एक नरेंद्र मोदी सब जगह प्रकट हैं। भारतीय जनता पार्टी की विशाल फौज सिर्फ मुंडियां हैं। हमें दाद देनी पड़ेगी कि एक व्यक्ति वोट और वोटों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या क्या और किस किस तरह के स्वांग रच सकता है। वह हरी झंडी दिखाकर रेलवे का गार्ड भी बन सकता है। कभी चीतों का स्वागत करने वाला तो कभी ड्रम मास्टर भी। कृष्ण ने कहा कि मैं ही सर्वत्र हूं। जहां देखोगे मुझे ही पाओगे। अपने कंधों पर इतना बड़ा बोझ उठाए और भाजपा को संसद के दोनों सदनों से भर देने की जुगत में लगा प्रधानमंत्री यकीनन एक नाम या एक ‘विशेषण’ से तो नहीं पुकारा जा सकता। उनके प्रशंसकों से पूछिए। सांसद निशिकांत दुबे तो साफ साफ स्वीकारते हैं कि हम मोदी के कारण से ही जीत कर आते हैं। यानी उनकी जीत में उनका कोई हाथ नहीं। सच यही है। इसीलिए हमने भाजपा को मुंडियों की फौज लिखा।
नरेंद्र मोदी की चाहत क्या है। देश को आरएसएस के सुपुर्द कर देना। शायद हां और शायद न। हां इसलिए कि मोदी की अंतरराष्ट्रीय नीतियों को न चाह कर भी आरएसएस उसका विरोध नहीं कर सकता। क्योंकि मोदी के सामने उसकी वह ताकत नहीं रही जो अटल बिहारी वाजपेई के समय तक रही थी। जब एक व्यक्ति अपनी मातृ संस्था से भी ऊपर उठ जाता है तो मातृ संस्था को उसे अवाक होकर देखने और उसकी हर नीति को मानने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता। इसका एक उदाहरण मोदी ने पेश किया है। आरएसएस ने कभी ऐसा सोचा नहीं होगा। बल्कि आरएसएस के सर्वेसर्वा हमेशा इस खामख्याली में रहे कि हमारा आदमी देश के शीर्ष पर होगा और जैसा हम चाहेंगे उसे मानना और करना पड़ेगा। लेकिन मोदी की हठधर्मिता और एकालाप ने सारे समीकरण उलट पुलट कर दिये। आज सत्ता में वास्तव में कोई दल नहीं एक व्यक्ति है। और निर्विवाद रूप में उसका ही राज है। वह सर्वत्र है इसलिए उसके कई रूप हैं और इसलिए विभिन्न नाम भी। आप चाहें जिस नाम से उसे पुकारें। सकारात्मक शब्द भी हैं और नकारात्मक शब्द भी। पहला प्रधानमंत्री जिसने देश को ‘इस ओर’ या ‘उस ओर’ में विभाजित कर दिया। और इस विभाजन से देश का कोई श्रेत्र, कोई उद्योग, कोई व्यावसायिक संस्थान, कोई शैक्षिक संस्थान कुछ नहीं बचा। 2002 के मोदी 2014 से पहले के नहीं और 2014 से पहले के मोदी 2014 के बाद के नहीं। देश के आम जनमानस में फिट बैठने वाले एक व्यक्ति ने कैसे अपने को उससे एकाकार किया इस पर सोच विचार किया जा सकता है। अर्थात नीचे से ऊपर समाज के मध्य वर्ग तक के जीवन और उस समाज की मानसिकता को जिसने समझ लिया और उसके मनोभावों के अनुरूप सारे हथकंडों को अपना लिया फिर उसे नकारने की हिम्मत होगी ही किसमें। इसके लिए ही किसी व्यक्ति को विभिन्न रूपों, विभिन्न मुखौटों , विभिन्न नामों की दरकार होती है। यों भी मोदी नेहरू और इंदिरा गांधी का वृहद विश्लेषण करते हुए विराजे हैं अपनी कुर्सी पर। इसे मान लेने में क्या हर्ज है। मोदी ने बेहद कुटिलता के साथ यह बात अपनाई हुई है कि जो जो अवगुण उनमें हैं और जिसे वे जानते हैं उन सब अवगुणों को अपने विरोधियों पर थोप देना ताकि अपने अनुयायियों का ध्यान सरलता से विरोधियों की ओर मोड़ा जा सके । जैसे उनसे बड़ा झूठा व्यक्ति और उनसे बड़ा घमंडी व्यक्ति शायद ही किसी ने देखा हो पर मोदी इन्हीं बातों को बड़ी चालाकी से विरोधियों पर खेल देते हैं। वे विरोधियों को झूठों के सरदार और उनके गंठबंधन को घमंडिया गठबंधन घोषित कर देना चाहते हैं। लेकिन यहां वे पिट भी रहे हैं। दरअसल उनके अवगुणों से इन नौ सालों में समाज काफी हद तक वाकिफ हो गया है लेकिन फिर भी मोदी की 2013 वाली समाज के मन में अंकित स्वच्छ और ऐसे कमेरू व्यक्ति की छवि मिटती नहीं जो आते ही देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करके विदेशों में इकठ्ठा सारा काला धन वापस ले आएगा और हर व्यक्ति उस धन का लाभार्थी होगा। अपने मन में अंकित इस छवि को बसाने के बाद समाज का कमेरू तबका बाकी सब भूल गया। मोदी क्योंकि राष्ट्रीय सोच के व्यक्ति कभी नहीं रहे । इसलिए वे इन बातों को भलीभांति समझते हैं और अपने इस वोटर वर्ग की ओर से निश्चिंत रहते हैं। उन्होंने जितने रूप और मुखौटे धारण किये और जितनी कलाएं दिखाईं उससे भारतीय जनमानस काफी हद तक प्रभावित रहा। दूसरा उनका हिंदू समाज। वह जितना है, उतना है ही । आप लोकतंत्र, संविधान और मोदी को एक करके देखेंगे तो गच्चा खा जाएंगे। मोदी ने जिस तरह से संसद का विशेष सत्र बुलाया, जिस तरह से महिला आरक्षण बिल पास कराया और जिस तरह से विपक्ष को इस बाबत घनचक्कर बनाया ताकि विपक्ष सिर पीटता रहे इस सब पर मोदी को खुद पर गुरूर है। वह गुरूर उस दिन दिखा जिस दिन मोदी ने महिलाओं से स्वयं का सत्कार करवाया। उन्होंने बड़े गुरूर से हर चीज का बखान किया। मानो बहुत बड़ा किला फतह किया हो । लेकिन आप मानें न मानें मोदी के प्रशंसक इसी रूप में इसे लेते हैं। इसलिए मोदी को किसी पूर्व प्रधानमंत्री के आलोक में न देखें, न उनसे उनकी तुलना करें और न वैसा विश्लेषण करें।
कल रविवार था। कल दो कार्यक्रम बढ़िया आते हैं हमेशा की तरह । अभय दुबे के विचारों का गुच्छा जैसा कार्यक्रम के प्रस्तोता संतोष भारतीय बनवा दें। मैं अभय दुबे को कहीं और ज्यादा नहीं सुन पाता। इसीलिए इस कार्यक्रम का इंतजार रहता है। एक और विशेष बात यह है कि इस कार्यक्रम में संतोष जी कुछ अलग सवालों को अलग तरीके से उठाने की कोशिश करते हैं। जैसे सवाल होंगे उतना ही कार्यक्रम रोचक बन पड़ेगा। एक कार्यक्रम उन्हें इस पर भी करना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की सत्ता यदि वापस लौट कर आती है तो भारतीय समाज की दशा दिशा और स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर कैसी होगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत कैसा होगा। भारत में कहां कहां और कैसे कैसे क्या क्या प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि शीर्ष नेतृत्व निर्लज्ज और क्रूर है और आरएसएस सत्ता का समूचा भोग कर रहा है। संतोष जी चाहें तो इस पर कभी बात करें। क्योंकि विपक्ष की जो रफ्तार हम देख रहे हैं वह निराशाजनक ज्यादा दिख रही है फिलहाल।
‘सिनेमा संवाद’ में सदाबहार अभिनेता देवानंद को क्या खूब याद किया गया। मजा आया। गायिका दिलराज कौर ने आत्मा की जाग्रत अवस्था की जो बात कही देवानंद के संदर्भ में, सच कहूं तो आंखें नम हो आयी थीं। अजय ब्रह्मात्मज ने सही कहा हम बुजुर्ग अभिनेता की बाद की फिल्मों से उनका आकलन करने लगते हैं जो सरासर गलत है। कार्यक्रम की सबसे खूबसूरत बात और विशेषता सौम्या बैजल का की मुस्कुराहट थी । जो हर कार्यक्रम में होती है। पूरे कार्यक्रम में मोनालिसा वाली मुस्कान। अच्छा लगता है। जवरीमल पारेख ने बहुत अच्छा और बेबाक बोला।
देवानंद की बात चली तो अंकुर की जुल्फें याद आ गयीं । अच्छा लगा। अंकुर बनाए रखो। अच्छे लग रहे थे। दो लटें। अंबरीष जी का कार्यक्रम उनके पैनलिस्टों की शक्लें देख कर बर्दाश्त नहीं होता। यदा कदा दो एक लोग अच्छे आ भी गये तो क्या। मुकेश कुमार का शनिवार का कार्यक्रम बहुत ठोस था।
सब कुछ के बावजूद बड़ा दुख होता है जब सुनते हैं कि विपक्ष मोदी से मुकाबला नहीं कर सकता। मोदी जो कुछ भी कर रहे हैं वे लोकसभा को सामने रख कर ही कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव को तो वे जो समझ रहे हैं सो अलग पर अर्जुन की आंख की तरह उनकी आंख भी अपने लक्ष्य पर है और वह है लोकसभा। विपक्ष को सद्बुद्धि आये, प्रार्थना कीजिए।

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