हमास और इजराइल के युद्ध के कारण मिस्र के अल गूना में होने वाला अरब देशों का सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह स्थगित हो गया है। अभी दो महीने पहले ही 16 अगस्त को भारत में इजराइल के राजदूत नाओर गिलोन ने अपने दूतावास में ‘सलाम बॉलीवुड’ नाम से एक बड़ा आयोजन किया था, जिसका उद्देश्य दोनों देशों में फिल्मों के सहनिर्माण को बढ़ावा देना था।

इस समारोह में इजराइल और भारत की कई फिल्मी हस्तियों ने भाग लिया था। पांच साल पहले सिनेमा में दोनों देशों के बीच रिश्ते मजबूत करने के लिए भारत सरकार ने पहल की थी। भारत के 49वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (2018) गोवा में इजराइली फिल्मकार डान वोलमैन को लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा गया था।

फोकस कंट्री में इजराइल की दस फिल्में भी प्रदर्शित की गईं। मामला पिछले साल तब बिगड़ता दिखा, जब भारत ने इजराइली फिल्मकार नादाव लापिड को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की जूरी का अध्यक्ष नियुक्त किया और उन्होंने समारोह में ही खुलेआम फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर सख्त आपत्ति जता दी थी।

उन्होंने इसे प्रोपगंडा फिल्म बताते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता खंड में शामिल करने पर आश्चर्य प्रकट किया था। इजराइल सरकार ने तुरंत बयान जारी कर नादाव लापिड की टिप्पणी से खुद को अलग कर लिया था। इसके बावजूद भारत की कई फिल्म कंपनियों ने इजराइल का दौरा किया और फिल्मों के सहनिर्माण की संभावनाएं तलाशीं।

मुंबई में सिनेमा के आरंभिक दौर में सुलोचना, नादिरा, डेविड जैसे यहूदी कलाकारों का बड़ा योगदान रहा है। भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ (1931) के लेखक जोसेफ डेविड भी यहूदी थे। उस जमाने में जब भारतीय परिवारों की औरतें फिल्मों में काम करने से हिचकती थीं और कई पुरुष कलाकारों को महिला पात्रों की भूमिकाएं निभाना पड़ती थीं, तब यहूदी परिवारों की महिलाओं ने फिल्मों में काम करने की साहसिक पहल की थी।

जब हिंदुजा बंधुओं ने साठ और सत्तर के दशक में तेल अवीव की बेनजूदा स्ट्रीट में बॉलीवुड फिल्मों के प्रदर्शन और वितरण के लिए दफ्तर खोला, मोहन छाबड़िया को मैनेजर बनाकर भेजा और राज कपूर की ‘संगम’ को रिलीज किया तो वहां हिंदी फिल्मों का नया बाजार बना।

उस जमाने के कई फिल्मी सितारे इजराइल में दशकों तक लोकप्रिय रहे और उनकी फिल्मों ने बहुत बिजनेस किया। तब कई हिंदी फिल्में इजराइल के साथ ही मिस्र, लेबनान, जॉर्डन, मोरक्को, ट्यूनीशिया, फिलिस्तीन आदि में भी लगती थीं और अच्छी कमाई करती थीं। बाद में कई वजहों से इन देशों और बॉलीवुड का रिश्ता टूट-सा गया।

कहा जाता है कि इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि हिंदी फिल्मों से अरब सिनेमा का स्थानीय कारोबार चौपट होने लगा था। अभी भी यदि कोशिश की जाए तो अरब दुनिया में करीब बीस फीसदी बॉक्स ऑफिस कलेक्शन मिल सकता है। एक समय भारत में विदेशी मुद्रा की कमी थी। तब हिंदी सिनेमा ने विदेशी मुद्रा कमाकर देश की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान दिया था। लेकिन राजनीतिक कारणों से भारत-इजराइल के बीच सिनेमाई भागीदारी ज्यादा नहीं हो सकी।

होलोकॉस्ट पर दुनिया में हजारों फिल्में बनी हैं, लेकिन इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर अरब देशों में बनी फिल्मों के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। ‌फिलिस्तीन के एलिया सुलेमान, लेबनान की नडाइन लबाकी, ट्यूनीशिया की कौथर बेन हनिया और मिस्र के मोहम्मद दियाब ने अरब सिनेमा की परिभाषा बदल दी है, क्योंकि इनकी फिल्मों के राजनीतिक संदेशों ने दुनिया का ध्यान खींचा है।

फिलिस्तीन के सिनेमा के बारे में दुनिया का ध्यान तब गया जब 1996 में एलिया सुलेमान की फिल्म ‘क्रॉनिकल ऑफ अ डिसअपीयरेंस’ को वेनिस में पुरस्कार मिला और यह फिल्म अमेरिका में प्रद​र्शित हुई। यह लंबे विस्थापन के बाद घर लौटने की कहानी है।

72वें कान फिल्म समारोह (2019) में उनकी अगली फिल्म ‘इट मस्ट बी हेवन’ को स्पेशल मेंशन अवार्ड प्रदान किया गया। उन्होंने इस फिल्म में अपने शहर नाजरथ से पेरिस और न्यूयॉर्क तक का चक्कर लगाते हुए इस बात की खोज की है कि दुनिया में वह कौन-सी जगह है, जिसे हम अपना घर कह सकते हैं।

मोहम्मद दियाब ने अपनी फिल्म ‘अमीरा’ में इजराइल की जेलों में बंद फिलिस्तीनी राजनीतिक कैदियों के स्पर्म की अवैध तस्करी को विषय बनाया है। कौथर बेन हनिया की फिल्म ‘फोर डॉटर्स’ आईएसआईएस के खिलाफ एक साहसिक डॉक्यूमेंट्री है, जो बताती है कि इस्लामिक स्टेट से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों, खासकर औरतों को हुआ है।

अरब-जगत में निर्मित फिल्में बताती हैं कि युद्ध में तबाह लोगों के दुःखों का कोई देश, धर्म नहीं होता। उन्हें शांति की दरकार होती है। इन युद्धों की बड़ी कीमत औरतें-बच्चे चुकाते हैं। उनकी दुनिया शरणार्थी शिविरों में बदल जाती है।

Source: Dainik Bhaskar
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