सच बताइए यदि आप यूट्यूब रोजाना देखते हैं तो आपका मन नहीं करता राजनीति किस कदर कचरा हो गई है इसलिए थोड़े दिनों के लिए कहीं बाहर घूमने जाया जाए। इस राजनीतिक चिल्ल-पों से दूर कहीं पहाड़ों की वादियों में। वही चैनल ,वही एंकर, वही चर्चा करते घिसे पिटे लोग। मन होता है कि लंबी तान कर सो जाएं और जब आंख खुले तो लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने हों। नतीजे आपके मन मुताबिक न हों तब भी न तो अभी और न तब आप कुछ कर सकने की हालत में नहीं होंगे। सत्ता पक्ष ऐसा निर्लज्ज और इनके लोग इतने नीच कि कभी कोई सोच भी नहीं सकता। और विपक्ष डावांडोल, लड़ता भिड़ता, एकदम सुस्त । तो आप बेबस हैं और सिर्फ जनता (जैसी भी है) उसकी बुद्धि और विवेक पर निर्भर हैं। आप और कर भी क्या सकते हैं। इसलिए एक ही विकल्प है तान कर चादर सो लिया जाए।
सप्ताह में सिर्फ संडे एक ऐसा दिन है जिसमें कम से कम एक पोर्टल ‘सत्य हिंदी’ तो ताले में रहता ही है राजनीतिक चर्चाओं पर। दो कार्यक्रम आते हैं महज जिन्हें सुनने की चाहत होती है। ‘अभय दुबे शो ‘ पसंदीदा कार्यक्रमों में से एक है। अभय भाई जहां तहां जाते हैं और राजनीतिक विषयों पर ही लोग उनसे बात करते हैं। क्या ही अच्छा हो यदि संडे का यह कार्यक्रम राजनीति से हट कर हो । हमारा सुझाव है संतोष भारतीय जी से कि सामाजिक विषयों पर बात किया करें। आज समाज की जो दशा है। अब से तीस चालीस पचास साल पहले जो समाज था। उसमें और आज के समाज में कहां कहां कैसे कैसे बदलाव आए हैं। वैश्वीकरण से पहले का समाज और वैश्वीकरण के बाद का समाज। अपराध , हिंसा, अदालतें, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, धर्म, धर्म के नाम पर पाखंड, गांधीवादी और गांधीवाद , सिविल सोसायटी, नौकरशाही, सिनेमा तब और अब, सिनेमा में वीभत्सता, ओटीटी, समाज में प्रेम तब और अब , अब कितना प्रेम कितनी वासना ऐसे तमाम विषय हैं जिस पर एक अभय दुबे का एक अलग ही दर्शन सामने आएगा। और इसके लिए संतोष भारतीय उपयुक्त हैं क्योंकि वे एंकर नहीं हैं। वे स्वयं पके हुए लेखक राजनीतिक और सामाजिक चिंतक हैं। वे ऐसे प्रश्नों को बखूबी रख सकते हैं। बस एक विनती है कि अभय जी के धारा प्रवाह बखान में वे बीच में बोलने से बेहतर एक उंगली उठा दें तो अभय जी स्वयं समझ जाएंगे कि संतोष जी कुछ जरूरी कहना चाहते हैं। दोस्तों ने कहा है कि अभय जी सुपर फास्ट स्पीड में होते हैं और संतोष जी बोलते जाते हैं। गाड़ी बहुत आगे जाकर रुकती है। बहरहाल, संतोष जी यदि अभय दुबे शो को सामाजिक मुद्दों का बना सकें बनिस्बत राजनीति के तो कभी नीरस नहीं रहेगा। क्योंकि राजनीति ही नीरस हो गई है तो नीरस विषय पर क्या बात करना। यह सुझाव है यदि संतोष जी गौर करें तो। बीच-बीच में राजनीति भी चले लेकिन चार छ सामाजिक विषयों के बाद अंतराल से।
एक दिन अचानक अमिताभ श्रीवास्तव ने साहिर लुधियानवी पर कार्यक्रम कर दिया। कई लोगों ने हमसे पूछा कि क्या सिनेमा संवाद का दिन बदल गया है। हमने कहा नहीं कोई विशेष प्रयोजन होगा। साहिर की जयंती या पुण्यतिथि या उन पर किस्सागोई तो मैं पता करूंगा। अमिताभ से पूछा तो वे बोले नहीं, कुछ नहीं बस यूंही। थोड़ा अटपटा लगा। लेकिन अमिताभ को कुछ भी अटपटा नहीं लगा। अब अमिताभ जाने और वे लोग तय करें जो श्रोता दर्शक हैं। मेरे विचार में कार्यक्रम के शुरु में कुछ कहना जरूर चाहिए था। इस बार उन्होंने सार्थक सिनेमा पर कार्यक्रम रखा ।
हम अपनी किशोरावस्था से सुनते पढ़ते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह तो साफ साफ समझ आता है। लेकिन यह डिबेट आज तक किसी मुकाम पर नहीं पहुंची कि सिनेमा समाज को प्रभावित करता है या समाज सिनेमा को प्रभावित करता है। इसी को दूसरे तरीके से कहिए कि सिनेमा समाज से लेता है या समाज सिनेमा से लेकर प्रभावित होता है। आजकल के फिल्मकार इसी की आड़ में छिपने की कोशिश करते हैं कि हम तो वही दिखाते हैं जो समाज में घटित हो रहा है। उसके चक्कर में आप अपनी सुप्त कुंठाओं को भी उसमें प्रदर्शित कर सकते हैं। पहले की फिल्मों में हम हिंसा के अतिरेक और अनावश्यक सेक्स सीन से बचते थे। ज्यादा से ज्यादा हवस और रेप के सीन आप बर्दाश्त कर सकते थे। पर आज ओटीटी के बाद सेक्स अपने वीभत्स रूप में हमारे सामने आया है। अप्राकृतिक यौन दृश्य अनावश्यक ठूंसे जाने लगे हैं। और तो और सार्थक सिनेमा के आज के फिल्मकार भी इससे बच नहीं पा रहे । हाल ही में विशाल भारद्वाज की फिल्म आई है – खुफिया। उसमें एक सेक्स सीन है। कोई फिल्म में उस सीन की उसकी उपयोगिता बताए । इसी तरह अनुभव सिन्हा की ‘भीड़’ में राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर के बीच एक सेक्स सीन है एकदम अनावश्यक। उसके बिना भी दोनों के अलग धर्मों को लेकर बीच की प्रगाढ़ता को साबित किया जा सकता था। और साबित थे ही । लेकिन विशाल भारद्वाज और अनुभव सिन्हा जो दिखाएंगे वह सब अच्छा ही होगा। ऐसा भी हम लोगों का दिमाग बन चुका है। दोनों फिल्मों के सीन को देख कर हमें ओटीटी की याद हो आती है।
कल की चर्चा में बिमल रॉय से लेकर आज तक की सार्थक सिनेमा की फिल्मों पर बात हुई। हमारा तो स्पष्ट मानना है कि सब कुछ दर्शक पर निर्भर करता है। जो समाज जितना सभ्य सुसंस्कृत होगा या फिर जितना फूहड़ या जाहिल होगा वह स्वयं अपने हिसाब का सिनेमा चुन ही लेगा। समाज में ‘क्लास’ का निर्माण क्यों होता है। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल आदि आदि का सिनेमा देखने वाली एक क्लास है। ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की एक अलग क्लास है और प्रकाश मेहरा, टीनू आनंद और मनमोहन देसाई जैसों की एक अलग और वृहद क्लास है। यह क्लास नागरिकों से बनती है। जब तक इंसान का स्वाद अलग है तब तक कला और मनोरंजन का स्वाद भी अलग है। सिनेमा के सच में इंसान खुद का सच देखना चाहता है। कोई मसाला लगा कर दिखाता है तो कोई सपाट बयानी से। इसलिए समाज की दिमागी प्रौढ़ता पर सब कुछ निर्भर लगता है हमें तो।
अमिताभ ध्यान दें कि स्टीरियो टाइप न हो जाए उनका प्रोग्राम। समझ ही रहे होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूं। उनके यहां अजय ब्रह्मात्मज ही हैं जो स्पष्ट और बिना लाग-लपेट के बोलते हैं। अच्छा लगे या बुरा । वे स्वयं भी यह कहते हैं।
‘सत्य हिंदी’ पर रात दस बजे का बुलेटिन बहुत लेट हो रहा है। नीलू व्यास आजकल कहां गायब हैं पता नहीं। विजय विद्रोही अपने ही अंदाज में अखबारों को बांचते हैं। वे बहुत ज्यादा एक तरफा हो जाते हैं। पता नहीं अखबार उठा उठा कर क्यों दिखाते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि आप अखबारों से ही हमें बता रहे हैं। फिर उठा कर दिखाने की क्या जरूरत। ऐसा लगता है जैसे कह रहे हों कि देख लो मैं झूठ नहीं बोल रहा। कमाल है। वायर में भी सब कुछ एक सरीखा ही हो रहा है। अपूर्वानंद की सिद्धार्थ वरदराजन से बातचीत घटना के बहुत बाद में आती है। यदि तुरंत बातचीत हो तो उसमें ताजगी रहेगी। वे कहेंगे उसके फलितार्थ हम समझते हैं। हमारे विचार में दोनों प्रबुद्ध हैं इसकी जरूरत नहीं। अपूर्वानंद का एक कार्यक्रम और आता है वायर पर। ‘कड़वी कॉफी’ के नाम से। कुछ अलग हट कर रोचक होता है। उसे देखें।
कुछ लोग हंसते हुए कहते हैं कि आशुतोष की शैली और उसके व्यक्तित्व पर लिखिए। खासतौर पर उसके तने हुए ‘नमस्कार’ पर। रोचक रहेगा। लिखा तो जा सकता है पर उससे होगा क्या। सत्य हिंदी में हेकड़ी वाले कई हैं नीलू और शीतल जी को छोड़ कर। हमें तो लल्लन टॉप के इंटरव्यू और न्यूज़ लॉण्ड्री के कार्यक्रम बहुत पसंद आते हैं। बीबीसी को सुनना भी बहुत भाता है। बाकी तो चौबीस देश की जनता के हवाले है देखना है क्या होता है। ये नीच सरकार इन दिनों महुआ मोइत्रा के पीछे हाथ धोकर पड़ी है। महुआ की पार्टी ने एकदम से किनारा कर लिया है। यह तो अच्छी बात नहीं। कम से कम यही कह देती ममता बनर्जी कि महुआ अपनी लड़ाई खुद लड़ेगी वह सक्षम है। पार्टी नैतिक रूप से उसके साथ खड़ी है। दरअसल ये श्रेत्रीय दल विभिन्न तरह से अलग अलग अपना रूप दिखाते नजर आते हैं। इसीलिए इनके एक होने पर डर ही ज्यादा लगता है। मोदी को पता है कि विरोधियों का पढ़ा-लिखा और प्रबुद्ध वर्ग सब जानता है इसलिए उनका फोकस एकदम नये और निचले तबके के वोटरों पर रहता है। जहां मोदी कहें रात तो रात, दिन तो दिन । मोदी को जाना होगा तभी देश सद्भाव की पटरी पर लौटेगा। जनता तय करे।
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