मोदी विधानसभाओं के चुनाव हारने वाले हैं, मोदी को लोकसभा में वापस लाने के लिए तमाम शक्तियों के अलावा आधा फिल्म जगत बड़े बड़े उद्योगपति अडानी अंबानी आरएसएस हिंदू सेनाएं विदेशों में मोदी भक्त सब पूरी ताकत से लगे हैं, विपक्ष का गठबंधन अभी तक अपने अंतर्विरोधों से उबर नहीं पा रहा जनता में विश्वास नहीं दिला पा रहा आपसी मनमुटाव को नहीं साध पा रहा कोई कार्यक्रम नहीं बना पा रहा, राहुल गांधी अपनी दुनिया में मस्त हैं वे मजदूरों कुलियों किसानों ट्रक ड्राइवरों के बीच जाकर अपनी ‘नयी’ राजनीति साधना चाहते हैं, देश की जनता त्रस्त है किससे त्रस्त है उसकी कोई एक परिभाषा नहीं है वह महंगाई बेरोज़गारी से त्रस्त है या अपने जीवन से कोई उसकी सुध नहीं लेता, लोकतंत्र के नाम पर कितनी तरह की नौटंकियां देख रहा है यह देश । यानी आजादी के सत्तर पिचहतर सालों बाद देश ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां से पता नहीं वह ऊपर उठेगा या गर्त में जाएगा। वजह सीधी सी है कि लोकतंत्र की सीढ़ियों पर चढ़ कर कोई नेता झूठ और छल से जनता को जादू दिखा कर सर्वोच्च आसान पर बैठ जाए ऐसा इस गांधी की विरासत लिए देश में न कभी हुआ और न किसी ने सोचा ही होगा। इसीलिए लोकतंत्र में आस्था रखने वालों में भय भी है और एक डगमगाता हुआ विश्वास भी। देश स्वयं में एक ऐसा कोलाज बन गया है जिसे आप सीधे सीधे कोई नाम नहीं दे सकते।
नरेंद्र मोदी सिर्फ एक प्रधानमंत्री ही नहीं हैं, वे एक ऐसे व्यक्ति कहिए या व्यक्तित्व कहिए जिसके कई दिमाग हैं। जिस प्रकार से इस सरकार के आने के बाद हम समाज में गहरी खाईयां होते देख रहे हैं और जिस प्रकार से ऐसे तत्वों को संरक्षण मिलता देख रहे हैं उस आधार पर कह सकते हैं कि मोदी के व्यक्तित्व में सकारात्मकता कम और नकारात्मकता अधिक है। ऐसे अधिकांश व्यक्तित्व वाले ‘साइको’ माने जाते हैं और उस नज़र से ही उनका मूल्यांकन किया जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी के साथ ऐसा कुछ नहीं है। बात एकदम पानी की तरह साफ है कि उनकी मातृ संस्था आरएसएस का एजेंडा उसकी स्थापना के दिन से एक ही है। मोदी पूरे देश में उसी एजेंडे को स्थापित कर देना चाहते हैं। लेकिन देश संचालन की अपनी शर्तों पर। आरएसएस ने उन शर्तों को देर से समझा और स्वीकृति दी। समझिए जो संस्था ‘स्वदेशी’ के लिए हमेशा से प्रतिबद्ध रही है उसे मोदी की वैश्विक शर्तों (जैसे सौ फीसदी एफडीआई, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्योता आदि) को बेमन से स्वीकार भी सिर्फ इसीलिए करना पड़ता है कि वह आरएसएस का देशज एजेंडा लागू कर रहे हैं। वे देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ के रास्ते पर इतनी तेजी से ले जाना चाहते हैं चाहे देश के एक बार फिर से दो टुकड़े ही क्यों न हो जाएं। आरएसएस इस बात से न केवल प्रसन्न है अपितु सौ फीसदी संतुष्ट भी है और हर हालत में मोदी सत्ता को बरकरार रखना चाहता है। बावजूद इसके देश कि समूची जनता में आक्रोश है। कर्नाटक और हिमाचल में हमने देखा । विधानसभाओं में कांग्रेस को बढ़त होते हुए भी जगह जगह कांटे की टक्कर है।
उधर हमारे विपक्ष का गठबंधन शायद यह सोच बैठा है कि जब मन से हम एक हो चुके हैं तो अब करने को बाकी भी क्या रह गया है। इसका प्रमाण तीन अलग अलग सफल बैठकें हैं। जनता पार्टी की सरकार के बाद से इस देश में विपक्ष के लिए हमेशा एक अविश्वास की भावना रही है। वह चुनाव दर चुनाव बलवती ही हुई है। विपक्ष क्योंकि कोई एक निश्चित स्वरूप की आकृति नहीं है इसलिए हर दल स्वयं को विपक्ष समझता है। वहां तक तो सब कुछ सही है। हर दल के लोग उसे मन से स्वीकार करते हैं। लेकिन जब यही दल एक होकर केंद्रीय सत्ता से लड़ने भिड़ने की बात करते हैं और हाथों में हाथ ऊपर उठा कर अपनी एकता का प्रदर्शन करते हैं तो जनता हंसती है। जनता का हंसना निर्बाध रहता है। यह हंसी जनता में किसी प्रकार का विश्वास नहीं आने देती । पता नहीं इस बार इन सभी दलों के नेताओं ने इस बात को कितना समझा है। फिलहाल तो यही दिखाई देता है कि एक डर है ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाओं का । इसी कारण सब एक हैं। न कोई कार्यक्रम घोषित हुआ है।न अभी तक जनता को लामबंद करके समझाया या उसे आंदोलित किया गया है। आये दिन अखबारों में विदेशों की तस्वीरें नजर आती हैं जहां जगह जगह विरोधियों के आंदोलन सड़कों पर नजर आते हैं। लेकिन हमारे यहां तो बरसों से ऐसा कोई दृश्य देखने में नहीं आया। विशेष तौर पर मोदी काल में तो नहीं। तो गठबंधन के मायने क्या हैं।
राहुल गांधी इन दिनों अलग ही ‘अपनी’ अलघ जगा रहे हैं। ये उनकी ‘नयी’ पॉलिटिक्स है। वे अलग अलग जाकर कभी धान रोपते हैं, कभी ट्रक चलाते हैं, कभी कुली बन कर सामान सिर पर ढोने लगते हैं, कभी लकड़ी छीलने लगते हैं। हम तो सिर्फ इसको खालिस नौटंकी और समय की बरबादी के रूप में देखते हैं। राहुल गांधी में यह विचार आया कहां से। चार हजार किमी की यात्रा ने उन्हें सामाजिक सौहार्द्र और सद्भाव का विचार दिया। जो स्तुत्य है। लेकिन उसकी सीमा को वृहद रूप में बढ़ाना चाहिए । अर्थात ये छोटे छोटे दिखावों की बजाय फिर यात्रा की जाए जिसकी स्वीकार्यता अभी एक चौथाई समाज में ही हुई है। पूरे भारत में स्वीकार्यता के लिए गांधी जयप्रकाश बनना पड़ता है। राहुल गांधी ने राजनीति में आने के बाद कितने सालों तक अपनी छवि को राजनीतिक व्यक्ति के रूप में स्थापित होने ही नहीं दिया। वे एक ‘नॉन सीरियस पॉलिटिशियन’ ही बने रहे। पहली छवि यदि ऐसी बन जाए और तब जब आपकी छवि को बदनाम करने में देश दुनिया की ताकतें लगी हों तब ऐसे में तो जिस ताकत की जरूरत होती है उसकी तो पूछिए ही मत। फिर भी एक बड़ी यात्रा करके राहुल गांधी ने उस ताकत का माद्दा दिखाया है। लेकिन हमारी भूल यह है कि हम समझ ही नहीं पाये कि घुटा हुआ नेता कैसा होता है, कितना तपा हुआ। हमने एक यात्रा से राहुल गांधी को बहुत बड़ा और सर्वमान्य नेता समझ लिया। एक नेता के निर्माण में व्यक्ति को कितने वर्ष देने पड़ते हैं। आज का ‘इंस्टेंट’ समाज शायद यह भूल गया है। आप स्वयं ही सोचिए राहुल गांधी को जुम्मा जुम्मा दस वर्ष हुए हैं राजनीति में गम्भीर हुए। उससे पहले उनकी जो छवि थी वह सब जानते हैं। तो क्या दस साल परिपक्व राजनीति के लिए बहुत होते हैं। हमें गम्भीरता से इस बात को समझना होगा। मेरा मानना है कि अभी राहुल राजनीति की क्लास में अध्ययनशील हैं। कृपया उनके लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी फिलहाल न देखें। वे स्वयं भी शायद समझ गये हैं कि सत्ता मेरे लिए मुनासिब नहीं है, कम से कम फिलहाल के लिए तो नहीं। इसलिए उन्हें सब कुछ छोड़ केवल गठबंधन की मजबूती के लिए काम करना चाहिए। वहां उनकी जबरदस्त स्वीकृति भी बनने लगी है अब । ममता बनर्जी भी उन्हें स्वीकार कर रही हैं। यह अच्छी बात है।
लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई क्रूर सत्ता से हैं । आप बहुत करेंगे तो ‘कुछ’ हासिल होगा। यह तो सामान्य स्थिति में होता है। लेकिन जब सामने ऐसे लोग खड़े हों जो सामान्य हों ही नहीं तब समझ लीजिए लड़ाई किस स्तर की होनी चाहिए। ये वो लोग हैं जो दस फीसदी करते हैं और नब्बे फीसदी का ढिंढोरा पीटते हैं। ढिंढोरा पीटने के लिए इनके पास प्रचार के तमाम माध्यमों के अलावा अब फिल्मी दुनिया के लोग भी शिद्दत से इनके लिए लग गये हैं। पिछले दिनों हमने देखा ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी घृणित फिल्म के प्रचार के लिए प्रधानमंत्री ही उतर आये। अब इस फिल्म को बनाने वाले ने एक और फिल्म बनाई है ‘द वैक्सीन वार’ । यह फिल्म शायद पिट रही है वजह कि यह एक खास नजरिए से बनाई गई है और ‘वायर’ को टारगेट पर किया गया है। इतना ही नहीं इसमें इस सत्ता के तमाम विरोधियों के खिलाफ जो जहर उगला गया है, वह भी फिल्मकार की नीयत पर सवाल उठाता है। गनीमत है कि इसका उतना शोर नहीं है जो ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ का हुआ था। हालांकि कोशिश पूरी की जा रही है। लेकिन फिल्म का नाम आकर्षण नहीं पैदा कर पा रहा है। यह फिल्म मोदी सरकार के झूठों की स्वीकार्यता के लिए बहुत फायदेमंद हो सकती है यदि चल पाये तो। और सत्ता में मोदी को बरकरार रख पाने में सहायक भी ।
पिछले दिनों दिग्गज फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। गनीमत है कि उनके जीते जी यह पुरस्कार उन्हें दिया जा रहा है। कल अमिताभ श्रीवास्तव के कार्यक्रम में वहीदा रहमान, उनकी कलाकारी और शख्सियत पर अच्छी चर्चा हुई। तीन अच्छे लोगों ने उन्हें अपने अपने तरीकों से याद किया। उसे देखिए ‘सत्य हिंदी’ पर। सौम्या बैजल ने वहीदा रहमान की डिग्निटी की बात की तो अजय ब्रह्मात्मज ने उनकी फिल्मों के ‘रेट्रोस्पेक्शन’ की मांग उठाई। जवरीमल पारेख ने तीन अभिनेत्रियों की बढ़िया तुलना की । पहले नंबर पर मीना कुमारी दूसरे पर वहीदा और नूतन। मुझे लगता है वाकई पहले नंबर पर मीना कुमारी हैं ही। वहीदा रहमान की तमाम फिल्मों के अलावा मुझे सबसे उल्लेखनीय फिल्म ‘खामोशी’ लगी। जो तब मुझे बिल्कुल भी समझ नहीं आयी थी जब मैंने पहली बार देखी थी। लेकिन फिर और देखा । जितनी बार खामोशी और आनंद फिल्म को देखा उतनी बार ही उनके नये नये अर्थ खुले।
फिर राजनीति पर लौटें तो एक फुरफुरी सी शरीर में बार बार उठती है कि यदि यह सत्ता दोबारा लौट आयी तो क्या होगा। कल्पना कीजिए और डरिए ।
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