जब कोई पत्थर चलाता है तो उसके बदले में गोलियां चलाने का क्या मतलब है? आज भी यहां (कश्मीर में) मज़ालिम हो रहे हैं. आज भी यहां रातों में क्रैकडाउंस होते हैं. घरों में घुसा जाता है. दरवाजे तो़डे जाते हैं. ख्वातीन के साथ ज़्यादतियां की जाती है. जवानों को गिरफ्तार किया जाता है और जेलों में भेजा जाता है. सबसे सेंसेटिव बात तो ये है कि उन्हें जम्मू के जेलों में भेजा रहा है. वहां उनके साथ ज्यादा सख्तियां होती है. जम्मू का जो एडमिनिस्ट्रेशन है, वो बहुत ही बायस्ड है. हमारे जवानों के साथ उनकी बहुत ज्यादा दुश्मनी है. वहां जो कैदी होते हैं, अलग-अलग जुर्म के, वो भी हमारे जवानों को तकलीफें पहुंचाते हैं. सरकार इसमें हमारी कोई मदद नहीं कर पाती है. कश्मीर पर भारत का जो क़ब्जा है, वो सिर्फ ताक़त का मुज़ाहिरा है.

हमने ऐलान किया था कि कश्मीर के जितने भी संगठन हैं और उनसे जु़डे लोग, दिल्ली से आए संसदीय प्रतिनिधिमंडल से नहीं मिलेंगे. कोई उनसे नहीं मिला. हमारे पास जब वो आ गए तो हमने ये सोचा कि जब हमारे कहने पर किसी ने भी इनके साथ मिलना गवारा नहीं किया, तो हमें मिलने का क्या जवाज़ है. इसलिए, हमने उनसे बात नहीं की. लेकिन, उसके बाद, यशवंत सिन्हा साहब वगैरह आए. उन्होंने कहा कि हम अपने तौर से आये हैं, हुकुमत की तरफ से नहीं.

हमने अपना किराया दिया है, अपनी तरफ से दिया है. सिर्फ इसलिए आये है कि हमें दर्द महसूस हो रहा है. यहां जो कुछ हो रहा है उसे देख कर हमें दुख हो रहा है. उस बुनियाद पर हमने उनसे बात की. तो, अब भी अगर उसी तरह की सोच के साथ कुछ और लोग यहां आ जाए, यह समझते हुए कि यहां जो क़त्ल ओ गारत हो रही है, तो हम उनसे बात करेंगे.

यहां जो सबसे बडा अल्मिया है, जिसे इस दौर में हमें देखना प़ड रहा है, वो ये है कि हमारे नौजवानों और बच्चों की आंखों की रोशनी ख़त्म कर दी गई है. इंशा 11 साल की लड़की है. पैलेट गन के हमले में उसकी आंखें चली गई है. अब उसे पता नहीं है कि दिन है या रात. उसकी तरह बहुत सी ल़डकियां और जवान और भी हैं. आंखों से महरूम हो चुके हैं. यह बहुत बड़ी त्रासदी है.

इतिहास गवाह है कि अभी तक इस तरह का वाकिया कहीं और नहीं हुआ है, जहां अपने ही लोगों की आंखें ले ली गई हो. लेकिन, हिंदुस्तान की हुकूमत और हिन्दुस्तान का राजनीतिक नेतृत्व संगदिली का बहुत अधिक प्रदर्शन कर रहा है.

उनके सीनों में दिल नहीं है, उन्हें महसूस नहीं हो रहा है कि हमारा दुख क्या है. वो हमारा दुख महसूस नहीं करते. उनका दिल, दिल के बजाए पत्थर है. यह इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी है. इस दुख को समझते हुए जो लोग भी आये, हम उनके साथ बात करने के लिए तैयार हैं. अब सवाल ये है कि उनके यहां आने के बाद वो हिंदुस्तान में जा कर फिर क्या करेंगे, क्या बयान देंगे, उनसे इस बारे में कोई तवक्को तो नहीं रखी जा सकती.

हमें नहीं मालूम कि वे यहां से जा कर कोई इंक़लाब ला सकेंगे, वहां जा कर कोई तब्दीली ला सकेंगे या हुकूमत के दायरे में कोई तब्दीली ला सकेंगे. लेकिन, जहां तक उनके जज्बे का संबंध है, जहां तक उनके दुःख महसूस करने का संबंध है और जहां तक यहां के मजलूमों के साथ हमदर्दी के जज्बे का ताल्लुक है, उस निस्बत से हमें उनसे मिलने में कोई आपत्ति नहीं है. जहां तक बातचीत के सिलसिले को शुरू करने का सवाल है, तो बातचीत के लिए प्रॉसेस तो शुरू होते रहे हैं, लेकिन बहरहाल देखना यह है कि हुकूमत की मानसिकता क्या है?

जहां तक बाहर से आए लोगों से मिलने-जुलने का सवाल है, सिविल सोसायटी के लोगों से मिलने का सवाल है, तो सबसे पहले तो यहां के सूरते हाल के बारे में आप को सही जानकारी (वाकफियत) होनी चाहिए. यहां सूरते हाल यह है कि हमको घर की चारदीवारी से बाहर जाने की इजाज़त नहीं है. हमारे पास कोई आये तो, उसको भी अन्दर आने नहीं देते. आप तसव्वुर भी नहीं कर सकते कि हमें जम्मू जाने का कोई मौक़ा दिया जाए.

कोई इसकी उम्मीद नहीं है कि हमको जम्मू के लोगों के साथ मिलने का मौक़ा दिया जाए. 2006 में मैं जम्मू गया था तो वहां लोगों के साथ ताल्लुकात बनाने का प्रयास किया. मुसलमानों के साथ भी और गैर मुस्लिमों के साथ भी. मेरी वहां मौजूदगी की वजह से एक इंकलाबी सूरते हाल पैदा हो गई थी. मैं जितने दिन वहां रहा. फिर 2007 में यही उम्मीद ले कर मैं फिर जम्मू गया. 2006 में वहां बहुत अच्छा काम हुआ था. लोगों के साथ संबंध रहे.

लोगों ने मेरी बात सुनी और अपनी जो समस्याएं थी, हमारे सामने रखी. बहुत अच्छा माहौल बना था वहां. लेकिन 2007 में जब मैं गया तो जाने के वक्त से 27 दिन तक, मुझे बंद रखा गया. नमाज़ प़ढने तक का मौक़ा नहीं दिया गया. जुमे की नामाज भी नहीं.

यहां तक कि मैं ईद की नमाज भी नहीं प़ढ सका. 27 दिन के बाद मैं वापस दिल्ली चला गया. उसके बाद से जम्मू जाने का कोई मौक़ा नहीं मिला मुझे. हमारे कुछ दोस्त हैं वहां. सर्राफ साहब हैं, अरुण जोशी वगैरह हैं. उनसे हमारे बड़े अच्छे ताल्लुकात हैं.

उनकी बेटियों की शादियां थीं तो उन्होंने हमें दावत दी, लेकिन फिर खुद ही कहा कि यहां का माहौल ख़राब है, आप न आयें, हम मा़फी मांगते हैं. वहां जो बजरंग दल के हैं, शिव सेना के हैं या प्रवीण तोगड़िया जैसे लोग हैं, उन्होंने जब सुना कि गिलानी यहां आने वाले हैं, तो उन पर दबाव डाला था कि हमको यहां नहीं आने दे.

ऐसे सूरते हाल में आप यह कैसे तव्वको रख सकते हैं कि जम्मू के लोगों के साथ हमारे संबंध हों. मैं 15 साल असेंबली में रहा हूं. 6 महीने के लिए हम बराबर जम्मू में रहते थे. वहां हमारे बहुत ताल्लुकात हैं गैर मुस्लिम भाइयों से. वे जानते हैं कि हमारा तर्ज़े
अमल क्या है, हम किस तरह पेश आते हैं और हमारी पॉलिसी क्या है? हमारी आइडियोलॉजी क्या है? बहरहाल इंसान का एहतराम हमारे दिलों और रगों में मौजूद है.

जो भी इंसान हो, चाहे किसी भी जुबान से, किसी भी मज़हब से, किसी भी वतन से ताल्लुक रखता हो, लेकिन बहैसियत इंसान उसका एहतराम होना चाहिए. ये एहतराम हमारे रगों में हैं, खून की तरह. इस निस्बत से वहां हमारे बड़े दोस्त हैं. लेकिन हमें जाने नहीं देते.

हुकूमत की यह पॉलिसी है कि हमलोगों को वहां जाने का मौक़ा नहीं दिया जाए. जहां तक हमारे बच्चों के राजनीति में आने या हमारी विरासत संभालने का सवाल है तो मैं ये साफ कर दूं कि हमारे बच्चों की वाबस्तगी उसी आइडियोलॉजी से जिसके जरिए हम इस गुलामी के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. वो इसे तस्लीम करते हैं, यह मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है. लेकिन पॉलिटिक्स में वे एक्टिव नहीं हैं. यह उनके अख्तियार में है कि वे पॉलिटिक्स में आना चाहते हैं या नहीं.

ह़डताल को ले कर हुर्रियत नेताओं की अभी एक मीटिंग हुई थी, उसमें हमने सारे स्टेक होल्डर को बुलाया था. ये जानने के लिए कि ह़डताल को ले कर उनका मशविरा क्या है. तकरीबन 200 लोगों को बुलाया था, जो खास-खास लोग थे. लेकिन, 300 से ज्यादा लोग जमा हो गए. सबको बात करने का मौका दिया गया. उनसे बातचीत कर के यह जानने की कोशिश की गई कि क्या ह़डताल को अभी जारी रखना है.

इस मीटिंग में इस बात पर भी विचार हुआ कि ऐसी सूरत में जब हमारे लोगों ने इतनी कुर्बानियां दी है, तो हमें क्या करना चाहिए. उन लोगों की कुर्बानियां बेमिसाल कुर्बानियां हैं. हम लोगों ने ये तय किया कि ह़डताल जारी रखनी चाहिए, ताकि हम उनका हक अदा कर सके और लोगों के दिलों में जो दुख है, जो गम है, जो सदमा है, उस पर मरहम लगा सके.

उन लोगों को हम ये एहसास दिलाए कि दिल में अभी जो जख्म है, वो अभी ताजा है. ह़डताल जारी रखने के फैसले के पीछे ये पहली वजह थी. उस मीटिंग में हम सबकी बातें सुनते रहे. आखिरकार हमने अपनी बात की. सबका शुक्रिया अदा किया. हमने लागों से कहा कि हम हिन्दुस्तान के फौजी कब्जे में है, इससे हम निजात हासिल करना चाहते है. आजादी हासिल करना चाहते हैं.

हम हिन्दुस्तान को याद दिलाते रहना चाहते हैं कि हिन्दुस्तान ने जम्मू-कश्मीर के अवाम से, चाहे वो हिन्दु हो या मुसलमान, चाहे सिख हो चाहे क्रिश्चियन हो, चाहे बौद्ध हो, जो वादा किया था, उसे पूरा करे. हमें अपने हक (सेल्फ डिटरमिनेशन) के इस्तेमाल का मौका दिया जाए, जैसा कि हमसे हिन्दुस्तान ने वादा किया था. सबसे पहले, लाल चौक पर शेख अब्दुल्ला ने कहा था कि हम अपनी फौजें वापस बुलाएंगे और जम्मू-कश्मीर के अवाम को मुस्तकबिल का फैसला करने का मौका देंगे.

फिर, अगस्त 1952 में जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि हमने जो जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ वादा किया है, उन्हीं के साथ नहीं बल्कि पाकिस्तान के लोगों के साथ भी है और आलिमी बिरादरी के साथ भी, वो वादा हम पूरा करेंगे. ये सब पार्लियामेंट के रिकार्ड में मौजूद है. उन्होंने ये भी कहा कि वे किसी जबरी कब्जे का रवादार नहीं हैं और ना जबरी शादी का रवादार हैं. ये उनके अल्फाज हैं.

नेहरू 1948 में कश्मीर मसले को यूएन ले गए. वहां जो बहस हुई है, उसमें उनका कहना था कि जम्मू-कश्मीर हमारा है, हमारा हिस्सा है और जो कबाइली यहां आ गए है, उनको निकाला जाए और जम्मू-कश्मीर को कंट्रोल करने का हमें मौका दिया जाए.

वहां जब बहस हुई तो पाकिस्तान ने भी अपना स्टैंड पेश किया. लेकिन, वहां ये तय हुआ कि नहीं, ‘जम्मू-कश्मीर इज नॉट ए पार्ट ऑफ इंडिया. दिस विल बी डेस्प्यूटेड टेरीटेरी एंड द पीपल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर शुड बी गिवेन द राइट आफ सेल्फ डिटरमिनेशन, सो डैट दे विल डिसाइड व्हेदर दे वांट टू स्टे विद इंडिया ऑर गो विद पाकिस्तान और रिमेन इंडेपेंडेंट.’ इस पर भारत ने दस्तखत किए है, तसलीम किया है. पाकिस्तान ने भी उसको तसलीम किया है और आलिमी बिरादरी उसकी गवाह है.

हम तभी से, उसके लिए लड़ रहे हैं, जिसके लिए भारत सरकार ने करारदादों पर दस्तखत किए है. हम उनकी इम्प्लीमेंटेशन के लिए बोल रहे हैं, ल़ड रहे हैं. लेकिन, भारत ने ताकत के बूते हमें डराने की कोशिश की और 1947 से ले कर आज तक आप देखेंगे कि लाखों कुर्बानियां दी जा चुकी हैं. अक्टूबर 1947 में सिर्फ जम्मू में लाखों मुसलमानों का बेदर्दी के साथ कत्ल किया गया और मुसलमानों को पाकिस्तान जाने को मजबूर कर दिया गया.

अभी भी ये सिलसिला जारी है. सर्दियों में सरकार श्रीनगर से जम्मू चली जाती है. अभी सारा दरबार जम्मू चला गया है. वैसे तो उनके यहां रहते भी कोई फायदा नहीं था. उनके यहां रहते हुए भी लोगों पर जो गोलियां चली, उसे रोकने के लिए हुकूमत ने कोई इंतजाम नहीं किया.

जब कोई पत्थर चलाता है तो उसके बदले में गोलियां चलाने का क्या मतलब है? आज भी यहां (कश्मीर में) मजालिम हो रहे हैं. आज भी यहां रातों में क्रैकडाउंस होते हैं. घरों में घुसा जाता है. दरवाजे तो़डे जाते हैं. ख्वातीन के साथ ज्यादतियां की जाती है. जवानों को गिरफ्तार किया जाता है और जेलों में भेजा जाता है. सबसे सेंसेटिव बात तो ये है कि उन्हें जम्मू के जेलों में भेजा रहा है.

वहां उनके साथ ज्यादा सख्तियां होती है. जम्मू का जो एडमिनिस्ट्रेशन है, वो बहुत ही बायस्ड है. हमारे जवानों के साथ उनकी बहुत ज्यादा दुश्मनी है. वहां जो कैदी होते हैं, अलग-अलग जुर्म के, वो भी हमारे जवानों को तकलीफें पहुंचाते हैं. सरकार इसमें हमारी कोई मदद नहीं कर पाती है. कश्मीर पर भारत का जो कब्जा है, वो सिर्फ ताकत का मुज़ाहिरा है.

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