कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से लेकर समाजवादी पार्टी तक सब में दलितवाद की होड़ मची हुई है. सारे दल बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को हथियाने में लगे हैं. इसमें भाजपा सबसे अधिक सक्रिय है. कांग्रेस भी बड़ी शिद्दत से लगी हुई है. समाजवादी पार्टी भी सरकारी तौर पर डॉ. अम्बेडकर जयंती के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर को मानने वालों को लुभाने की कोशिश कर रही है. इन पार्टियों का अम्बेडकर प्रेम उनका दलितों अथवा डॉ अम्बेडकर के प्रति कोई हृदय परिवर्तन नहीं बल्कि उनके जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष की धार को कुंद करने का प्रयास है.
दरअसल पिछले कुछ साल से दलित नेताओं ने डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक इस्तेमाल वोट बटोरने में किया है और अम्बेडकर की विचारधरा को उसके क्रांतिकारी सारतत्व से विरक्त कर दिया है, उसी का यह दुष्परिणाम है कि भाजपा अम्बेडकर को हथियाने का साहस कर पा रही है. कांग्रेस बहुत दिनों से इस प्रयास में लगी है परन्तु उसे भी कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है.
वर्तमान दलित राजनीति के लिए किसी नए विकल्प की तलाश से पहले वर्तमान दलित राजनीति की दशा और दिशा का विवेचन करना बहुत ज़रूरी है. दलित आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा है. इतनी बड़ी आबादी की राजनीति की देश की राजनीति में प्रमुख भूमिका होनी चाहिए परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं. वर्तमान में दलितों की कई राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हैं. एक बहुजन समाज पार्टी है, दूसरी रिपब्लिकन पार्टी है जिसके कई घटक हैं और तीसरी रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी है.
दक्षिण भारत में भी एक दो छोटी मोटी दलित पार्टियां हैं. फिलहाल बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश तक सिमट कर रह गई है. रिपब्लिकन पार्टी महाराष्ट्र में सक्रिय है जिसके एक गुट के नेता रामदास आठवले और दूसरे के प्रकाश अम्बेडकर. इसका तीसरा गवई गुट हमेशा से कांग्रेस के साथ रहा है. इसके शेष गुट कोई खास अहमियत नहीं रखते हैं.
इन सभी पार्टियों की राजनीति व्यक्तिवादी, जातिवादी, अवसरवादी, सिद्धान्तहीन, मुद्दाविहीन और अधिनायकवादी है. इन पार्टियों के नेता अम्बेडकर और दलितों के नाम पर व्यक्तिगत लाभ के लिए अलग-अलग पार्टियों से गठजोड़ करते रहते हैं. एक ओर दलित नेता दलितों का भावनात्मक शोषण करके उनका अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. दूसरी ओर दूसरी राजनीतिक पार्टियां इन नेताओं की कमजोरियों से लाभ उठा कर इन्हें तथा दलितों की विभिन्न उप जातियों को पटा कर उनके वोट हथिया ले रही हैं.
परिणामस्वरूप दलित इन दलित नेताओं और दूसरी पार्टियों के लिए वोट बैंक बन कर रह गए हैं. जबकि उनके मुद्दे गरीबी, भूमिहीनता, बेरोज़गारी, अशिक्षा, उत्पीड़न और सामाजिक तिरस्कार किसी भी पार्टी के एजेंडे पर नहीं हैं. वर्तमान दलित राजनीति अपने जनक डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा, आदर्शों और लक्ष्यों से पूरी तरह भटक चुकी है. अब इसे एक नए रैडिकल विकल्प की ज़रूरत है.
वर्तमान दलित राजनीति की मुख्य व्याधियां या कमज़ोरियां पहचानी जा सकती हैं. वर्तमान दलित राजनीतिक पार्टियां कुछ व्यक्तियों की निजी जायदाद बन कर रह गई हैं. वे किसी राजनीतिक सिद्धांत अथवा दलित हित के बजाय व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी भी पार्टी से समझौता करने के लिए तैयार रहती हैं. वैसे तो वे सभी डॉ. अम्बेडकर का नाम लेकर दलित हितों की राजनीति करने का दावा करते हैं परन्तु अंतर्वस्तु में वे विशुद्ध व्यक्तिगत लाभ की राजनीति करते हैं. उनके लिए डॉ. अम्बेडकर और दलित केवल साधन मात्र हैं जिनका वे भावनात्मक शोषण करते है.
रिपब्लिकन पार्टी के विभाजन का मुख्य कारण भी व्यक्तिवाद ही था. मायावती तो बसपा की एक मात्र मालिक हैं उसमें कोई दूसरा नेता कोई अहमियत नहीं रखता है. बाकी पार्टियों में भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा किसी अन्य नेता का कोई वजूद नहीं है. डॉ. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा के बहुत खिलाफ थे. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि मुझे भक्त नहीं अनुयायी चाहिए परन्तु इन पार्टियों में तो भक्तजनों की भरमार है. इसी प्रकार डॉ. अम्बेडकर राजनीतिक पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र के प्रबल पक्षधर थे परन्तु दलित पार्टियों में तो घोर व्यक्तिवाद और अधिनायकवाद है.
वर्तमान दलित राजनीति सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठजोड़ का शिकार है. इसका सबसे बड़ा उदहारण बसपा द्वारा भाजपा से तीन बार किया गया गठजोड़ है और चौथे की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. मायावती का बहुजन अब सर्वजन की शरण में नतमस्तक है और व्यवस्था परिवर्तन की जगह समरसता की घुट्टी पी कर मस्त है.
इसी तरह मनुवाद को कोसने वाले इंडियन जस्टिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उदित राज अब भाजपा में शामिल हो कर राम नाम की माला जप रहे हैं. रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (ए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास आठवले ने भीम शक्ति और शिव शक्ति का गठजोड़ करके भाजपा की मदद से राज्यसभा में अपने लिए सीट प्राप्त कर ली है. लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान ने भाजपा से गठजोड़ करके अपने लिए हमेशा की तरह मंत्री पद हथिया लिया है.
दलित नेताओं द्वारा किए गए गठजोड़ दलित हित में नहीं बल्कि व्यक्तिगत लाभ के लिए किए जाते हैं. यह बात इस तथ्य से अधिक स्पष्ट हो जाती है कि इन्होंने जिन पार्टियों के साथ गठजोड़ किए हैं उनकी तथा इनकी पार्टी की विचारधार और एजेंडे में कोई समानता नहीं है. दलित नेता अक्सर यह कहते हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने भी कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों के साथ गठजोड़ किए थे. परन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि उन्होंने यह गठजोड़ दलित हित में किए थे न कि व्यक्तिगत लाभ के लिए. कांग्रेस के साथ वे संविधान बनाने के लिए इसलिए जुड़े थे, क्योंकि वे संविधान में दलितों को उनका हक़ दिलाना चाहते थे.
उन्होंने प्रथम चुनाव में दूसरी पार्टियों के साथ गठजोड़ विचारधारा और एजेंडा की समानता के आधार पर ही किया था. डॉ. अम्बेडकर का कांग्रेस के साथ गठजोड़ एक अपवाद स्वरूप था. उन्होंने कभी भी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहल के साथ समझौता नहीं किया और जब ज़रूरत समझी कांग्रेस मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.
वर्तमान दलित राजनीति मुद्दाविहीनता का शिकार है. अपने आप को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती की पार्टी का आज तक कोई भी दलित एजेंडा सामने ही नहीं आया है. उनका कहना है कि आप हमें पहले सत्ता दिलाइये फिर हम आपके लिए काम करेंगे.
यह तो दलित राजनीति का दिवालियापन है, जिसका न तो कोई दलित एजेंडा है और न ही कोई राष्ट्रीय एजेंडा. इसीलिए दलित राजनीति न केवल दिशाविहीन है बल्कि इसी कारण दलित नेता अपनी मनमर्जी करने में सफल भी हो जा रहे हैं. एजेंडा बनाने से नेता उससे बंध जाता है और उससे मुकर जाने पर उसकी जवाबदेही हो सकती है. इसीलिए दलित नेता अपने वोटरों से बिना कोई वादा किए अम्बेडकर और जाति के नाम पर वोट लेते हैं.
दलित पार्टियों द्वारा कोई भी एजेंडा घोषित न करने के कारण दूसरी पार्टियां भी अपना कोई दलित एजेंडा नहीं बनाती हैं और इतना बड़ा दलित समुदाय राष्ट्रीय राजनीति में केवल वोटर हो कर रह गया है और उसके मुद्दे राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु नहीं बनते. यह वर्तमान दलित राजनीति की सबसे बड़ी विफलता है.
वर्तमान दलित राजनीति पहचान की राजनीति की दलदल में फंसी हुई है. दलित नेता अपनी राजनीति दलित मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि जाति समीकरणों को लेकर करते हैं. वे या तो अपनी-अपनी उपजाति के वोटरों को जाति के नाम पर लुभाते हैं या फिर डॉ. अम्बेडकर के नाम को भुनाते हैं. मायावती तो दलितों पर अपना एकाधिकार जताती हैं.
वह यह बात भी बहुत अधिकारपूर्ण ढंग से कहती हैं कि उनका वोट हस्तान्तरणीय है जैसे कि दलित वोटर उनकी भेड़ बकरियां हों, जिन्हें वह जिस मंडी में चाहें मनचाहे दाम में बेच दें. दलित वोटों पर इसी एकाधिकार-भाव के कारण वे पार्टी का टिकट किसी भी माफिया, गुंडे बदमाश और दलित विरोधी को मनचाहे दाम पर बेच देती हैं और उसे दलित वोट दिलवा कर जिता देती हैं. इसी कारण चुनाव जीतने के बाद ये नेता दलितों का कोई काम नहीं करते और खुलेआम कहते हैं कि पैसा देकर टिकट लिया है और वोटरों को पैसा देकर वोट लिया है.
दरअसल मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडे बदमाशों, माफियाओं और दलित उत्पीड़कों के हाथों बेच दिया है जिनसे दलितों की लड़ाई थी. कुछ इसी प्रकार का व्यवहार अन्य दलित पार्टियों के नेता भी अपने वोटरों के साथ करते हैं. लिहाजा, मायावती चाहे जो भी दावा करें, लेकिन हकीकत यही है कि वर्तमान में उनका दलित आधार खिसक गया है.
दलित नेताओं की जातिवादी राजनीति के कारण भी जाति मज़बूत हुई है. दलित 500 से अधिक उपजातियों में बंटे हुए हैं जो एक दूसरे से जातिभेद करते हैं. जाति की राजनीति ने इस विभाजन को और भी उभार दिया है. दलित नेताओं की जाति की राजनीति ने बाबा साहेब के जाति विनाश के एजंडे को बहुत पीछे धकेल दिया है. बाबा साहेब ने कहा था, मेरे चरित्र और मेरी ईमानदारी पर कोई भी उंगली नहीं उठा सकता.
लेकिन आज कितने दलित नेता जो यह दावा कर सकते हैं? मायावती का भ्रष्टाचार तो खुली किताब है. ताज कोरिडोर, पत्थर घोटाला, आय से अधिक सम्पत्ति और अब यादव सिंह का मामला तो मायावती के भ्रष्टाचार के कुछ प्रमुख उदहारण हैं. अपनी और दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगाने में भी बड़े स्तर का भ्रष्टाचार उजागर हो चुका है. मायावती द्वारा ऊंचे दामों पर टिकट बेचना, अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग में पैसे लेना, रैलियों में थैली भेंट करवाना और करोड़ों के नोटों के हार स्वीकार करना क्या है?
मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का पार्टी के कार्यकलापों और कार्यकर्ताओं पर बहुत बुरा असर पड़ा है. इसके कारण बसपा के काफी कार्यकर्त्ता भ्रष्ट हो गए हैं. इसका एक मुख्य कारण पैसे वाले लोगों द्वारा बसपा का टिकट खरीद कर चुनाव में पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को पैसा बांट कर भ्रष्ट बनाना भी है. मायावती के भ्रष्टाचार का खामियाजा उत्तर प्रदेश के दलितों को भुगतना पड़ा है, जिस कारण वे राज्य द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं के वांछित लाभ से वंचित रह गए.
परिणामस्वरूप 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मापदंडों (शिक्षा दर, स्त्री-पुरुष अनुपात, शिशुओं का लिंग अनुपात और नियमित रोज़गार आदि) पर बिहार, ओड़ीशा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़कर देश के अन्य सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हैं. इससे स्पष्ट है कि मायावती की सत्ता का लाभ दलितों को नहीं बल्कि दूसरे लोगों को ही मिला है.
वर्तमान दलित पार्टियों की संरचना के विवेचन से स्पष्ट है कि वे एक व्यक्ति आधारित पार्टियां हैं जो उनकी व्यक्तिगत जागीर हैं, जिसका इस्तेमाल एक व्यापारिक घराने की तरह किया जाता है. इनके अध्यक्ष ही इनके सर्वेसर्वा हैं और उनके अलावा पार्टी में किसी दूसरे नेता का कोई अस्तित्व नहीं है. इनमें हद दर्जे का अधिनायकवाद है. जबकि डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्थापित पार्टियों की एक ख़ास विशेषता यह थी कि इनमें सामूहिक नेतृत्व और अंदरूनी लोकतंत्र का विशेष प्रावधान था. पार्टी के अन्दर व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं था.
उनके अंदर नेतृत्व की द्वितीय तथा तृतीय कतार थी. सभी निर्णय सामूहिक विचार विमर्श के उपरांत ही लिए जाते थे. 1952 में शिड्युल्ड कास्ट्स फेडेरशन के संविधान में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की व्याख्या करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि राजनीतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता, बल्कि यह लोगों को शिक्षित करने, उद्वेलित करने और संगठित करने का होता है.