
पुरानी जनता पार्टी के, फिर पुराने जनता दल के, पुराने समाजवादी आंदोलन के भीतर निहित अंतर्विरोध इस नए बनने वाले जनता परिवार के सामने आए, तो यह हिंदुस्तान की जनता के साथ एक बहुत बड़ा विश्वासघात होगा. और, उसके बाद जनता का विश्वास लोकतंत्र से संभवत: उठ जाएगा. आज जनता के पक्ष में वामपंथी बोलते हैं, लेकिन उनके पास ताकत नहीं है. समाजवादी कहने को समाजवादी हैं, लेकिन उनका एक बड़ा धड़ा भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल गया है. भारतीय जनता पार्टी बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के प्रति समर्पित है. कांग्रेस ने बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को शुरू ही किया और अपने ही सर्वमान्य नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू की वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से वह दूर चली गई. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी पर इतिहास यह आरोप लगाएगा कि इन्होंने बिना संविधान को बदले संविधान को बदल दिया. संविधान में लिखी हुई किसी भी धारा का पालन, जिसका जनता से रिश्ता से है, आज नहीं हो रहा है. दोनों ही दल बाज़ार के पक्ष में खड़े हैं.
ऐसे समय में, इन दलों-नेताओं का मिलना इसलिए नहीं आवश्यक है कि भारतीय जनता पार्टी को हराना है, बल्कि इसलिए आवश्यक है कि हिंदुस्तान में लोकतंत्र बचा रहे और जनता के सामने सत्ता के मुकाबले विपक्ष के सवाल आगे आते रहें, ताकि आने वाले चुनाव में, चाहे वे राज्य के हों या केंद्र के, लोगों के सामने एक ईमानदार विकल्प मौजूद रहे कि उसे किसे वोट देना है. इसलिए मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, एचडी देवेगौ़डा और ओमप्रकाश चौटाला की यह ज़िम्मेदारी है कि वे हिंदुस्तान की जनता की आशा पर खरे उतरें और इतिहास में अपना नाम अच्छे पृष्ठ पर दर्ज कराएं, न कि ऐसे काम करें, जिनसे इतिहास इन्हें खलनायक के रूप में याद करे. इतिहास से भी बड़ा सवाल लोकतंत्र के भविष्य का है. आशा है, ये सारे नेता लोकतंत्र के भविष्य को मिलकर संवारेंगे, उसके साथ खेल नहीं करेंगे.