स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले भाजपा सरकार को अपने दो साल से अधिक के कार्यकाल में एक बड़ी कामयाबी मिली. यह कामयाबी उसे जीएसटी संविधान संशोधन बिल के पारित होने के रूप में मिली. प्रधानमंत्री ने लोकसभा में एक राष्ट्रीय नेता की भूमिका निभाते हुए एक जोरदार समावेशी भाषण दिया, जिसमें विपक्षी दलों के प्रति उदारता की झलक दिखी. भले ही भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी न हो, लेकिन एक अग्रणी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उसने अपनी स्थिति को मजबूत किया है. गुजरात नेतृत्व में त्वरित बदलाव कर उसने कांग्रेस 2.0 की तरह व्यवहार किया. विधायकों द्वारा नए नेता के चुनाव की बात कौन करे, उनसे परामर्श भी नहीं लिया गया. अमित शाह ने फैसला सुनाया और गुजरात भाजपा ने उसे स्वीकार कर लिया.
दरअसल गुजरात में भाजपा के लिए केवल पटेल ही समस्या नहीं हैं, पटेल भी जाटों की तरह उस चीज की मांग कर रहे हैं, जो पहले से उनके पास है. दरअसल भाजपा की असली समस्या दलितों के साथ है, जो गौरक्षा के नाम पर सवर्ण हिंदुओं के हाथों उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं. गौरक्षा विहिप और बजरंग दल के विचारकों के लिए एक धर्म युद्ध हो सकता है, लेकिन भाजपा के लिए यह एक बहुत बड़ा खतरा है. आरएसएस भी इस खतरे को स्वीकार करती है.
अब केवल अंबेडकर के सम्मान में झुकने भर से दलित खुश नहीं होने वाले हैं. नरेन्द्र मोदी को भी इस बात का एहसास है. वह एक सेंटरिस्ट (मध्यवादी) गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यही कारण है कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने केवल संघ परिवार के नेता की भूमिका में दिखने के बजाय पूरे भारत का नेता होने की ज़िम्मेदारी दृढ़ता से निभाई.
मोदी फिलहाल खुद के लिए एक सेंटरिस्ट रास्ता तलाश रहे हैं. उनके अतीत के भाषणों से कई लोग धोखा खा गए और उसमें छिपी गहरी रणनीति को समझ नहीं पाए. 2009 के चुनाव में भाजपा की पराजय के बाद मोदी इस नतीजे पर पहुंचे कि केवल हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा से ही भारत में बहुमत नहीं मिल सकता है. उन्होंने अपने सामने समावेशी विकास का एक एजेंडा सामने रखा, जिसका नारा था ‘सबका साथ-सबका विकास’. उन्होंने अपने प्रयासों से दलितों के साथ बेहतर संबंध स्थापित किए और मुसलमानों और जिहादियों के बीच एक विभाजक रेखा खींची.
इसके बावजूद उनके विचार हिंदू रूढ़िवादी हैं और इसी को गौरक्षकों ने अब तक पकड़ रखा है. उनके मूल समर्थक गौरक्षा को अपना कर्तव्य समझते हैं. 2014 चुनाव के बाद गौरक्षा समूहों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है. क्योंकि भाजपा शासित राज्यों ने गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने के कानून को अपनाया है. मृत गाय और मारी गई गाय के बीच अंतर है. मारी गई गाय का इस्तेमाल बीफ के लिए होता है और मरी हुई गाय का चमड़ा इस्तेमाल होता है. अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित समुदायों के कुछ लोग यह मांस खाते हैं. ज़िन्दा पशु का व्यापार केवल बीफ के लिए नहीं होता है, बल्कि दुग्ध उत्पादन के लिए भी होता है. गौरक्षक इस भेद को स्वीकार नहीं करते. यदि कोई भी व्यक्ति जीवित या मृत गाय के साथ पाया जाता है तो गौरक्षक उसकी पिटाई कर देते हैं.
यह बंद होना चाहिए. न सिर्फ इसलिए कि कुछ गौरक्षक अपराधी हो सकते हैं, बल्कि इसलिए भी कि गायों की बिक्री, परिवहन और वितरण को रोकने के लिए वे जो कर रहे हैं, वह पूरी तरह से अवैध है और ग्रामीण भारत के लिए आर्थिक रूप से हानिकारक भी. प्रधानमंत्री ने इस अभियान की शुरुआत की है, जो उनकी पार्टी के चुनावी अभियान के लिए काफी जोखिम भरा है. क्योंकि यही लोग चुनाव के समय कार्यकताओं की भूमिका में होते हैं. लेकिन इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री को भारत की आधुनिकीकरण करनी है और देश को शीर्ष पर ले जाना है तो उन्हें इस बात पर जोर देना चाहिए कि कानून विचारधारा से ऊपर है. यह एक जोखिम भरा कदम है, लेकिन मोदी को इस तरह का जोखिम उठाना होगा, अगर वह स्वयंभू गौरक्षकों के बजाय सभी भारतीयों का अग्रिम पंक्ति से नेतृत्व करने की इच्छा रखते हैं.