सरकारी वकीलों की नियुक्ति में ईमानदारी, पारदर्शिता, नैतिकता और न्यायप्रियता की मंच पर खूब नौटंकी हुई और पर्दे के पीछे इन नैतिक-शब्दों को खूब फाड़ा गया. भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल ने अपने गुर्गों के साथ मिल कर समाजवादी शासनकाल के अधिकांश सरकारी वकीलों को योगी सरकार के मत्थे जड़ दिया. उत्तर प्रदेश सरकार के कानूनी मसलों का बंसल ने बंटाधार करके रख दिया. बंसल की सांगठनिक प्रतिबद्धता की यह मिसाल बेमिसाल है. इसके बाद जब विवाद ने तूल पकड़ा तब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दायित्व से पल्ला झाड़ लिया. प्रदेश के कानून मंत्री बृजेश पाठक ने अनभिज्ञ बता कर खुद को इन्नोसेंट साबित करने का प्रहसन खेला. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह इस नियोजित-नौटंकी के सबसे चतुर-सुजान पात्र निकले. उन्होंने अपने लोगों की नियुक्ति भी करा ली और यह भी कह दिया कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति में उन्हें पूछा ही नहीं गया. फिर बड़े ही नियोजित तरीके से इस मामले को हाईकोर्ट पहुंचाया गया और हाईकोर्ट ने उसी अपेक्षा के मुताबिक तल्ख टिप्पणियां कीं, सरकारी वकीलों की नियुक्ति को रेवड़ी-वितरण प्रक्रिया बनाने पर सरकार की खिंचाई की और लिस्ट पर शीघ्र पुनर्विचार कर पुनर्नियुक्ति करने का फरमान जारी किया. हाईकोर्ट ने पुनर्नियुक्ति के लिए एक तरफ सरकार (महाधिवक्ता) को सख्त समय-सीमा में बांधने का उपक्रम किया लेकिन दूसरी तरफ सरकार को समय भी खूब दिया. महेंद्र सिंह पवार की जिस जनहित याचिका पर हाईकोर्ट त्वरित सुनवाई कर रही थी, उस कोर्ट ने याचिकाकर्ता से यह नहीं पूछा कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के लिए वे खुद आवेदक थे या नहीं? यदि यह सवाल उसी समय पूछ लिया जाता तो जनहित याचिका स्वीकृत होने के पहले ही कानून की कसौटी पर ढेर हो जाती. खैर, यह नौबत ही नहीं आने दी गई. सारा स्टेज जैसे पहले से सेट था. बड़े इत्मिनान से सारे गोट-बिसात, दांव-पेंच सोच समझ कर बिछाए गए और सरकारी वकीलों की पुनर्विचारित सूची फिर से जारी की गई. इस पुनर्विचारित सूची ने भ्रष्टाचार-गुटबाजी-भाई-भतीजावाद को पुनर्स्थापित कर दिया. अब हाईकोर्ट भी मौन है. जबकि सारी कवायद ही बेमानी साबित हुई है. पुरानी सूची को फिर से जारी किया गया. पसंद के खास-खास नए नाम शामिल किए गए. नापसंद के खास-खास नाम हटाए गए. अयोग्यों को ऊंचे पद दिए गए और योग्य से ऊंचे पद छीन लिए गए. व्यक्तिगत रंजिशें साधी गईं और अदालत को घटिया राजनीति का नुक्कड़ बना दिया गया. अदालत-क्षेत्र में आप यह चर्चा सरेआम सुनेंगे कि योगी सरकार के सरकारी वकील बंसल-राघवेंद्र प्राइवेट-लिमिटेड के मुलाजिम हैं. यह बंसल और राघवेंद्र की सांगठनिक प्रतिबद्धता का ही कमाल है कि कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मंत्री सुनील बाजपेयी और कांग्रेस के कट्टर कार्यकर्ता जगदीश प्रसाद मौर्य को अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता बना दिया जाता है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अवाक देखते रह जाते हैं!
सरकारी वकीलों के नियुक्ति-प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो ढक्कन हो गया. संघ का यह मुगालता दूर हुआ कि सरकार संघ के बूते चलती है. संघ से जुड़े अधिवक्ता परिषद ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति और पुनर्नियुक्ति में भ्रष्टाचार और गुटबाजी की आधिकारिक शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की है. अधिवक्ता परिषद ने कहा है कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के दुष्प्रयोग के कारण महत्वपूर्ण कानूनी मामलों में सरकार हार रही है और उसे शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है. महाधिवक्ता द्वारा की गई अवमानना के मामले से उबरने के लिए सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़े. अदालत में सरकार का पक्ष लेने के बजाय महाधिवक्ता सरकार के विरोध में खड़े होकर अपनी योग्यता का परिचय देते हैं और सरकार की नाक कटवाते हैं. अधिवक्ता परिषद ने मुख्यमंत्री से कहा है कि महाधिवक्ता ने अपने ही जूनियर से रिट दाखिल करवाकर सरकारी वकीलों की नियुक्ति का एकाधिकार हासिल करने का रास्ता निकाला और कर्मठ कार्यकर्ताओं और योग्य अधिवक्ताओं को मनमाने ढंग से हटाकर अपमानित किया. अधिवक्ता परिषद का आरोप है कि महाधिवक्ता ने बार के चुनाव में उनका समर्थन न करने या उनकी चाटुकारिता नहीं करने वाले वकीलों को सरकारी अधिवक्ता के पदों से हटाया. इसके अलावा उन्होंने मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख कर सपा और बसपा के कार्यकाल में सरकारी वकील रह चुके अधिवक्ताओं की टीम बनाकर अपना गुट खड़ा कर लिया. महाधिवक्ता के इस आचरण के खिलाफ प्रदेशभर में संघ और संगठन के कार्यकर्ता अधिवक्ताओं में काफी नाराजगी है और वे प्रदेशभर में व्यापक आंदोलन शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं. इससे सरकार की छवि भी धूमिल हो रही है और न्यायालय में काम करने का माहौल भी नष्ट हो रहा है.अधिवक्ता परिषद का कहना है कि राघवेन्द्र सिंह ऐसे नायाब महाधिवक्ता हैं जिन्हें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की नोटिस देकर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित कराया गया और अटॉर्नी जनरल के माफी मांगने के बाद ही छोड़ा गया.
बहरहाल, तमाम विवाद और बदनामियों के बावजूद सरकारी वकीलों की जो पुनरीक्षित सूची जारी की गई, वह पुरानी सूची से और भी गई-गुजरी है. प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों 234 सरकारी वकीलों की पुनरीक्षित सूची जारी की, उसमें भी सपा और बसपा सरकारों में सरकारी वकील रहे अधिवक्ताओं की भरमार है. नई सूची में तो उन्हें और भी महिमामंडित किया गया और उन्हें तरक्की दी गई. अधिवक्ता परिषद के प्रदेश कोषाध्यक्ष एवं योग्य अधिवक्ता श्रीप्रकाश सिंह को मुख्य स्थाई अधिवक्ता (प्रथम) के पद से हटा दिया गया और उन्हें सूची में कहीं भी जगह नहीं दी गई. इसी तरह संघ और अधिवक्ता परिषद से जुड़े नितिन माथुर, विनोद कुमार शुक्ला, अमरेंद्र प्रताप सिंह, अनिल चौबे और अमर बहादुर सिंह को एडिशनल चीफ स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट कर स्टैंडिंग काउंसिल बना दिया गया. दिनेशचंद्र त्रिपाठी, सर्वेश मिश्रा और मनोज कुमार त्रिवेदी को स्टैंडिंग काउंसिल के पद से डिमोट करके ब्रीफ होल्डर बना दिया गया. कई ऐसे नामों को फिर से सूची में स्थान दे दिया गया, जिन्हें (सात जुलाई को बनी) पिछली लिस्ट से हटा दिया गया था. भाजपा और संघ की विचारधारा से सम्बद्ध दर्जनों सरकारी वकीलों को पुनरीक्षण के नाम पर हटा दिया गया और कुछ लोगों को अपमानित कर नीचे के पदों पर खिसका दिया गया. नई सूची में तीन मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 32 अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता, 58 स्टैंडिंग काउंसिल, 99 वाद धारक सिविल मामलों और 42 वाद धारक क्रिमिनल मामलों के लिए नियुक्त किए गए हैं. मुख्य स्थाई अधिवक्ता के तीन पदों में विनय भूषण को शामिल किया गया है. वे सपा सरकार में अपर स्थाई अधिवक्ता थे. इसके अलावा अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता के 32 पदों पर आधे से अधिक सपा या बसपा के समय रहे सरकारी वकीलों को जगह दी गई है. इनमें अभिनव एन त्रिपाठी, रणविजय सिंह, पंकज नाथ, देवेश चंद्र पाठक, विवेक शुक्ला, दीपशिखा, अजय अग्रवाल, अमिताभ कुमार राय, आलोक शर्मा, मंजीव शुक्ला, एचपी श्रीवास्तव, जगदीश प्रसाद मौर्या, हेमेंद्र कुमार भट्ट, शत्रुघ्न चौधरी, पंकज खरे और राहुल शुक्ला वगैरह शामिल हैं. इन नामों पर भाजपा और संघ में घोर विरोध था, लेकिन महाधिवक्ता ने इसे दरकिनार कर इन्हें नियुक्त कर दिया.
स्टैंडिंग काउंसिल के पद पर पहले की सरकारों में तैनात रहे अनिल कुमार चौबे, प्रत्युश त्रिपाठी, अखिलेश कुमार श्रीवास्तव, आनंद कुमार सिंह, पारुल बाजपेयी, शोभित मोहन शुक्ला, मनु दीक्षित, मनीष मिश्रा, अनुपमा सिंह, आशुतोष सिंह, कमर हसन रिजवी, संजय सरीन, विनायक सक्सेना, विनय कुमार सिंह, प्रफुल्ल कुमार यादव, शरद द्विवेदी, पुष्कर बघेल, ज्ञानेंद्र कुमार श्रीवास्तव और अनिल कुमार सिंह विशेन को फिर जगह दी गई है. वाद धारक (ब्रीफ होल्डर) के पद पर भी काफी संख्या में उन्हीं वकीलों को जगह मिली जो पिछली सरकार में सरकारी वकील थे. उल्लेखनीय है कि योगी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद जुलाई महीने में जब सरकारी वकीलों की नियुक्ति हुई थी तब चौथी दुनिया ने उन वकीलों के नाम प्रकाशित किए थे, जो समाजवादी पार्टी सरकार में सरकारी वकील थे या समाजवादी पार्टी के सक्रिय समर्थक थे. दूसरी बार चौथी दुनिया ने फिर उन नामों को प्रकाशित किया जो यूपी के महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह की चौकड़ी के सदस्य थे. महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह के लोगों के नाम का प्रकाशन इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वे यह आधिकारिक तौर पर कह चुके थे कि सरकारी वकीलों की नियुक्ति के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था. नियुक्ति प्रकरण के तूल पकड़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में जब महाधिवक्ता तलब किए गए थे, तब उन्होंने क्षेत्रीय प्रचारक शिवनारायण के समक्ष यही कहा था कि उन्हें नियुक्तियों के बारे में कुछ नहीं पता.