इस महीने की शुरुआत में इजराइल और फिलिस्तीन के उग्रवादी समूह ‘हमास’ के बीच एक बार फिर भडके ग्यारह दिन के युद्ध में हालांकि फिलहाल ‘युद्ध-विराम’ हो गया है, लेकिन क्या यह ‘युद्ध-विराम’ कभी स्थायी हो सकेगा? क्या पश्चिम के अमीर देश तेल की खातिर जारी भौगोलिक-राजनीति को भुलाकर मध्य-पूर्व में शांति बहाल करना चाहेंगे? आखिर क्या और किनकी है, वहां की समस्या?
बीती छह मई 2021 से जहाँ एक ओर ‘हमास’ नामक एक उग्रवादी फिलिस्तीनी समूह, ‘अल- अक्सा’ मस्जिद से जुड़े विवाद को लेकर इजराइल पर मिसाइलें दाग रहा है, वहीं इजराइल, फिलिस्तीनियों पर बड़े पैमाने पर हमले कर रहा है। इस टकराव में फिलिस्तीनी पक्ष को जानोमाल का अधिक नुकसान उठाना पड़ा है। फिलिस्तीन में 60 बच्चों सहित 200 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जबकि इजराइल में 10 लोगों, जिनमें एक बच्चा शामिल है, की मौत हुई है। इजराइल ने उस इमारत को भी नष्ट कर दिया है जिसमें दुनिया भर के मीडिया हाउसों के दफ्तर थे। यह सब अत्यंत गंभीर और त्रासद है।
इन घटनाओं के लिए ज़माने से चले आ रहे ‘अल-अक्सा’ मस्जिद विवाद को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, परन्तु इस सन्दर्भ में दुनिया के तेल उत्पादक क्षेत्र के नज़दीक ‘अमरीकी चौकी’ के रूप में इजराइल के निर्माण और वहां की सत्ता ‘यहूदीवादियों’ के हाथों में सौंपा जाने के घटनाक्रम को समझा जाना ज़रूरी है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने फिलिस्तीन की धरती पर इजराइल का निर्माण इस बहाने से किया कि दुनिया भर में सताए गए यहूदियों को उनके अपने देश की ज़रुरत है। दरअसल, इजराइल अधिवासी औपनिवेशवाद, सैनिक कब्ज़े और ज़मीन की चोरी का उदाहरण है।
फिलिस्तीन एक लम्बे समय से अलग देश रहा है। ऐसा नहीं है कि इस देश के नागरिक केवल मुसलमान हों। अरबी मुसलमानों के अलावा ईसाई और यहूदी भी फिलिस्तीन के नागरिक हैं। इस इलाके में यहूदियों का देश बनाने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि यहूदी धर्म की जड़ें वहां हैं। जेरुसलेम (येरुशलम) तीनों ‘इब्राहीमी धर्मों’ – यहूदी, इस्लाम और ईसाई की श्रद्धा का केंद्र रहा है।
‘यहूदीवादियों’ के नेतृत्व में यहूदियों का पहला वैश्विक जमावड़ा 1897 में जर्मनी में हुआ था। इसमें यहूदियों के लिए अलग देश की मांग की गई थी। इस मसले को समझने के लिए सबसे पहले हमें ‘यहूदीवाद’ (जायोनिज्म) और यहूदी धर्म (जूडाइज़्म) के बीच के अंतर को समझना होगा। यहूदी एक धर्म है, जबकि ‘यहूदीवाद’ से आशय है, यहूदी धर्म के नाम पर राजनीति – इस्लाम और इस्लामिक कट्टरतावाद (जैसे तालिबान) या हिन्दू धर्म और हिंदुत्व की तरह।
इस बैठक में यहूदियों के लिए एक अलग देश की मांग करने वाले प्रस्ताव का पूरी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रह रहे यहूदियों ने कड़ा विरोध किया था। उनका तर्क था कि इस तरह की मांग से उन्हें अन्य देशों में भेदभाव का सामना करना पड़ेगा और यहूदी व्यापारियों और पेशेवरों को नुकसान होगा।
विश्वयुद्ध ने अलग यहूदी राज्य की मांग को मजबूती दी। इसका कारण था, जर्मनी में यहूदियों का कत्लेआम। परन्तु इसके बाद भी जर्मनी के ही कई यहूदी इस मांग के विरोध में थे, क्योंकि उन्हें यह अहसास था कि एकल धार्मिक पहचान पर आधारित राज्य, अन्य पहचानों के प्रति उतना ही क्रूर और दमनकारी हो जायेगा जितना कि नाजीवादी जर्मनी था।
इजराइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन का एक बड़ा भू-भाग उससे छीन लिया गया। नतीजे में लाखों फिलिस्तीनियों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। इस नए देश को, विशेषकर अमरीका द्वारा हथियारों से लैस कर दिया गया। यह साफ़ था कि पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां, पश्चिम एशिया में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपना एक अड्डा बनाना चाहतीं थीं। जब कच्चे तेल के संसाधनों को लेकर राजनीति शुरू हुई तब इन शक्तियों ने तर्क दिया कि तेल इतना कीमती है कि उसे अरबों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। अमरीका और ब्रिटेन ने इजराइल को ताकतवर बनाने के लिए सब कुछ किया। यह महत्वपूर्ण है कि दुनिया भर में धनी यहूदी व्यापारी काफी प्रभावशाली हैं और सत्ता के केन्द्रों पर उनका नियंत्रण है, विशेषकर अमरीका में।
इजराइल ने 1967 में फिलिस्तीन के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। इस कारण लाखों फिलिस्तीनी आसपास के देशों में शरणार्थी के रूप में जीने के लिए मजबूर हो गए। इजराइल की निर्दयता और उसके आक्रामक व्यवहार की ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) ने निंदा की। ‘यूएनओ’ द्वारा पारित अनेक प्रस्तावों में फिलिस्तीनियों के साथ न्याय की मांग करते हुए इजराइल से उन इलाकों से पीछे हटने के लिए कहा गया जिन पर उसका अवैध कब्ज़ा है, परन्तु इजराइल ने इन प्रस्तावों की कोई परवाह नहीं की। अमरीका के पूर्ण समर्थन के कारण ही इजराइल अन्तर्राष्ट्रीय और नैतिक मानदंडों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करता आया है।
इस पूरे मामले में धर्म की कोई भूमिका नहीं है। असली मुद्दा है, तेल के संसाधनों पर नियंत्रण और दुनिया के इस क्षेत्र पर सैन्य-राजनैतिक वर्चस्व। ‘यूएनओ’ की ‘सुरक्षा परिषद्’ दोनों पक्षों से युद्ध-विराम की अपील करते हुए एक प्रस्ताव पारित करना चाहती थी, परन्तु अमरीका ने अपने ‘वीटो’ का प्रयोग करते हुए इस प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया। इजराइल के रक्षामंत्री ने कहा कि यह युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक इजराइल अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर लेता।
इस समय पूरी दुनिया में इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं और यह मांग की जा रही है कि इजराइल हमले बंद करे। ‘हमास’ द्वारा इजराइल पर मिसाइलें दागने का कोई औचित्य नहीं हैं, परन्तु जबरदस्त दमन और प्रताड़ना के शिकार किसी भी समुदाय में अतिवादी समूहों का उभरना स्वाभाविक है। किसी समुदाय के साथ अत्यधिक अन्याय इस तरह के समूहों को बढ़ावा ही देता है।
भारत शुरुआत से ही फिलस्तीनियों का पक्ष लेता आ रहा है। महात्मा गाँधी ने लिखा था, “यहूदियों के प्रति मेरी सहानुभूति, न्याय की ज़रुरत के प्रति मुझे अंधा नहीं बनाती। यहूदियों को अरबों पर थोपना गलत और अमानवीय है।” अटल बिहारी वाजपेयी और सुषमा स्वराज भी फिलिस्तीन के साथ और उस देश की ज़मीन पर इजराइल के कब्ज़े के खिलाफ थे। हाल के कुछ वर्षों में देश में सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के उदय के साथ, भारत सरकार इजराइल की तरफ झुकी है और फिलिस्तीनियों के साथ न्याय की मांग को अपेक्षित महत्व नहीं दिया जा रहा है।
दुनिया का यह क्षेत्र दशकों से ‘हॉटस्पॉट’ रहा है। अब समय आ गया है कि सभी वैश्विक ताकतें ‘यूएनओ’ के प्रस्तावों का पालन करें और यह सुनिश्चित करें कि फिलिस्तीनियों के साथ न्याय हो और उन्हें उनके अधिकार और उनकी भूमि वापस मिले। इसके साथ ही, हम एक देश के रूप में इजराइल के उदय को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
अब तो यही किया जा सकता है कि ‘यूएनओ’ दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण करे और दोनों इस सीमा का सम्मान करें। फिलिस्तीनियों के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन, शांतिपूर्ण दुनिया के निर्माण के पक्षधरों के लिए चिंता का विषय है। अमरीकी साम्राज्यवादियों को तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा करने की अपनी लिप्सा को नियंत्रित करना चाहिए और मध्यपूर्व के सभी निवासियों के लिए न्याय की बात सोचनी चाहिए।